ट्रम्प अपने फेवरिट 'लिटिल राकेट मैन' से आखिरकार मिल आये. मिले ही नहीं शायद लगभग 38 मिनट चली इस मुलाक़ात में ट्रम्प ने उनके खुद के मुताबिक किम से एक खास रिश्ता भी बना लिया...अ स्पेशल बॉन्ड. लेकिन ये शिखर सम्मलेन एक ऐतिहासिक फोटो के मौके के अलावा ज्यादा कुछ नहीं. तस्वीरें शानदार थीं इसमें शक नहीं लेकिन तमाम जानकार ये कह रहे हैं कि समझौते में ऐसा कुछ है ही नहीं जो पहले यानी 2005 में हुए समझौते में नहीं था. अब भी उत्तर कोरिया की तरफ कोई वादा नहीं है कि वो पूरी तरह से परमाणु निरस्त्रीकरण करेंगे.
ट्रम्प माने या नहीं इस समिट से किम ही एक ज्यादा बड़े नेता बन कर उभरने वाले थे. अमेरिका में कई जानकर कह रहे हैं कि ट्रम्प ने वार गेम यानी सैनिक अभ्यास खत्म करने का वादा कर बड़ी भूल की है. वो जितना हासिल नहीं कर पाए उतना दे आए हैं. और ट्रम्प के इस ऐलान से कि वो दक्षिण कोरिया के साथ अब सैन्य अभ्यास नहीं करेंगे ताकि उत्तर कोरिया ज्यादा सुरक्षित महसूस करे, ने दक्षिण कोरिया को असुरक्षित कर दिया है. इस समिट के होने में बहुत अहम भूमिका निभाने वाले दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति मून जे इन परेशान हैं कि ट्रम्प की बात का क्या मतलब निकला जाए?
बड़ी बात ये भी रही की समिट और साझा बयान के बाद अमेरिका लौटे ट्रम्प ने आते ही प्रेस कांफ्रेंस में ये दिखा दिया कि इस बातचीत की कितनी गंभीरता है. किम पर ट्रम्प को कितना भरोसा है और क्या किम मुकर सकते हैं , ये सवाल पूछे जाने पर ट्रम्प ने कहा हां बिलकुल, हो सकता है मैं 6 महीने बाद यहां खड़ा हो कर कहूं कि मैं गलत था लेकिन मैं ऐसा नहीं कहूंगा, मैं कोई और बहाना सोचूंगा. और फिर वो हंसने लगे, फिर आप सोचिए कि इस डील पर हंसेंगे या आप भरोसा करेंगे.
हाल ही में अमेरिका की वादाखिलाफी को भुगत रहे ईरान ने उत्तर कोरिया को चेतावनी दी है कि अमेरिका पर भरोसा न करे. बड़ी मेहनत से ईरान के साथ की गई परमाणु डील से ट्रम्प ने अकेले ही हाथ खींच लिया. वैसे शिखर सम्मलेन के एक दिन बाद ये बात सामने आई है कि अमरीका चाहता है कि उत्तर कोरिया अगले ढाई वर्ष के भीतर बड़े पैमाने पर परमाणु निरस्त्रीकरण करके दिखाए.
दक्षिण कोरिया के दौरे पर अमरीकी विदेशमंत्री माइक पोम्पियो ने कहा कि उत्तर कोरिया के साथ 'एक बड़ी डील पर काम होना अभी बाकी' है.
बड़ा सवाल है कि क्या किम अपने हथियार छोड़ेंगे? अगर उनके पास परमाणु हथियार न होते तो क्या ट्रम्प आज उन्हें वो इज्जत देते जो आज दे रहे हैं. उनसे मिलना अपना सौभाग्य बता रहे हैं और उन्हें व्हाइट हाउस आने का न्योता दे आए हैं ये जानते हुए कि किम जोंग के सिर पर लाखों लोगों का खून, अपने रिश्तेदारों की हत्या और मानवाधिकारों के हनन के बड़े आरोप हैं.
