पुरानी कहावत है कि 'अंधे को क्या चाहिए. दो आंखें. एक मिल जाए, वह भी काफी है'. यही हाल आजकल पाकिस्तान का है, जो इस कदर आर्थिक संकट में घिरा है कि जो देश भी मदद करने का संकेत देता है, वह उसी के गुणगान में लग जाता है. फिलहाल पाकिस्तानी उर्दू मीडिया में सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) की शान में कसीदे पढ़े जा रहे हैं जो पाकिस्तान की मदद करने को राजी हो गए हैं.
कुछ अखबारों ने अफगानिस्तान से अपने आधे सैनिक हटाने के अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के फैसले पर भी संपादकीय लिखे हैं. पाकिस्तानी मीडिया तालिबान से बातचीत करने के साथ-साथ वहां से अपने सैनिक हटाने के अमेरिकी फैसले को उसकी हार के रूप में पेश करने में जुटा है.
दोस्ती के तकाजे
रोजनामा दुनिया लिखता है कि संयुक्त अरब अमीरात की तरफ से स्टेट बैंक ऑफ पाकिस्तान (एसबीपी) में 3 अरब डॉलर की रकम जमा कराने का संकेत विदेशी मुंद्रा भंडार के संकट से जूझ रहे पाकिस्तान के लिए अच्छी खबर है. अखबार के मुताबिक, इससे पहले सऊदी अरब की तरफ से 6 अरब डॉलर के सहायता पैकेज के तहत 1 अरब डॉलर की दूसरी किस्त पाकिस्तान के खाते में जमा करा दी गई है. अखबार के मुताबिक दो अरब देशों की तरफ से अरबों डॉलर की नकद मदद पाकिस्तान के सबसे मुश्किल आर्थिक संकट में बड़ा सहारा है.
अखबार की राय में, अच्छी बात यह है कि मौजूदा सरकार समझती है कि पाकिस्तान को कर्जों और मदद से ज्यादा निवेश साझीदारियों की जरूरत है. अखबार कहता है कि सऊदी अरब और यूएई ने तेल, खनन, कृषि, दूरसंचार और बंदरगाहों से जुड़े क्षेत्रों में निवेश करने में दिलचस्पी दिखाई है.
रोजनामा एक्सप्रेस अपने संपादकीय को कुछ इस तरह शुरू करता है कि देश की अर्थव्यवस्था को सहारा देने के लिए आर्थिक मदद और इनायतों का सिलसिला जारी है. अखबार लिखता है कि दोस्ती के तकाजों पर पूरा उतरने वाले मुल्क हम पर हमेशा मेहरबान रहे हैं और उनकी पाकिस्तान और उसकी जनता के लिए मोहब्बत ढकी-छुपी नहीं है. लेकिन अखबार ने पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था की दुखती रग पर हाथ रखते हुए लिखा है कि जरूरत कर्जों पर कायम होने वाली इस बीमार अर्थव्यवस्था के भविष्य को सुधारने की है. अखबार की टिप्पणी है कि देश की अर्थव्यवस्था को देश के संसाधनों से ही स्थिर बनाने के किसी बड़े प्रयास की जरूरत है और वह भी देशी और विदेशी कर्जों के बिना.
वादे तेरे वादे
जंग लिखता है कि यूएई ने मदद का एलान ऐसे समय पर किया जब पाकिस्तान सरकार अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) से कर्जों के लिए उसकी बेहद कड़ी शर्तों के सामने दुविधा का शिकार थी. अखबार कहता है कि इमरान खान के सत्ता में आने के बीते साढ़े 3 महीने के भीतर बिजली के दाम बार-बार बढ़ना, बैठे बिठाए कर्ज की रकम में अरबों रुपए का इजाफा होना, विदेशी मुद्रा भंडार का घटकर 13 अरब डॉलर तक पहुंच जाना और इन सबके चलते महंगाई का बढ़ना, यह वो बातें हैं जो आर्थिक नजरिए से पूरे देश के लिए चिंता की बात है.
