पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में इस वक्त सियासी सरगर्मियां चरम पर हैं. हर कोई यह जानने को बेताब है कि 25 जुलाई को होने वाले आम चुनाव के नतीजे क्या होंगे. वैसे इस चुनाव में पूर्व क्रिकेटर इमरान खान की पार्टी मजबूत स्थिति में नजर आ रही है. चुनावी सर्वे में उनकी पार्टी तहरीक-ए-इंसाफ की लोकप्रियता में खासा इजाफा देखने को मिला है. लिहाजा कहना गलत नहीं होगा कि पाकिस्तान को अब अपने नए मुहाफिज (उद्धारक) इमरान खान का बेसब्री से इंतजार है. यानी इस चुनाव में तहरीक-ए-इंसाफ की जीत और बतौर प्रधानमंत्री इमरान खान की ताजपोशी की प्रबल संभावना है.
इमरान खान पाकिस्तानी सेना और ज्यादातर नौकरशाहों के भी पसंदीदा उम्मीदवार हैं. लिहाजा इमरान की जीत और ज्यादा पुख्ता नजर आ रही है. क्योंकि यह बात हर कोई जानता है कि पाकिस्तान में सेना का दखल हर सरकारी महकमे और समाज के हर तबके में है. सेना और नौकरशाहों का गठजोड़ ही फिलहाल पाकिस्तान का कर्ताधर्ता है.
इमरान खान के प्रधानमंत्री बनने की राह का सबसे बड़ा रोड़ा नवाज शरीफ की गिरफ्तारी के साथ ही साफ हो गया है. पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री और कश्मीरी मूल के लोकप्रिय पंजाबी नेता नवाज शरीफ को शुक्रवार को लंदन से लाहौर पहुंचने पर गिरफ्तार कर लिया गया. गिरफ्तारी के बाद नवाज शरीफ और उनकी बेटी मरियम को जेल भेज दिया गया है.
दरअसल भ्रष्टाचार की कमाई से लंदन में आलीशान फ्लैट खरीदने के मामले में पाकिस्तान की अकाउंटेबिलिटी कोर्ट ने 6 जुलाई को नवाज शरीफ को 10 साल जेल की सजा सुनाई थी. वहीं इस मामले में नवाज की बेटी मरियम को 7 साल और दामाद कैप्टन सफदर को 1 साल की सजा सुनाई गई थी.
पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा इलाके को इमरान खान की पार्टी तहरीक-ए-इंसाफ का गढ़ माना जाता है. इसके अलावा पंजाब के कुछ हिस्सों में भी तहरीक-ए-इंसाफ की अच्छी पकड़ है. हालांकि पंजाब में नवाज शरीफ की पार्टी अब भी सबसे ज्यादा मजबूत है.
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कुछ दिन पहले तक इमरान खान के लिए लोकतांत्रिक रूप से नवाज शरीफ को हरा पाना संभव नजर नहीं आ रहा था. लेकिन जैसे ही नवाज शरीफ के खिलाफ भ्रष्टाचार, आय से अधिक संपत्ति और पनामा पेपर लीक के मामले सामने आए, इमरान खान ने बढ़त बना ली. इस तरह से इमरान पाकिस्तान में प्रधानमंत्री पद के दौड़ में सबसे आगे निकल गए. हालांकि पाकिस्तान में अब भी कई लोगों का मानना है कि नवाज शरीफ पर लगाए गए भ्रष्टाचार के आरोप गलत हैं और कोर्ट द्वारा उन्हें सुनाई गई सजा सरासर अनुचित है.
इमरान क्यों हैं सबसे पसंदीदा उम्मीदवार?
इमरान खान को इस चुनाव में पाकिस्तान के सबसे पसंदीदा उम्मीदवार के रूप में क्यों देखा जा रहा है? इस सवाल का जवाब बेहद आसान है. दरअसल इमरान अपने भाषणों में लगातार यह मुद्दा उठा रहे हैं कि पाकिस्तान में क्या गड़बड़ और गलत चल रहा है. लेकिन इस बारे में बात करते वक्त वह सेना पर चुप्पी साधे रहते हैं. इमरान पाकिस्तान के राजनीतिक दलों और पूर्व में सत्तारूढ़ रहे नेताओं के भ्रष्टाचार की बात करते हैं और उन्हें मुल्क की बर्बादी के लिए जिम्मेदार ठहरा रहे हैं. इसके अलावा इमरान पाकिस्तान के प्रति अमेरिका की नीतियों और उसके सैन्य अभियानों का जिक्र करके आवाम की संवेदनाओं को भी झकझोर रहे हैं.