इस साझा बयान में ये साफ नहीं कि परमाणु निरस्त्रीकरण किस तरह होगा? उत्तर कोरिया अपने परमाणु हथियार छोड़ने के लिए क्या कदम उठाएगा? इसकी कोई समय सीमा भी नहीं तय की गई है. उत्तर कोरिया का अकेला सहयोगी चीन जो इस समिट तक पहुंचने की अहम कड़ी रहा उसका जिक्र तक नहीं. ये भी साफ नहीं है कि आगे की बातचीत किस स्तर पर होगी.
जेफरी लेविस, जो ईस्ट एशिया नॉन प्रोलीफरेशन प्रोग्राम के डायरेक्टर हैं, इसे एक मजाक बता रहे हैं. उनके मुताबिक, 'अब से पहले उत्तर कोरिया ने जितने भी समझौते किए हैं ये समझौता उन सब से कमजोर है. राष्ट्रपति ट्रम्प ये कह रहे हैं कि किम अपने परमाणु हथियार छोड़ रहे हैं, किम हैं कि ऐसा कोई ठोस वादा करने से इंकार करते रहते हैं. पता नहीं कितने दिनों तक ये घालमेल चलता रहेगा?
सबसे बड़ा खतरा ये है ये साफ नहीं होना कि ट्रम्प ने क्या वादा किया है. ये तबाही मचा सकता है. क्या इसक ये मतलब निकला जाए कि हम अपने सबसे बड़े युद्ध अभ्यास को ख़त्म करने जा रहे हैं.'
निकोलस बर्न्स जो बुश और क्लिंटन प्रशासन में पूर्व राजदूत रह चुके हैं उनका कहना है कि ये बेहद हल्का समझौता है जिसमें किम किसी समय सीमा से बंधे हुए नहीं हैं.
विदेश मामलों के जानकार कह रहे हैं कि ऐसा कोई पुख्ता सबूत नहीं जिनसे इस बातचीत और बुश और क्लिंटन के शासन काल में हुई नाकाम बातचीत के बीच कोई फर्क किया जा सके. नए साझा बयान में जो 4 बातें हैं वो पहले से ही उत्तर कोरिया के साथ किये गए समझौते में है.
अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति भले ही पहली बार उत्तर कोरिया के शासक से मिले हों लेकिन मेरिका और उत्तर कोरिया में हुआ ये समझौता पहला नहीं है. इससे पहले 1992 , 2005 और फिर 2012. हर बार जब उत्तर कोरिया के साथ कोई डील हुई है तो टेबल पर यही सौदा रहा है कि उत्तर कोरिया अपने परमाणु हथियार छोड़े और बदले में उसे आर्थिक और सुरक्षा के लाभ मिलेंगे.
1992 में 1953 के युद्ध विराम के बाद जब उत्तर कोरिया और अमेरिका ने एक बार फिर कूटनीतिक बातचीत शुरू की, तब भी प्यॉन्गयॉन्ग इसी तरह अलग-थलग पड़ा था उस पर ऐसा ही आर्थिक दबाव था. सोवियत यूनियन के टूटने ने उत्तर कोरिया से वो सहयोगी चीन लिया था जो अब तक उसको शरण देता था. चीन उत्तर कोरिया को वैसे ही आर्थिक सुधार लाने के सुझाव दे रहा था जैसा चीन में हो रहा था. किम जोंग उन के दादा किम सुंग को अपने वजूद का खतरा था. लेकिन फिर सामने आया कि उत्तर कोरिया खुफिया तरीके से बम बना रहा था, जिसके लिए यूरेनियम स्मगल किया जा रहा था. उस समय बुश प्रशासन में कई कट्टरपंथी थे जिसमें शामिल थे अभी के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जॉन बोल्टन.
