फर्ज़ कीजिए की सरकार का एक फरमान जारी होता है. शहर में रहने वाले सारे पढ़े-लिखे युवाओं को अब गांवों की तरफ कूच करना होगा, किसानों के साथ काम करना होगा और खेती सीखनी होगी. ये फरमान जारी होते ही शहर के लाखों युवा गांव की तरफ कूंच कर जाते हैं.
लेकिन कुछ ही समय बाद यह सबकुछ एक भयानक त्रासदी का रूप ले लेता है. देश भयावह अकाल के दौर से गुजरने लगता है. लाखों युवा बेरोजगार हो जाते हैं. स्कूल-कॉलेज, यूनिवर्सिटी बंद हो जाती हैं. अनाज की किल्लत पड़ जाती है और शहर-गांव की खाई को पाटने की एक कोशिश, कई लाख लोगों के मौत का कारण बन जाती है.
22 दिसंबर, 1968, चीन के शासक माओ जिडोंग ने चीन के अखबार पीपुल्स डेली को एक आर्टिकल छापने का आदेश दिया. आर्टिकल का शीर्षक था- 'हमारे पास भी दो हाथ हैं, हम शहर में रहकर केवल मुफ्त का नहीं खा सकते.' आर्टिकल में माओ के एक बयान को भी जगह दी गई थी.
अपने इस बयान में माओ ने लिखा, 'देश के बुद्धिजीवी युवा गांवों की तरफ जाएं और वहीं की गरीबी में रहकर अपनी पढ़ाई करें. किसानों के साथ रहकर खेती सीखें, अनाज उपजाएं.' माओ की इस पॉलिसी का नाम Up to the Mountains and Down to the Countryside Movement और Sent-down youth के नाम से जाना जाता है. हालांकि शुरुआत में तो यह पॉलिसी एक प्रयोग के तौर पर शुरू की गई थी, लेकिन चीन में शुरू हुए कल्चरल क्रांति के बाद इसे पूरी तरह लागू कर दिया गया.
माओ के फैसले के पीछे का कारण शहरी बेरोजगारी को दूर करना था
ये 1962 से 1971 का दौर था, जब चीन के 17 लाख से भी अधिक पढ़े-लिखे शहरी युवाओं को आदेश के तहत देश के दूरस्थ क्षेत्रों में भेज दिया गया. इस सोच के साथ कि शहर के अमीर, पढ़े-लिखे, विशेषाधिकार वाले युवा जब किसानों के बीच, गांव में गरीबी में रहने लगेंगे तो देश सोवियत यूनियन के सामने आर्थिक और क्लास आधारित समानता की मिसाल पेश कर सकेगा. युवा किसानों की मदद कर के उन्हें यह महसूस करा सकेंगे कि एक पढ़ा-लिखा शहर का युवा भी यह काम कर सकता है.
माना जाता है कि माओ के इस फैसले के पीछे का कारण शहरी बेरोजगारी को कम करना और युवाओं में मार्क्सवादी विचारधारा और कम्युनिस्ट नैतिकता का बीज बोना भी था. वह युवाओं में खेती करने की इच्छा के साथ ही चीन के ग्रामीण क्षेत्रों और सीमाओं को विकसित करना चाहते थे.
माओ ने यह फैसला भले ही अच्छी सोच के साथ किया हो, लेकिन इसके परिणाम उनकी सोच के ठीक विपरीत साबित हुए. देश बेरोजगारी और अकाल की मार झेलने लगा. साल 1971 में, आंदोलन के साथ कई समस्याएं सामने आने लगीं. कई युवा शहर वापस आने लगें. जिन युवाओं को यह सोचकर कि वह किसानों की मदद करेंगे, गांवों की तरफ भेजा गया था, वह उन पर बोझ बन गए. शहर के स्कूल-कॉलेज, यूनिवर्सिटी बंद हो गईं, बेरोजगारी बढ़ गई और अगले 15 सालों में यूरोपियन देशों जैसी चीन की अर्थव्यवस्था बनाने की चाहत मिट्टी में मिलती हुई नजर आने लगी. माओ की एक के बाद एक फेल होने वाली पॉलिसी में एक नाम Sent-down youth का भी जुड़ गया.
जब एक Sent-down youth अपने शहर वापस लौटा, तो वह अपनी एक आंख खो चुका था
सिंगापुर के एक अखबार straitstimes.com के अनुसार, चीन के रहने वाले हांग एक सेंट डाउन यूथ थे. माओ के आदेश के बाद साल 1964 में वो भी गांव और किसानों के बीच रहने चले गएं, लेकिन जब दस सालों बाद वह अपने शहर वापस लौटें तो वो अपनी एक आंख की रोशनी खो चुके थें. वह गैस्ट्रिक अल्सर और सहित कई बीमारियों से घिर चुके थे. उनके खराब स्वास्थ्य ने उन्हें स्थिर नौकरी करने में असमर्थ बना दिया.
इस दौर के ऐसे कई मामले दर्ज हैं, जहां अकाल, बेरोजगारी, अनिश्चितता के बीच चीन के युवा कुछ भी करने में असमर्थ हो गएं और शहर-गांव के बीच की खाई और भी गहरी हो गई.
देश में फैली आर्थिक, क्लास, जेंडर, जाति आधारित असमानताओं को पाटना कोई एक दिन का खेल नहीं. अगर कोई यह सोचे कि शहर के युवाओं को गांव भेजकर और गांव के युवाओं को शहर भेजकर हम इस असमानता को पाट सकते हैं, तो ऐसा सोचने से पूर्व उसे इतिहास के इन पुराने भयावह पन्नों से होकर गुजरना चाहिए.
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