पाकिस्तानी फौज के एक लेफ्टिनेंट जनरल आमिर रजा ने हाल में बयान दिया कि भारत को चीन-पाकिस्तान इकनॉमिक कॉरिडोर (सीपैक) का हिस्सा बनना चाहिए. उनके इस बयान की आजकल खूब चर्चा हो रही है.
मान लीजिए अगर भारत इस प्रस्ताव पर राजी हो गया तो पाकिस्तान बाद में पछताएगा. एक बड़ी इकॉनमी के रूप में भारत सीपैक का एक मुख्य खिलाड़ी बन जाएगा.
इससे एशिया में रणनीतिक समीकरण उलट जाएगा. चीन और पाकिस्तान की सदाबहार दोस्ती पर भी फर्क पड़ सकता है क्योंकि भारत के सीपैक से जुड़ने से पूरे इलाके का कायापलट हो जाएगा. आदर्श परिस्थितियों में, यह एक गेम चेंजर साबित होगा क्योंकि देश शांति के लिए इसके हिस्सेदार बन जाएंगे.
मौजूदा हालात में मुमकिन नहीं
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आउट-ऑफ-बॉक्स सोचने वाले लीडर हैं. लेकिन वो भी इतना बोल्ड फैसला कश्मीर में भारतीय सुरक्षा बलों पर हमले बंद होने तक नहीं ले सकते.
पहले मुंबई, उड़ी और पठानकोट हमलों के आरोपियों को सजा होने तक कोई भी भारतीय नेता पाकिस्तान से दोस्ती का जोखिम नहीं उठा सकता.
नियंत्रण रेखा पर हर रोज सैनिक मारे जा रहे हैं. ऐसे में एक राष्ट्रवादी दक्षिणपंथी पार्टी के लीडर के तौर पर पीएम मोदी इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते. यह भी जगजाहिर है कि मोदी यूपीए सरकार की आतंक पर नरम नीति की बड़ी आलोचना किया करते थे.
भारत-चीन और भारत-पाकिस्तान संबंधों में अगले कुछ महीनों में कोई बड़ा बदलाव शायद ही देखने को मिले. खासतौर पर पाकिस्तान के साथ संबंधों में तब तक तो कोई सुधार होने की उम्मीद न के बराबर है जब तक कि यूपी, पंजाब और अन्य राज्यों में विधानसभा चुनाव नहीं हो जाते.
मोदी की डिप्लोमेसी
पीएम मोदी द्वारा शरीफ को उनके जन्मदिन की शुभकामनाएं देना यह दिखाता है कि वह अपने पाकिस्तानी साथी के लिए एक दरवाजा खुला रखना चाहते हैं. भारत और पाकिस्तान के संबंध चीन के साथ संबंधों के मुकाबले कहीं ज्यादा भावनात्मक हैं.
चीन के प्रेसिडेंट शी जिनपिंग के महत्वाकांक्षी ‘वन रोड, वन बेल्ट’ प्रोजेक्ट में पाकिस्तान अहम भागीदार है. इस वजह से बीजिंग के साथ संबंध अब पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा मजबूत हो गए हैं.
चीन के आसियान इंफ्रास्ट्रक्चर इनवेस्टमेंट बैंक (एआईआईबी) का सदस्य होने के बावजूद भारत ने कभी भी नए सिल्क रोड प्रोजेक्ट में अपनी दिलचस्पी नहीं दिखाई. बीजिंग शुरुआत से चाहता है कि भारत उसके वन बेल्ट वन रोड प्रोजेक्ट का हिस्सा बने.
पाकिस्तान में 46 अरब डॉलर के सीपैक प्रोजेक्ट के साथ भारत के लिए इसमें शामिल होना नामुमकिन हो गया. भारत अक्सर इस बात पर अपनी नाराजगी जताता है कि सीपैक के कुछ हिस्से पीओके से होकर गुजरते हैं. पीओके को भारत अपना अभिन्न अंग मानता है.
चीन-भारत के कमजोर होते रिश्ते
पिछले एक साल में भारत और चीन के संबंध कमजोर हुए हैं. चीन न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप (एनएसजी) में भारत की एंट्री में अड़ंगा डाल चुका है. साथ ही वह पाकिस्तान में मौजूद आतंकी सरगना मसूद अजहर को संयुक्त राष्ट्र की आतंकियों की सूची में डालने पर भी रुकावट लगा चुका है. जबकि, मसूद अजहर का संगठन जैश-ए-मुहम्मद आतंकी संगठन के तौर पर दर्ज है. चीन अपने फैसले के पीछे ‘तकनीकी आधार’ का हवाला देता है.