फौरन उत्तर कोरिया के साथ तय समझौते को खत्म कर दिया गया. इस एकॉर्ड के समर्थक ये भी कहते हैं कि यूरेनियम का संवर्धन उत्तर कोरिया की अमेरिका के खिलाफ एक ढाल थी ताकि अमेरिका डील को खत्म न कर दे. दो सालों के बाद एक बहुपक्षीय 6 पार्टी टॉक के फ्रेमवर्क तले बातचीत शुरू की गई. इस बातचीत से 2005 में एक साझा बयान आया, जिसमें कोरियाई प्रायद्वीप के परमाणु निरस्त्रीकरण के कई फेज में करने की बात थी. इससे भी उम्मीद जागी लेकिन जल्दी ही ये समझौता भी बिखरने लगा. हफ्तों के अंदर अमेरिका ने उत्तर कोरिया के मकाउ के बैंकों में 23 मिलियन डॉलर फ्रीज कर दिए. पैसे ज्यादा नहीं थे लेकिन इससे चीन और उत्तर कोरिया तिलमिला गए और इसे साझा बयान का उल्लंघन माना. इसके लिए भी बहुत सारे जानकर बुश प्रशासन के कट्टरपंथियों, जिनमें बोल्टन शामिल हैं, को जिम्मेदार मानते हैं .
रिश्ते जैसे बिगड़ते गए उत्तर कोरिया ने 2006 की जुलाई में 7 बैलिस्टिक मिसाइल टेस्ट किए और अपना पहला परमाणु परीक्षण उसी साल अक्टूबर में किया. फिर अमेरिका ने उत्तर कोरिया को वो पैसे वापस किए जो मकाउ में फ्रीज किया गए थे. ईंधन भेजवाया गया और फिर जाकर योंब्यों रिएक्टर बंद हुआ और अपने परमाणु कार्यक्रम की कुछ जानकारी दी. पर्यवेक्षकों को देश में आने की इजाजत तो दी लेकिन वो किन चीजों का निरिक्षण कर सकते हैं इस पर उत्तर कोरिया का नियंत्रण था.ॉ
फिर फरवरी 2012 में भी उत्तर कोरिया और अमेरिका के बीच समझौता हुआ लेकिन फिर हफ्तों में डील खत्म हो गई और उत्तर कोरिया ने मिसाइल लांच का परीक्षण किया.
किम वंश की तीन नस्लों और उनके दौर के अमेरिकी प्रशासन के सामने सबसे बड़ी बाधा रही है समझौते पर टिके रहना. ये सिर्फ उत्तर कोरिया के डील को तोड़ने की वजह से नहीं बल्कि अमेरिकी प्रशासन के उलझे हुए इशारों के वजह से भी हुआ है. जहां प्रशासन के अलग-अलग हिस्से पॉलिसी पर अपना नियंत्रण रखना चाहते हैं.
इसलिए अब ट्रम्प और किम के साझा बयान के शब्द कुछ भी हों, अमेरिका की उत्तर कोरिया से बातचीत का इतिहास बताता है की कागज पर समझौता तो बस एक शुरुआत भर है, एक असली समझौते को हासिल करने की राह लंबी है.
ट्रम्प ने इस मीटिंग को दोनों तरफ की जीत बताया है कहा कि अमरीका के लिए उतनी ही अच्छी है ये डील जितनी उत्तर कोरिया के लिए. लेकिन सच ये है कि ट्रम्प माने या न माने, इस समिट में किम के लिए एक जीत यकीनन होने वाली थी. चाहे समझौते में कुछ भी होता. अमेरिकी विदेश मंत्रालय के पूर्व अधिकारी लॉरेंस विल्केरसन कहते हैं कि किम वंश को बहुत दिनों से अमेरिका और खास तौर पर अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ मीटिंग की चाह थी क्यूंकि ये उन्हें वो पहचान देता जो उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नहीं मिली है. इसलिए ट्रम्प का किम का हाथ पकड़ना और कहना कि उत्तर कोरिया के शासक से मिलना, जिसने लाखों लोगों को टॉर्चर किया और मारा है , उनके लिए सौभाग्य था- ये किम वंश का सपना पूरा होने जैसा है.
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