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छठ पर्व: उत्सुकता जब आलोचना बन जाए तो समझिए आप गलत हैं

जब कोई किसी परंपरा से भावनात्मक तौर पर जुड़ा हो तो आपके सवाल में आलोचना नहीं बल्कि उत्सुकता होनी चाहिए

Pratima Sharma

इन दिनों सोशल मीडिया पर एक खास तबका तेजी से सक्रिय हो रहा है. यह खुद को 'प्रोग्रेसिव' मानता है. इनकी आदत होती है कि मुद्दा चाहे जो भी हो वे अपनी बात ऐसे रखेंगे मानो वो सही और पूरी दुनिया गलत है. मुद्दे की जानकारी भले ही रत्ती भर ना हो लेकिन 'सलाह' देने में इनका कोई सानी नहीं होगा.

आजकल कुछ ऐसे ही तथाकथित 'प्रोग्रेसिव' छठ पूजा की कमियां गिनाने में लगे हैं. छठ! कुछ साल पहले तक यह बिहार और यूपी के कुछ इलाकों में ही मनाया जाता था. धीरे-धीरे रोजगार की तलाश में लोग शहर बदलते गए और इस पर्व का दायरा भी बढ़ता गया.


पानी गंदा, पर्व नहीं

छठ में ढलते सूरज और उगते सूरज को अर्घ्य दिया जाता है. यह कुछ चुनिंदा पर्वों में से एक हैं जब आप सीधे प्रकृति की पूजा करते हैं. क्या प्रकृति की पूजा करना अपराध है? क्या नदियों और तलाबों की पूजा करना गुनाह है? महिलाओं के प्रति खासतौर पर ज्यादा संवेदनशील होने वाले लोगों का कहना है कि गंदे पानी में देर तक महिलाओं के खड़े होने से उन्हें कई तरह की बीमारियां हो जाती हैं.

चलिए मान ली आपकी यह बात. इसमें समस्या गंदा पानी है या छठ पर्व? गंदे पानी में महिलाओं के खड़े होने से अगर कोई बीमारी होती है तो इसमें नदियों में गंदगी फैलाने वालों की गलती है या पर्व करने वालों की. गंदे पानी में पूजा करना किसी का शौक नहीं होता. ऐसा नहीं है कि दिल्ली एनसीआर में रहने वाला हर आदमी उसी गंदे पानी में उतर कर छठ करता हो. कुछ लोग अपनी सोसायटी के स्विमिंग पूल, मंदिर में भी पूजा करते हैं.

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बस आलोचना ही क्यों, जाइए सफाई करिए

पूरब के लोगों का एक तबका ऐसा भी है जिनका शहर भले ही छूट गया लेकिन छठ पूजा करने की ललक नहीं छूटी. अपने शहर में दो दिन पहले से ही घाटों की सफाई करके उसे मंदिर बना दिया जाता था. तलाब, नहर या नदी का पानी भी उनके मन जैसा ही साफ था. दो दिन का अर्घ्य किसी समारोह से कम नहीं होता था. इन लोगों का शहर बदल गया लेकिन इनकी आदतें नहीं बदलीं. अब भी इन्हें लगता है कि भले ही अपने शहर ना लौट पाए हों लेकिन दिल्ली-एनसीआर में भी उसी अंदाज में छठ पूजा करते हैं.

मुस्लिम महिलाओं ने छठ से पहले घाटों की सफाई की.

10 में से 9 लोग ऐसे होंगे, जिनका यह मानना होगा कि गंदे पानी में महिलाओं को खड़े होकर व्रत नहीं करना चाहिए. लेकिन ऐसे कितने लोग हैं जिन्होंने छठ व्रतियों के लिए अपनी चिंता जाहिर करते हुए दिल्ली की नदियों, नहरों को साफ करने की पहल की होगी. लाजिमी है इसमें किसी की कोई दिलचस्पी नहीं है. यहां तो पूरा मामला ही छठ से होने वाले नुकसानों पर फोकस है.

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सिंदूर और बिना ब्लाउज की साड़ी पर ऐतराज क्यों?

सोशल मीडिया पर इस बात पर भी ऐतराज जताया जाता है कि बिहार की महिलाएं छठ पूजा में नाक से मांग तक क्यों सिंदूर भर लेती हैं? इस सवाल में कुछ जानने की उत्सुकता कम और आलोचना ज्यादा नजर आती है. ऐसा नहीं है कि मैं सिंदूर लगाने या न लगाने की हिमायती हूं. लेकिन अगर किसी खास प्रदेश की खास परंपरा है ऐसा करना तो मैं उस पर बेवजह सवाल नहीं उठाऊंगी.

क्या आपने किसी बंगाली की शादी देखी है? किसी भी बंगाली शादी या शुभ कार्य में महिलाएं एक स्वर में उलु ध्वनी निकाली जाती है. किसी दूसरी परंपरा के लिए ऐसी आवाज अशुभ माना जा सकता है. लेकिन बंगाली समाज में इस आवाज का मकसद बुरी चीजों को दूर करना है. हमारे देश में परंपराओं की जो विभिन्नता है उस पर कटाक्ष करके खत्म करना किसी भी नजर से 'प्रोग्रेसिव' होना नहीं कहलाता.

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छठ में आम तौर पर व्रती एक ही साड़ी (पेटीकोट या ब्लाउज नहीं) लपेटकर अर्घ्य देती हैं. हालांकि धीरे-धीरे अब यह चलन सिर्फ गांवों तक ही रह गया है. इस पर लोगों की दलील होती है कि सिर्फ एक ही कपड़ा पहनकर उनका पूजा करना ठीक नहीं है.

सोचिए कितनी दिलचस्प बात है कि आप सोशल मीडिया पर ब्लाउज लेस साड़ी ट्रेंड फॉलो कर सकती हैं, उसमें शामिल हो सकती हैं. लेकिन अगर कोई अपनी सहूलियत से एक ही कपड़ा पहनना चाहे तो उसमें क्यों सीख दी जाती है. हर परंपरा की कुछ अच्छी और कुछ बुरी बातें होती हैं. लेकिन जब कोई किसी परंपरा से भावनात्मक तौर पर जुड़ा हो तो...आपके सवाल में आलोचना नहीं बल्कि उत्सुकता होनी चाहिए. क्या पता कुछ आपको भी अच्छा मिल जाए.