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आंकड़ों में तो भारत ने फ्रांस को पछाड़ दिया क्या सच में आम भारतीयों पर भी इसका असर पड़ा है?

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार के लिए ये खबर चुनाव प्रचार के दौरान चर्चा करने वाली बन सकती है. वैसे भारतीय अर्थव्यवस्था की ये प्रगति आश्चर्यजनक नहीं है

Dinesh Unnikrishnan

भारत विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की प्रतिष्ठित सूची में लागातार ऊपर की ओर बढ़ता जा रहा है. वर्ल्ड बैंक के आंकड़ों के मुताबिक, पिछले साल भारत विश्व की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है. भारत ने फ्रांस को पछाड़ते हुए पूरे विश्व में छठवां स्थान प्राप्त किया है. ये देश के लिए गर्व की बात है और साथ देश की सत्ताधारी दल बीजेपी के लिए भी ये खबर अच्छी है क्योंकि देश 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए धीरे-धीरे अग्रसर हो रहा है.

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार के लिए ये खबर चुनाव प्रचार के दौरान चर्चा करने वाली बन सकती है. वैसे भारतीय अर्थव्यवस्था की ये प्रगति आश्चर्यजनक नहीं है क्योंकि जिस तरह से पिछले कुछ वर्षों से भारतीय अर्थव्यवस्था उड़ान भर रही थी उससे इस मुकाम पर पहुंचना देश के लिए तय था. यकीन मानिए केवल पिछले एक दशक में भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था को दोगुणा कर लिया है, इससे फ्रांस की अर्थव्यवस्था पिछड़ गई और भारत विश्व में छठें स्थान पर काबिज हो गया.


फ्रांस की अर्थव्यवस्था में गिरावट

पिछले दशक में भारत की जीडीपी ने औसतन 8.3 फीसदी की बढ़ोत्तरी की वहीं फ्रांस की अर्थव्यवस्था लड़खड़ाते हुए, बढ़ोत्तरी तो छोड़ दीजिए, 0.01 प्रतिशत गिर गई. पिछले दस वर्षों में देश की जीडीपी 116.3 फीसदी बढ़ी. ये 2007 के 1.201 ट्रिलियन डॉलर से बढ़ कर 2017 में 2.597 ट्रिलियन डॉलर की हो गई. जबकि फ्रांस ने अपनी अर्थव्यवस्था में इस दौरान 2.8 फीसदी की गिरावट देखी.

फ्रांस की अर्थव्यवस्था 2007 में 2.657 ट्रिलियन डॉलर से घटकर 2017 में 2.583 ट्रिलियन डॉलर रह गई. ये आंकड़े इस बात को साबित करते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था लागातार आगे बढ़ रही है और ये विश्व के उभरते पावर हाउस के रूप में स्थापित हो रही है. लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की सूची में भारत के उभरने का साधारण मतलब क्या है और ये किस तरह से आम भारतीयों से सीधे जुड़ा हुआ है?

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अगर आप विश्व की आर्थिक महाशक्तियों की प्रति व्यक्ति आय का ग्राफ देखेंगे तो आपको लगेगा कि इसका ज्यादा मतलब नहीं है. लेकिन इसको समझने के लिए भारत और फ्रांस के ये आंकड़े देखिए. भारत और फ्रांस के प्रति व्यक्ति आय के परचेजिंग पावर पेरिटी यानी पीपीपी पर नजर डालिए.

वर्ल्ड बैंक की वेबसाइट के नवीनतम आंकड़ों के अनुसार भारत की अनुमानित प्रति व्यक्ति आय 7060 डॉलर है जबकि फ्रांस की प्रति व्यक्ति आय 43,720 है, जो कि भारत से लगभग छह गुणा ज्यादा है. पीपीपी के अंतर्गत प्रति व्यक्ति आय में भारत विश्व की सूची में 123वें पायदान पर है जबकि फ्रांस इस सूची में 25वें नंबर पर है. यानी की अगर इस पैमाने पर भारत को परखा जाए तो एक औसत भारतीय एक औसत फ्रेंच नागरिक से बहुत पीछे है.

लेकिन हम पीपीपी के अंतर्गत प्रति व्यक्ति आय की बात कर ही क्यों रहे हैं? ऐसा इसलिए है क्योंकि पूरे विश्व में अलग-अलग देशों के नागरिकों के आय के स्तर को जानने समझने के लिए एक समान यूएस डॉलर के टर्म को इस्तेमाल किया जाता है. ये हमें अलग-अलग देशों के तुलनात्मक प्रदर्शन को दिखाता है.

80 फीसदी भारतीय जनता अपनी जीविका के लिए अनाधिकारिक क्षेत्र पर निर्भर है

अर्थव्यवस्था का आकार भूगोल के आकार से सीधे जुड़ा हुआ है. भारत की आबादी 1.34 बिलियन है जबकि फ्रांस की महज 67 मिलियन. अगर आप किसी अर्थव्यवस्था में वहां के लोगों की समृद्धि के बारे में जानना चाहते हैं तो पीपीपी से ही इसको मापने का सही तरीका है. ये भी एक कारण है कि भारत अपनी जनसंख्या की वजह से फ्रांस से पीपीपी में काफी पीछे है. (प्रति व्यक्ति आय का मतलब पूरी अर्थव्यवस्था देश की पूरी जनसंख्या से विभाजन का परिणाम). वैसे ये जरूरी नहीं कि केवल जनसंख्या की वजह से पीपीपी में अंतर हो. चीन जिसकी आबादी 1.4 बिलियन है उसकी प्रति व्यक्ति आय 16,760 डॉलर है और वो विश्व में 77वें नंबर पर है. यहां ये उदाहरण देने का मतलब ये है कि भारत को प्रति व्यक्ति आय जैसे असमान मापकों से ऊपर उठने के लिए बड़े आकार और तीव्र गति से अपनी अर्थव्यव्यवस्था को बढ़ाना होगा.

