पाकिस्तान के उर्दू मीडिया में पिछले दिनों भारत की खूब चर्चा रही. बेशक इसकी बड़ी वजह भारत और अमेरिका के बीच हुआ हालिया रक्षा समझौता है. पाकिस्तान को जहां ट्रंप प्रशासन से लगातार फटकार मिल रही है, वहीं भारत और अमेरिका लगातार करीब आ रहे हैं. ऐसे में पाकिस्तानी उर्दू मीडिया के पेट में दर्द होना स्वाभाविक है.
इस बीच कुछ पाकिस्तानी अखबारों ने भारत के साथ बातचीत शुरू करने को वक्त का तकाजा बताया है. लेकिन कुछ की यह भी राय है कि मोदी सरकार को चुनाव जीतने के लिए पाकिस्तान विरोधी नारों की जरूरत है इसलिए बातचीत के आसार नहीं हैं, खास कर भारत के आम चुनावों से पहले तो कतई नहीं.
शक्ति का संतुलन
रोजनामा ‘जसारत’ ने संपादकीय लिखा है: भारत पर अमेरिकी मेहरबानियां. अखबार कहता है कि अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोंपियो ने अपनी भारत यात्रा में जिस रक्षा समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं, उससे भारत बेहद संवेदनशील टेक्नोलोजी हासिल कर लेगा.
अखबार के मुताबिक किसी देश को हथियार बेचने या फिर टेक्नोलोजी देने पर कोई एतराज नहीं, लेकिन अमेरिकी विदेश मंत्री ने अपने भारत दौरे के समापन पर जो कहा, उससे अमेरिकी इरादे साफ जाहिर होते हैं. अखबार लिखता है कि उन्होंने कहा कि अमेरिका भारत के विश्व शक्ति के तौर पर उभरने का पूरी तरह समर्थन करता है.
अखबार ने भारत और अमेरिका के रक्षा समझौते और सहयोग को चीन के खिलाफ बताया है. अखबार की राय में, अमेरिका की क्षेत्र में शक्ति का संतुलन बिगाड़ने की सोची समझी साजिश है और अगर उसे अभी नहीं रोका गया तो हालात गंभीर हो सकते हैं.
तल्ख जुबान
‘जंग’ लिखता है कि अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल ने अपने दिल्ली दौरे से पहले इस्लामाबाद में पाकिस्तान के सैन्य और असैन्य नेतृत्व से मुलाकातें कीं. अखबार कहता है कि इन मुलाकातों को दोनों देशों के बीच तनाव को दूर करने की कोशिश बताया गया, लेकिन इससे पहले राष्ट्रपति ट्रंप के ट्वीट और दिल्ली से आने वाले भारत और अमेरिका के बयानों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.
अखबार की टिप्पणी है कि पाकिस्तान को ऐसी राजनयिक सक्रियता की जरूरत है कि ‘विश्व शांति के लिए पाकिस्तान की कुरबानियों’ और विभिन्न विषयों पर इस्लामाबाद के रुख से दुनिया को आगाह किया जाए. वैसे यह बात अलग है कि दुनिया में पाकिस्तान की पहचान शांति नहीं बल्कि अशांति में योगदान के देने वाले देश की है.
‘नवा ए वक्त’ लिखता है कि भारत ने पारंपरिक और गैर पारंपरिक हथियारों का अंबार लगा रखा है और अमेरिका की तरफ से पीठ थपथपाए जाने का ही नतीजा है कि वह अब चीन को आंखें दिखाता है. अखबार कहता है कि भारत ने ही पाकिस्तान और अमेरिका के बीच गलतफहमियां पैदा की है और वह खुद लगातार अमेरिका के करीब जा रहा है.
‘नवा ए वक्त’ भी भारत और अमेरिका के बीच गहराते रिश्तों को क्षेत्र में शक्ति के संतुलन के लिए खतरा बताता है. लेकिन अपने संपादकीय की आखिरी लाइन में तो अखबार ने आपा ही खो दिया और वह लिखता है: अमेरिका भारत को उसकी औकात में ही रहने दे तो बेहतर होगा.
रिश्तों की जरूरत
इस कड़वाहट से इतर, रोजनामा ‘एक्सप्रेस’ ने अपने संपादकीय में भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत को वक्त की जरूरत बताया है. अखबार लिखता है कि प्रधानमंत्री इमरान खान ने अपने पहले ही भाषण में कहा था कि अगर भारत एक कदम बढ़ाएगा तो हम दो कदम बढ़ाएंगे.
अखबार के मुताबिक अब सूचना मंत्री ने एक इंटरव्यू में कहा है कि भारत को बातचीत और रिश्तों में बेहतरी के लिए जो इशारे दिए गए, उन्हें सेना का पूरा समर्थन हासिल है, लेकिन भारत की तरफ से कोई सकारात्मक जवाब नहीं आया.
कश्मीर मुद्दे का जिक्र करते हुए अखबार कहता है कि भारत को यह हकीकत स्वीकार कर लेनी चाहिए कि वह पाकिस्तान पर दबाव बनाकर किसी समस्या का मन मर्जी का हल नहीं तलाश सकता है, ऐसे में आखिरकार बातचीत की मेज पर ही लौटना होगा.
वहीं ‘औसाफ’ कहता है कि भारतीय सरकार को अगले आम चुनावों में पाकिस्तान विरोधी नारों की जरूरत है, ताकि फिर से चुनाव जीतकर वह अपना पाकिस्तान विरोधी एजेंडा लागू कर सके. इसके साथ ही अखबार ने मोदी सरकार पर अल्पसंख्यक विरोधी होने के साथ साथ कश्मीर में ज्यादतियां करने के चिरपरिचित आरोप मढ़े हैं.
अखबार लिखता है कि पहले अमेरिका और पश्चिमी दुनिया को यह शिकायत रहती थी कि सरकार कुछ कहती है और सेना कुछ और, लेकिन अब तो यह शिकायत दूर हो गई है क्योंकि प्रधानमंत्री इमरान खान और सेना प्रमुख जनरल बाजवा समझते हैं कि अकेला कोई देश तरक्की नहीं करता, पूरे इलाके तरक्की करते हैं और अगर पूरे इलाके में शांति नहीं होगी तो सब ही पिछड़ जाएंगे.
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