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लेकिन सबसे अहम बात यह है कि इमरान ने इस चुनाव में धर्म को सबसे बड़े हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया है. इमरान मुल्क की आवाम को यह विश्वास दिला रहे हैं कि इस्लामिक तौर-तरीकों से ही पाकिस्तान का भला हो सकता है. वह जोर देकर कह रहे हैं कि इस्लामिक विचारों के साथ भी मुल्क को आधुनिक बनाया जा सकता है. लिहाजा अगर वह और उनकी पार्टी चुनाव जीती तो पाकिस्तान को एक आदर्श सरकार मिलेगी जो मुल्क को तरक्की और अमन की राह पर ले जाएगी.
दुर्भाग्य से, इमरान खान के वादे और बातें एक मिथक से ज्यादा और कुछ नहीं हैं. क्योंकि अगर इमरान खान की पार्टी चुनाव जीती, तो उन्हें भी उसी लीक पर चलना होगा जिस पर पाकिस्तान के पूर्व नेता अबतक चलते आए हैं. पाकिस्तान की राजनीति के अजीबोगरीब और अबूझ पैटर्न से बचना इमरान के लिए भी बेहद मुश्किल होगा. क्योंकि वह भी इस पैटर्न का एक हिस्सा हैं.
इस तरह पाक राजनीति में उभरे थे शरीफ
यह एक अजब संयोग है लेकिन नवाज शरीफ को भी कभी इमरान खान जैसे हालात से गुजरना पड़ा था. 1980 के दशक में शरीफ को राष्ट्रपति जनरल ज़ियाउल हक ने अगले राजनीतिक नेता के रूप में चुना था. ज़ियाउल हक की मौत के बाद और बेनजीर भुट्टो की निर्वासन से वापसी के बाद, सेना ने नवाज शरीफ का इस्तेमाल अपने मुताबिक किया था. तब शरीफ को बेनजीर भुट्टो की उदारवादी नीतियों के खिलाफ चुनावी मैदान में खड़ा किया गया था. जिसके नतीजे में पाकिस्तान को त्रिशंकु संसद (हंग पार्लियामेंट) मिली थी.
उस वक्त बेनजीर भुट्टो को यह बात बखूबी समझ में आ गई थी कि वह सेना का विश्वास जीते बिना मुल्क पर शासन नहीं कर सकती हैं. लिहाजा सेना की मर्जी के मुताबिक उन्हें अपनी कश्मीर नीति में बदलाव करना पड़ा. जाहिर है कि इससे जिहादी गतिविधियों में इजाफा हुआ. जिसके चलते नियंत्रण रेखा के दोनों ओर रहने वालों को खासी दुख-तकलीफें उठाना पड़ीं. लेकिन बेनजीर खुले दिमाग वाली एक मजबूत नेता थीं. उन्होंने वक्त के तकाजे के तहत उस समय तो सेना के दबाव में अपनी नीतियों से समझौता किया. लेकिन बाद में देखने को मिला कि पाकिस्तान को सामान्य बनाने के लिए उन्होंने सेना की मूल मान्यताओं को कैसे किनारे लगाया. यह पाकिस्तान का दुर्भाग्य है कि मुल्क की बेहतरी और सच्ची आजादी के लिए बेनजीर को अपनी जिंदगी की कुर्बानी देनी पड़ी.
नवाज शरीफ ने भी मुल्क को बेनजीर भुट्टो की तर्ज पर चलाने की कोशिश की थी. शरीफ ने अपने सियासी करियर की शुरुआत एक ऐसे नेता के तौर पर की थी जो सेना की मर्जी के मुताबिक शासन करने में रुचि रखता था. लेकिन पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से वह भारत के साथ रिश्ते सामान्य करने का प्रयास कर रहे थे. यही एक वह चीज है जो सेना को बदनाम कर सकती है. लिहाजा इस मामले में सेना लगातार शरीफ का विरोध करती आ रही थी.
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पाकिस्तानी सेना समझे या न समझे लेकिन वहां के नेताओं को यह बात समझनी होगी कि, भारत से रिश्ते सामान्य किए बिना पाकिस्तान के लिए आधुनिक और सुचारू राज्य बनने का कोई और रास्ता नहीं है. भारत से रिश्ते सामान्य करने के लिए पाकिस्तान को सबसे पहले लश्कर-ए-तैयबा जैसे आतंकी समूहों की गतिविधियों को खत्म करना होगा और छोटे-बड़े सभी विवादों का शांतिपूर्ण हल निकालना होगा.
