आयरलैंड में हुए एक जनमतसंग्रह और उसके बाद आए एक फैसले ने पूरी दुनिया में महिलाओं के हक में लड़ी जा रही सदियों पुरानी समानता की लड़ाई में एक नया अध्याय जोड़ दिया है. ये फैसला आयरलैंड की राजधानी डबलिन के ऐतिहासिक किले (डबलिन कैसल) की प्राचीर से शनिवार की शाम वहां मौजूद भारी भीड़ के सामने सुनाया गया.
इस ऐतिहासिक जनमत संग्रह के जरिए आयरलैंड की जनता ने देश में अबॉर्शन यानी गर्भपात को नाजायज़ या गैरकानूनी करार देने या मानने के सरकारी और चर्च के सदियों पुराने नियम कानून को पूरी तरह से निरस्त कर दिया है. अगर, आक्रामक भाषा में कह पाने की आज़ादी हो तो ये धर्म की आड़ में महिलाओं के स्वास्थ्य और उनकी आज़ादी के साथ किए जा रहे खिलवाड़ की धज्जियां उड़ाने जैसा फैसला है.
शुक्रवार देर रात और शनिवार को किए गए इस जनमत संग्रह में देश में गर्भपात के स्थापित कानून के विरोध में 66.4% और उसके पक्ष में 33.6% लोगों ने वोट डाला, जिसमें महिलाएं और पुरुष दोनों शामिल हैं.
आयरलैंड में इस समय जो कानून है उसके तहत किसी भी गर्भवती महिला को तभी अबॉर्शन की मंजूरी दी जा सकती है जब ऐसा न करने पर उसकी जान को खतरा हो. लेकिन, अगर कोई लड़की बलात्कार का शिकार होने पर या किसी पारिवारिक संबंधी द्वारा अवैध शारीरिक रिश्ता कायम करने पर गर्भवती होती है तो उसे अपना गर्भ गिराने की मंजूरी नहीं है. यहां तक कि अगर गर्भ में पल रहे शिशु के साथ, किसी तरह की एबनॉर्मिलिटी यानी असामान्यता या खराबी होने पर भी मां को गर्भपात की इजाज़त आयरलैंड का कानून नहीं देता. इससे पहले लाखों की संख्या में आयरलैंड की महिला नागरिकों को गर्भपात कराने के लिए न सिर्फ देश के बाहर जाना पड़ा बल्कि हमेशा के लिए अपनी नागरिकता भी खोनी पड़ी थी.
लेकिन अब इस फैसले के साथ ही आयरलैंड के संविधान के आंठवे संशोधन को बदल दिया जाएगा. आयरलैंड के प्रधानमंत्री लियो वराडकर ने इस नतीजे को देश में उदारीकरण की दिशा में एक कदम बड़ा बताते हुए कहा कि, ‘आज जो कुछ भी हम हमारी आंखों के सामने होते हुए देख रहे हैं वो पिछले 20 साल से देश भर में चल रहे एक खामोश आंदोलन का परिणाम है.’ जिसकी शुरुआत साल 2015 में समलैंगिक शादियों को वैध बनाने के साथ हो गया था.
पिछले कुछ सालों में ऐसे कई मामले सामने आए हैं जहां किसी महिला के ब्रेन डेड होने पर भी उसे तब तक ज़बरदस्ती मेडिकली ज़िंदा रखने की कोशिश की गई जब तक डॉक्टरों को ये भरोसा नहीं हो गया कि सिज़ेरियन ऑपरेशन के बाद भी बच्चे को बचाया नहीं जा सकता है. या फिर ऐसे अनगिनत मामले जहां गर्भ में पल रहा भ्रूण किसी तरह की अनियमितता का शिकार है, लेकिन उनकी मांओं को अबॉर्शन के लिए ब्रिटेन की शरण लेनी पड़ी.
लेकिन साल 2012 में भारतीय डेंटल सर्जन सविता हलप्पनवार के केस ने पूरी दुनिया का ध्यान इस ओर खींचा. प्रेगनेंट होने पर सविता आयरलैंड के गैलवे अस्पताल में अपना इलाज करा रहीं थीं, जहां उन्हें सेप्सिस हो गया था. सेप्सिस एक किस्म का घाव होता है जो ठीक न हो पाने पर न सिर्फ सड़ जाता है बल्कि उसमें से ज़हर का रिसाव भी शुरू हो जाता है. सविता का घाव भी ठीक नहीं हो पा रहा था जिससे उनकी सेहत खराब होती जा रही थी, उन्होंने बार-बार गैलवे अस्पताल से अनुरोध किया कि उन्हें अबॉर्शन की मंजूरी दे दी जाए, लेकिन अस्पताल प्रशासन तब तक उन्हें इसकी मंजूरी नहीं देने को तैयार था जब तक कि उस बीमारी से सविता की जान को खतरा साबित नहीं हो रहा था.