भारत-चीन संबंधों में कड़वाहट का सिलसिला और भी लंबा होने वाला है. फरवरी में दलाई लामा का अरुणाचल दौरा दोनों देशों के संबंधों पर गहरा आघात पहुंचा सकता है. हालांकि दलाई लामा का यह पहला अरुणाचल प्रदेश दौरा नहीं होगा. इससे पहले वह 2008 में तवांग मॉनेस्ट्री जा चुके हैं. लेकिन अब चीन कहीं ज्यादा सचेत नजर आ रहा है.
तिब्बत-ताइवान को लेकर चीन का सख्त रुख
अगले अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का ताइवान के राष्ट्रपति से फोन पर बात करना चीन को नागवार गुजरा है. बीजिंग इस बात पर नजरें गड़ाए हुए है कि क्या अमेरिका में आने वाली नई सरकार उसकी वन-चाइना नीति को समर्थन देती है या नहीं? ताइवान और तिब्बत चीन की वन-चाइना नीति के मुख्य तत्व हैं.
दलाई लामा किसी भी देश के दौरे पर जाएं, चीन गुस्सा और विरोध जताने लगता है. याद कीजिए मंगोलिया का वाकया. ज्यादातर पड़ोसी मुल्क चीन की आर्थिक और सैन्य ताकत से वाकिफ हैं. और इससे आखिरकार बीजिंग और मजबूत होता है.
दलाई लामा के राष्ट्रपति भवन में प्रणव मुखर्जी से मुलाकात करने पर भी चीन ने इसी तरह की आपत्ति दर्ज कराई. अमेरिकी राजदूत रिचर्ड वर्मा को अरुणाचल के दौरे की इजाजत मिलना भी ऐसा फैसला था जो अमूमन नहीं लिया जाता. ऐसे में दलाई लामा का अरुणाचल पहुंचना चीन की ओर से कड़े संदेश का सबब बनेगा.
चीन के हमेशा से लंबे वक्त के लिहाज से पॉलिसी विजन रहे हैं. लेकिन, ताइवान और तिब्बत को लेकर वह बेहद संवेदनशील है. अमेरिका में एक अपरिचित राष्ट्रपति के आने को लेकर चीन पहले से ही परेशान है.
दूसरी ओर, चीन यह भी मानकर चल रहा है कि अमेरिका एशिया-प्रशांत क्षेत्र में चीन के दबदबे के खिलाफ भारत को खड़ा कर रहा है. चीन को लग रहा है कि इसी वजह से भारत और अमेरिका के रिश्तों में अभूतपूर्व गर्माहट पैदा हो रही है.
मोदी को हल्के में नहीं लेता चीन
चीन इस बात से भी वाकिफ है कि पीएम नरेंद्र मोदी कोई कामचलाऊ सरकार के मुखिया नहीं हैं, बल्कि वह असाधारण फैसले भी ले सकते हैं और साहसिक कदम उठाने की भी हैसियत रखते हैं.
ज्यादातर पड़ोसी मुल्कों में चीन की वन रोड वन बेल्ट पॉलिसी का विरोध करने की क्षमता नहीं है. चाहे बांग्लादेश हो या श्रीलंका, नेपाल या मालदीव, सबको इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए पैसों की जरूरत है. चीन के पास पैसे की ताकत है और वह इसका इस्तेमाल पड़ोसियों पर अपने प्रभाव को बढ़ाने में कर रहा है.
पड़ोसियों को फायदेमंद विकल्प दे भारत
भारत की सबसे बड़ी चिंता यही है. लेकिन, इससे निपटने के लिए भारत को अपने पड़ोसियों को धमकाने का रास्ता अख्तियार नहीं करना चाहिए. इसकी बजाय भारत को एक स्थायित्व भरे, और फायदेमंद विकास का विकल्प देना चाहिए. कुछ ऐसा जो बिम्सटेक से भी बेहतर हो.
जब तक चीन के पास पैसा है उसका दबदबा बरकरार रहेगा. लेकिन, ज्यादातर अर्थशास्त्रियों का मानना है कि चीन का बुलबुला कभी भी फूट सकता है. नकदी की कमी में चीन की ताकत भी घट जाएगी. भारत को पड़ोसी देशों को अपने साथ जोड़ने की जरूरत है. ट्रंप के गद्दी संभालने के साथ 2017 एक दिलचस्प साल साबित हो सकता है. भारत यह उम्मीद कर सकता है कि उसे इस प्रक्रिया में फायदा होगा.
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