इमरान को बदलनी होगी भारत विरोध की रणनीति
पाकिस्तान के लिए भारत की अहमियत का अहसास वहां के नेताओं को सत्ता में आने के बाद होता है. जबतक नेता विपक्ष में होते हैं तबतक वे भारत के खिलाफ मोर्चा खोले रहते हैं. लेकिन सत्ता मिलते ही जमीनी हकीकत उनके सामने आने लगती है. तब उन्हें भारत के साथ शांति बहाली का महत्व समझ में आता है. यहां तक कि करगिल युद्ध के लिए जिम्मेदार माने जाने वाले जनरल परवेज मुशर्रफ भी अंत में भारत के साथ शांति ही चाहते थे. जनरल मुशर्रफ ने करगिल युद्ध के बहाने ही पाकिस्तान की सत्ता हथियाई थी. याद रहे कि, दक्षिण एशिया के विद्वान स्टीफन कोहेन ने करगिल युद्ध को पाकिस्तानी सेना की सामरिक जीत लेकिन रणनीतिक गलती करार दिया था.
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1980 के दशक से पहले जुल्फिकार अली भुट्टो को पाकिस्तान का उद्धारक माना जाता था. वह अपनी एक लापरवाही के चलते राष्ट्रीय नायक बन गए थे. दरअसल एक युवा मंत्री के रूप में भुट्टो ने राष्ट्रपति जनरल अयूब खान को भारत के साथ युद्ध शुरू करने के लिए प्रोत्साहित किया था. राष्ट्रपति अयूब खान ने वैसा ही किया. लेकिन नतीजे में पाकिस्तान को युद्ध में मुंह की खानी पड़ी. दुनियाभर के दबाव के बाद आखिरकार भारत और पाकिस्तान के बीच ताशकंद में शांति समझौता हुआ. लेकिन समझौते के बाद भुट्टो ने रंग बदल लिया था. भुट्टो ने राष्ट्रपति अयूब खान की पीठ में छुरा घोंपते हुए युद्ध के लिए उन्हें ही जिम्मेदार ठहरा दिया था. भुट्टो ने कहा था कि अयूब खान ने पाकिस्तान को धोखा दिया.
जुल्फिकार अली भुट्टो की बयानबाजी ने तब उन्हें पाकिस्तान में खासा लोकप्रिय बना दिया था. इसके अलावा वह पाकिस्तान के कथित कर्ताधर्ताओं (सेना और नौकरशाही) की नजरों में भी चढ़ गए थे. लिहाजा चुनाव जीतकर भुट्टो सत्ता में आ गए. लेकिन सत्तासीन रहते हुए भी भुट्टो पाकिस्तान में कोई भी बदलाव लाने में नाकाम रहे. उल्टे मुल्क में बदलाव लाने की जद्दोजहद की कीमत भुट्टो को अपनी जान देकर चुकाना पड़ी. सेना ने कुछ साल बाद उन्हें फांसी दे दी. वक्त का पहिया खुद को दोहराता रहता है.
पाकिस्तान में सेना का वरदहस्त पाकर और भारत विरोध के बहाने नेता सत्ता में आते हैं. पहले वह खुद को पाकिस्तान का उद्धारक कह कर प्रचारित करते हैं. लेकिन जल्द ही उन्हें एहसास हो जाता है कि पाकिस्तान के कायाकल्प के लिए उनके पास जो नीतियां और साधन मौजूद हैं, वह नाकाफी हैं. एक मुल्क जिसकी मौलिक समस्या गरीबी है और जो बुनियादी प्रशासन के मुद्दों को हल करने में असमर्थ है, उसके लिए ज्यादा संघर्ष और अधिक आक्रामक मुद्रा मददगार साबित नहीं होती है.
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एक मजबूत राष्ट्र के निर्माण के लिए वहां के नेताओं की महत्वाकांक्षाओं का व्यावहारिक होना बेहद जरूरी है. ऐसे में महत्वाकांक्षाओं का आडंबरहीन और युद्धविरोधी होना अहम है. लिहाजा भारत से रिश्ते सामान्य करने के लिए पाकिस्तान को अपनी नीतियों में कई बड़े बदलाव करना होंगे. मुल्क को धर्म के नशे से निजात दिलाना होगी. भारत-पाकिस्तान के बीच शांति बहाली के लिए व्यावहारिकता की सख्त जरूरत है. वरना हम यूं ही किसी करिश्मे का अंतहीन इंतजार करते रहेंगे. दोनों मुल्क अमन की इस मंजिल को मजबूत इच्छाशक्ति के बल पर हासिल कर सकते हैं. लिहाजा पाकिस्तानी नेताओं के लिए यह उस बात के अहसास का वक्त है, जिसके चलते सेना के साथ उनका टकराव होता है.
अयूब खान और परवेज मुशर्रफ जैसे सैन्य शासकों और बेनजीर भुट्टो, उनके पिता जुल्फिकार अली भुट्टो और नवाज शरीफ जैसे पाकिस्तानी राजनेताओं ने देर से ही सही लेकिन भारत से अच्छे रिश्तों की अहमियत को माना. लिहाजा वक्त के साथ इमरान खान भी यह सबक सीख ही जाएंगे.
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