अस्पताल का ये भी कहना था कि जबतक कि सविता के अजन्मे बच्चे की हार्ट-बीट चल रही है वो उसे मारने या गिराने की अनुमति नहीं दे सकते. और जबतक कि बिगड़ने हालात से सविता की जान को खतरा साबित हुआ तबतक काफी देर हो चुकी थी और उन्हें बचा पाने के सारे रास्ते बंद हो चुके थे.
इस घटना ने पूरी दुनिया का ध्यान न सिर्फ अपनी तरफ खींचा बल्कि लोगों के अंदर गुस्सा भी भर दिया कि आयरलैंड की अदालत और अस्पताल एक तरह से सविता के मरने का इंतज़ार करती रही, वो हाथ पर हाथ धरे तब तक बैठे रही जब तक कि सविता की जान पर नहीं बन आई और जब ऐसा हुआ तब जाकर उन्होंने उसे बचाने की नाकाम कोशिश शुरू की. लेकिन सविता को बचाया नहीं जा सका.
सविता की मौत ने दुनियाभर के मानवाधिकार संस्थाओं और सरकारों का ध्यान अपनी ओर खींचा और एक लंबे सफल आंदोलन का जन्म हुआ जिसका अंत आयरलैंड के इस जनमतसंग्रह के साथ सामने आया. मानव अधिकारों के लिए काम करने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल ने इस घटना को महिला अधिकारों के लिए किए जा रही कोशिशों का एक निर्णायक क्षण बताया है, जो आयरलैंड के इतिहास में एक नया पन्ना जोड़ेगी.
आयरलैंड की जनता ने अपने इस निर्णय के साथ पूरी दुनिया को बताने की कोशिश की है कि उन्हें महिलाओं के विवेक, उनका द्वारा लिए गए फैसलों और उनकी अपनी सेहत के मद्देनज़र लिए गए हर फैसले पर भरोसा है. उन्होंने एक शब्द में ये कहा है कि महिलाएं चाहे वो जिस भी वर्ग या उम्र की हों... मातृत्व के मुद्दे पर न सिर्फ सही फैसला ले सकती हैं बल्कि ये सिर्फ उनका अधिकार है. ये जनमत संग्रह इसलिए भी ऐतिहासिक है क्योंकि महिलाओं की ये लड़ाई यूरोप के सबसे बड़े शक्ति के केंद्र कैथोलिक चर्च से भी थी. क्योंकि- महिलाओं की इस मांग के विरोध में चर्च खुलकर सामने आ गई थी और उसने लोगों से संविधान के आंठवे संशोधन के पक्ष में वोट डालने की अपील की थी. लेकिन चर्च के बार-बार समझाए जाने के बावजूद कि मानव जीवन की शुरुआत गर्भधारण के साथ ही शुरू हो जाती है और एक मानव भ्रूण का जीवन, जिस औरत के शरीर में पल रहा है उससे ज्यादा महत्वपूर्ण है, वहां की जनता ने इस नए कानून के हक में अपना फैसला सुनाया है.
इस पूरे आंदोलन के दौरान सविता के पिता आनंदानेप्पा यालागी और उनकी मां अक्का महादेवी लगातार इस जनमत संग्रह के दौरान आयरलैंड के लोगों से इस पक्ष में वोट डालने की अपील कर रहे थे. उन्होंने पिछले हफ्ते ही एक वीडियो मेसेज जारी किया था जिसमें उन्होंने अपनी बेटी की एक तस्वीर हाथों में ले रखी थी. इस वीडियो मैसेज में वे आयरलैंड के लोगों से कह रहे थे कि, ‘किसी भी परिवार को दुख की वो घड़ी न सहनी पड़ी जो उन लोगों ने सही है, आठ हफ्ते की गर्भवती सविता की मौत के छह साल बीत जाने के बाद भी उनका दर्द कम नहीं हुआ है.’ और ये सच है कि जब से इस आंदोलन की शुरुआत हुई है तब से शनिवार शाम तक सविता हलप्पनवार का वो मुस्कुराता चेहरे वाली होर्डिंग, हर दूसरी आयरिश महिला आंदोलनकारी के हाथों में लहराती नज़र आ रही थी.
बेलागावी के अपने घर से सविता के पिता इस दुख लेकिन खुशी भरे पल में कहते हैं कि ‘उनकी बेटी भले ही उनके बीच नहीं रही लेकिन उसकी मौत ने आयरलैंड हज़ारों-लाखों औरतों की ज़िंदगी में एक नई रौशनी लाई है. आज के बाद आयरलैंड की महिलाओं की ज़िंदगी बदल जाएगी- इसलिए हम चाहते हैं कि इस नए कानून का नाम उनकी बेटी के नाम पर रखा जाए- ताकि उनकी बेटी हमेशा ज़िंदा रहे.’
और... आयरलैंड के डबलिन कैसल के सामने एक बड़ी सी होर्डिंग में लिखा था- ‘सविता तुम सो गईं, इसलिए हम जागे रहे. कल की नई सुबह जब हम जागेंगे- तो आयरलैंड एक कम लज्जित समाज के तौर पर जागेगा. क्योंकि तुमने हमारी औरतों को नई ज़िंदगी दी है.’
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