अखबार कहता है कि प्रधानमंत्री इमरान खान के सऊदी अरब, चीन, मलेशिया और यूएई के दौरों में वहां के नेताओं से बातचीत के परिणास्वरूप निवेश की जो योजनाएं बनी हैं, उन पर अमल होने से देश को मुश्किल आर्थिक हालात से निजात दिलाई जा सकती है. इसके साथ ही अखबार पाकिस्तान की वित्तीय व्यवस्था में बेहतरी लाने की वकालत भी करता है.
लेकिन उम्मत ने अपने संपादकीय में इमरान खान सरकार को आड़े हाथ लिया है और लिखा है कि सत्ता में आने से पहले आर्थिक संकट पर काबू पाने और कर्जों से बचने के लिए जो दावे किए गए थे, वो सब हवा हो चुके हैं. अखबार की टिप्पणी है कि देश की दौलत को लूटने वालों से रकम वसूल करने और अपनी पार्टी के अमीर लोगों से सब कुछ लेने की बजाय प्रधानमंत्री इमरान खान की सरकार का पूरा जोर इस बात पर है कि सऊदी अरब से क्या लिया जाए, यूएई से क्या मिल रहा है, चीन क्या देगा और आईएमएफ से क्या और कैसे लिया जा सकता है.
अखबार के मुताबिक मदद और कर्ज की भीख मांगने के चक्कर में गरीब जनता को महंगाई के बोझ के तले दबाने में एक दिन भी कमी नहीं आई है.
अफगानिस्तान से वापसी
दूसरी तरफ, रोजनामा पाकिस्तान लिखता है कि अमेरिका ने सीरिया से पूरी तरह हटने के फैसले के बाद अफगानिस्तान से भी अपनी आधी सेना को वापस बुलाने का एलान किया है, और इस तरह वहां तैनात 7 हजार अमेरिकी सैनिक हटाए जाएंगे. अखबार के मुताबिक 17 साल से चल रही अफगानिस्तान जंग में राष्ट्रपति ट्रंप के इस फैसले को अमेरिकी नीति में अचानक आई तब्दीली के तौर पर देखा जा रहा है.
अखबार लिखता है अफगान तालिबान हमेशा से इस बात पर अड़े थे कि वो तब तक अमेरिका से कोई बातचीत नहीं करेंगे जब तक विदेशी सेनाएं अफगान सरजमीन को छोड़ नहीं देतीं, लेकिन पाकिस्तान की कोशिशों से वो बातचीत के लिए तैयार हो गए, अलबत्ता वार्ता के पहले चरण में उन्होंने अपनी यह मांग भी दोहराई है. अखबार कहता है कि यह तो नहीं कहा जा सकता कि ट्रंप ने तालिबान की मांग के मुताबिक फौजियों को हटाने का फैसला किया है, लेकिन उन्होंने तालिबान की आधी मांग तो मान ली है और अगर बातचीत सही दिशा में आगे बढ़ती है तो कौन जाने, अफगानिस्तान से बाकी अमेरिकी सैनिक भी हटा लिए जाएं.
जसारत ने अफगानिस्तान से अपने आधे सैनिक हटाने के लिए फैसले को अमेरिका के लिए शर्मिंदगी करार दिया है. अखबार लिखता है कि वैसे तो अमेरिकी अधिकारी किसी भी वक्त अपनी बात से मुकर सकते हैं लेकिन बात अब अमेरिका समेत सभी विदेशी सेनाओं के समझ में आ गई है कि अफगानिस्तान में आगे भी कभी दाखिल नहीं होंगे.
अखबार कहता है कि यह बात तीसरी बात साबित हो चुकी है कि अफगानिस्तान पर विदेशी फौजें कभी राज नहीं कर सकतीं. अखबार की टिप्पणी है कि अफगानिस्तान से आधी सेना हटाने के अमेरिकी फैसले में पाकिस्तान की कामयाबी भी शामिल है क्योंकि अगर अफगानिस्तान शांत रहेगा, तभी पाकिस्तान भी शांत रह सकता है.
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