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भारतीय उद्योग के लिए क्या हैं ट्रंप के मायने

ट्रंप का चुनाव अभियान पूरी तरह नकारात्मक रहा. वो अप्रवासियों, वैश्विकरण और मुसलमानों के खिलाफ बोलते रहे.

Updated On: Nov 21, 2016 09:10 AM IST

FP Staff

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भारतीय उद्योग के लिए क्या हैं ट्रंप के मायने

-मदन सबनविस

अधिकतर लोग मान रहे थे कि अमेरिका की राष्ट्रपति हिलेरी क्लिंटन बनेंगी. लेकिन नतीजा उल्टा निकला. डोनाल्ड ट्रंप की मस्तमौला छवि ने उन्हें दुनिया भर की मीडिया का विलेन बना दिया.

इसी के चलते मीडिया हिलेरी का समर्थन करने पर मजबूर हुआ. यह जानते हुए भी कि हिलेरी में भी ‘वो बात’ नहीं है. ऐसा मान लिया गया था कि अमेरिकी जनता भी ट्रंप को स्वीकार नहीं करेगी.

ट्रंप का चुनाव अभियान पूरी तरह नकारात्मक रहा. वो अप्रवासियों, वैश्वीकरण और मुसलमानों के खिलाफ बोलते रहे. शायद यही मुद्दे थे, जिनसे अमेरिकी प्रभावित हुए और उन्होंने डोनाल्ड ट्रंप को पहले प्राइमरीज में जिताया फिर राष्ट्रपति पद पर भी बैठाया.

अब, जब ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति चुन लिए गए हैं, तब भारत के लिए इसके क्या मायने हैं? हमें इसी से मतलब होना चाहिए. चुनाव अभियान के दौरान भारत की तरफ से भी दोनो तरह की प्रतिक्रियाएं देखने को मिली.

कुछ ने तो ट्रंप को सर-माथे पर बैठाया जबकि कुछ ट्रंप की छवि से सावधानी बरत रहे थे.

जार्ज बुश के दौर से ही रिपब्लिकन पार्टी पाकिस्तान समर्थित सीमा पार आतंकवाद के मुद्दे पर भारत के पक्ष में खड़ी रही है. परमाणु मुद्दे पर भी ट्रंप भारत को अपने समर्थन से और मजबूती दे सकते हैं. हालांकि, हमें ट्रंप की ताजपोशी के बाद भारत की अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले असर की चिंता ज्यादा होनी चाहिए.

चार मोर्चों पर ट्रंप से चिंता

सबसे पहले तो ट्रंप का अप्रवासियों के खिलाफ रुख हिंदुस्तान के खिलाफ जाएगा. अप्रवासियों की खिलाफत का केंद्र भले ही मैक्सिको रहा हो लेकिन अमेरिका से बाहर नौकरी न जाने देने से भारत ही प्रभावित होगा. भारत का आईटी क्षेत्र खासतौर पर अमेरिकी संघ की नीतियों पर निर्भर है. हमारे जैसे दक्ष आईटी प्रोफेशनल दुनिया में मिलना मुश्किल है लेकिन वहां की नीति में बदलाव भारतीय कंपनियों के लिए चिन्ता का विषय बना रहेगा.

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दूसरा क्षेत्र है फार्मा का. फार्मा में अधिकतर पेटेंट अमेरिका के ही हैं. वहां की दवाइयां भी अधिक कारगर और लोकप्रिय हैं. इस क्षेत्र में होने वाले बदलाव पर भी भारतीय कंपनियों को नजर रखनी होगी.

अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाला तीसरा पक्ष सकारात्मक हो सकता है. आर्थिक गतिविधियां बढ़ाने के लिए ट्रंप अमेरिका में ब्याज दरें कम रखने के पक्ष में है. यह भारत के पक्ष में जा सकता है, क्योंकि अगर वहां ब्याज दरें बढ़ाई जाती हैं तो अन्तरराष्ट्रीय संस्थागत निवेशक अमेरिका का रुख कर सकती हैं. वहां ब्याज दरें कम होने से भारत में आने वाले विदेशी पूंजी निवेश की गति बरकरार रह सकती है.

ट्रंप ने फेडरल रिजर्व के प्रमुख को भी हटाने की बात कही है. ऐसा हुआ तो यह पहला मौका होगा जब राष्ट्रपति से मौद्रिक नीति पर मतभेद के चलते फेडरल प्रमुख अपने पद से हटेगा.

आर्थिक मोर्चे पर चौथा मुद्दा है ट्रंप का वैश्वीकरण का विरोध. उन्होंने यह अपने घरेलू उद्योग को बचाने की मंशा से किया है. ट्रंप ने खुलेआम मुक्त व्यापार संधियों का विरोध किया है. इसका सबसे पहला शिकार भी मैक्सिको ही होगा.

भारत सीधे-सीधे तो नहीं लेकिन अप्रत्यक्ष रुप से इससे प्रभावित हो सकता है. विश्व व्यापार संगठन में अमेरिका दूसरे मुल्कों से मुक्त व्यापार के लिए अपनी सीमाएं खोलने की वकालत करता रहा है. अमेरिकी नीति में होने वाले बदलाव के मद्देनजर दुनिया के बाकि देश भी अपने घरेलू उद्योग को बचाने लिए जरुरी कदम उठा सकते हैं.

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अगर ट्रंप को यह लगता है कि दूसरे देशों के साथ व्यापारिक करार उनके खिलाफ जा रहे हैं तो अमेरिका में भी ब्रैक्जिट जैसे हालात बन सकते हैं. वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए यह परिस्थिति खतरनाक हो सकती है. इस तरह दुनिया के अधिकतर देश वैश्विक मुद्दों पर संकीर्ण सोच अपनाने को मजबूर हो सकता है.

पांचवा नुकसान स्टॉक बाजार के व्यवहार से समझ सकते हैं. ट्रंप के जीतते ही दुनिया भर के बाजार तेजी से लुढ़के. हालांकि बाद में इन सभी ने शुरुआती नुकसान से उबरकर सामान्य कारोबार किया.

दो से तीन महीने में साफ होगा

भारत के लिए आर्थिक मोर्चे पर अमेरिका महत्वपूर्ण इसलिए भी है क्योंकि हमारे अन्तरराष्ट्रीय व्यापार का 15 फीसद अमेरिका के साथ है. हमारे संस्थागत निवेश का एक तिहाई हिस्सा अमेरिका से आता है. विदेशी पूंजी निवेश में अमेरिका की भागीदारी सात फीसदी है. आईटी सेक्टर तो पूरी तरह अमेरिकी अर्थव्यवस्था और उसकी नीतियों के भरोसे चलता है.

ट्रंप की जीत का भारतीय अर्थव्यवस्था पर क्या असर होगा, यह अगले दो से तीन महीने में साफ हो जाएगा. आज की तारीख में यह असर मिला जुला नजर आ रहा है. लेकिन यह बदल भी सकता है.

अक्सर ऐसा देखा गया है कि राजनेता चुनाव जीतने के लिए जो रास्ता अपनाते हैं वो जीतने के बाद उस पर चलते नहीं हैं. हमें नजर बनाए रखनी होगी.

( लेखक ‘केयर रेटिंग’ के मुख्य अर्थशास्त्री हैं.)

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