सबसे बड़ा सबूत तो देश में रोजगार के मायूस माहौल को लेकर है. लेकिन सवाल ये है कि क्या अर्थव्यवस्था के बड़े होने से पिछले कुल सालों में रोजगार की स्थिति देश में बदली है? बीजेपी और समर्थक हमेशा से ये बात दोहराते आए हैं कि देश में समस्या रोजगार की कमी की नहीं बल्कि आंकड़ों की कमी रही है. लेकिन तथ्य ये है कि लगभग 80 फीसदी भारतीय जनता अपनी जीविका के लिए अनाधिकारिक क्षेत्र पर निर्भर है. इसमें से अधिकतर अभी भी कृषि पर निर्भर हैं जबकि इस क्षेत्र का, अर्थव्यवस्था में योगदान आजादी के समय 50 फीसदी था जो कि अभी घटकर 15-16 फीसदी पर आ गया है. इससे उत्पादन ज्यादा बढ़ा नहीं लेकिन फिर भी कृषि अभी भी देश में रोजगार का सबसे बड़ा माध्यम है.

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ये एक बड़ी वजह है कि पहले का गरीब आज भी गरीब है और वो मुफलिसी में अपना जीवन गुजार रहा है. आज भी भारत के पास ठोस पे रोल के आंकड़ें नहीं हैं लेकिन ये माना जा रहा है कि देश में बेरोजगारी दर काफी ज्यादा है. चीन यूके और जर्मनी में बेरोजगारी दर 3-4 फीसदी है जबकि फ्रांस में ये करीब 9 फीसदी है.

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनोमी(सीएमआईई) के आंकड़ों के मुताबिक भारत में बेरोजगारी दर इस साल फरवरी 25 को समाप्त हुए सप्ताह में 71 सप्ताह के सबसे ऊंचे स्तर पर रही. सीएमआईई के अनुसार जुलाई 2017 से बेरोजगारी के आंकड़े लागातार बढ़ते जा रहे हैं.

अभी हाल तक भारत में सबसे ज्यादा गरीबों का बसेरा था लेकिन ब्रुकिंग्स स्टडी के मुताबिक भारत ने इस बदनुमा टैग से अब अपना दामन छुड़ा लिया है. इस स्टडी के मुताबिक मई 2018 के अंत तक भारत के मुकाबले नाइजीरिया में सबसे ज्यादा गरीब थे. नाइजीरिया में भारत के 73 मिलियन गरीबों के मुकाबले गरीबों की संख्या 87 मिलियन है.

जब नरेंद्र मोदी ने 2014 में देश की सत्ता संभाली तो उन्होंने देश में उत्पादन क्रांति लाने का वादा किया था. भारतीय अर्थव्यवस्था में उत्पादन और कृषि क्षेत्र के अंश के बढ़ने का अनुमान था क्योंकि देश की जीडीपी में इन क्षेत्रों का योगदान लागातार कम हो रहा था.

प्रतीकात्मक

नोटबंदी का असर अर्थव्यवस्था पर भी पड़ा है

उत्पादन क्षेत्र का वर्ष 2012 की जीडीपी में योगदान 17.4 फीसदी था जो कि 2015 तक लगातार गिरने से पहले हल्का सा उठा. वित्तीय वर्ष 2018 में उत्पादन क्षेत्र का योगदान जीडीपी में 18.1 फीसदी रहा. यहां ये ध्यान रखने वाली बात ये है कि सरकार ने ‘मेक इन इंडिया’ के माध्यम से देश में उत्पादन का लक्ष्य कुछ वर्षों में बढ़ा कर जीडीपी का 25 फीसदी करने का रखा था. लेकिन मोदी सरकार के चार साल बीत जाने के बाद भी इस संबंध में कुछ खास नहीं हो सका है. हालांकि सेवा के क्षेत्र का योगदान, जीडीपी में बढ़ता हुआ देखने को मिला है. वित्तीय वर्ष 2012 में जहां जीडीपी में सेवा क्षेत्र का योगदान 18.9 फीसदी था वो 2018 में बढ़कर 21.7 फीसदी हो गया. ये एकमात्र ऐसा क्षेत्र है जिसने जीडीपी की बढ़ोत्तरी को रफ्तार दी है, जबकि ‘मेक इन इंडिया’ के बड़े-बड़े कैंपेन चलाने के बाद भी इस क्षेत्र में कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं हुई.

देश में कई ऐसे अर्थशास्त्री हैं जो कि मानते हैं कि अगर 2016 के नवंबर में नोटबंदी नहीं हुई होती तो 2015-16 और 2016-17 के जीडीपी के आंकड़ों में और बढ़ोत्तरी होती. लेकिन सरकार इस तर्क से इत्तेफाक नहीं रखती. सरकार का कहना है कि नोटबंदी ने भारतीय अर्थव्यवस्था में एक ऐसा स्टोज सेट किया है जिससे भारत को भविष्य में आगे बढ़ने में सहायता मिलेगी. इस तर्क पर वाद विवाद अब भी जारी है. लेकिन भारत को विश्व की प्रगतिशील अर्थव्यवस्थाओँ में खुद को बनाए रखना है तो उसे अपने अंदर की कमजोरियों को पहचान कर उसका निराकरण करना होगा.

(आंकड़ों का सहयोग-किशोर कदम)