विदाई के मंच से उस चर्चित आवाज में शानदार विदाई भाषण में सब-कुछ था. पत्नी के लिए, चुने हुए लफ्ज... कि तुमने मुझे गर्व करने का मौका दिया... तुमने मुझे गुरूर करने का मौका दिया... तुमने देश का गौरव बढ़ाया... फिर तालियों की गड़गड़ाहट के बीच... तमाम कोशिशों के बावजूद न रुकने वाले आंसू... बराक ओबामा से फिर से मोहब्बत हो जाना लाजमी है.
लेकिन जब हम विदा हो रहे अमेरिकी राष्ट्रपति की विरासत की चर्चा करना चाहेंगे तो हमें अपने आपको संगदिल बनाना होगा. हमें कांपते होंठो से ओबामा और उनके कार्यकाल की समीक्षा करनी होगी. और हम अगर ऐसा करेंगे तो एक सच्चाई हमसे एक कदम आगे निकल जाएगी.
ओबामा बेहद शानदार इंसान हैं. उनका मिजाज कई बार सनक की हदों के करीब पहुंचने लगता है. पत्नी मिशेल समेत तमाम रिश्तों को जिस तरह का सम्मान और अहमियत उन्होंने दिया, उससे हमें ओबामा का ख्याल आते ही ये याद आएगा कि सज्जनता, सादगी, भरोसे और विनम्रता की ताकत से कोई दुश्मनी नहीं. कोई भी ताकतवर इंसान विनम्र और सादादिल हो सकता है.
डिवाइडेड स्टेट्स ऑफ अमेरिका
लेकिन अपने काम में जिस तरह की नीतियां ओबामा ने अपनाईं, उससे वह एक ऐसा अमेरिका छोड़ जा रहे हैं, जो साफ तौर पर बंटा हुआ नजर आता है. जिसमें लोग एक दूसरे को नापसंद ही नहीं करते, बल्कि नफरत करते हैं. अमेरिका आज धर्म, नस्ल और पहचान को लेकर जितना बंटा नजर आता है, उतना ओबामा के राज से पहले नहीं था. ओबामा अपने पीछे ऐसी दुनिया छोड़कर जा रहे हैं, जिसमें अमेरिका का रोल क्या हो, इसे लेकर न तो खुद अमेरिका आश्वस्त है और न ही बाकी दुनिया.
ओबामा के बारे में ये यकीन से कहा जा सकता है कि वो अपने ज्यादातर मंजिलें पाने में नाकाम रहे. उनके ज्यादातर मिशन अधूरे रह गए. उनके राज में सबसे खतरनाक आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट पैदा हुआ, फला-फूला और बड़े इलाके पर अपना राज कायम कर लिया. ओबामा ने इजराइल जैसे अमेरिका के पक्के दुश्मन को नाराज कर लिया. जबकि जिसके लिए उन्होंने ये किया यानी दूसरे देशों से रिश्ते सुधारने की कोशिश, उसमें भी वो नाकाम रहे.
फैसले लेने में दृढ़ता नहीं
अपने आठ साल के कार्यकाल में ओबामा निर्णय लेने से कतराते रहे. उन्होंने अमेरिकी लोगों की भलाई के लिए एक स्वास्थ्य योजना शुरू करनी चाही, मगर उसे भी सही तरीके से नहीं लागू कर सके. वो इंसाफ का साथ देने के बजाय ज्यादातर मौकों पर राजनीतिक रूप से सही लगने पर जोर देते रहे. कोई भी असली नेता, अलोकप्रियता से नहीं घबराता.
मेरे खयाल से अपने कार्यकाल के आखिरी दिनों में डोनाल्ड ट्रंप की बढ़ती लोकप्रियता ने ओबामा का मिजाज कड़वा कर दिया था. वो बार-बार झगड़े करने और उलझने से खुद को रोक नहीं सके. जाते-जाते वो आने वाले राष्ट्रपति की राह में तमाम तरह के रोड़े खड़े करते नजर आए. जबकि होना ये चाहिए था कि वो आने वाले नए राष्ट्रपति की राह हमवार करते. कहने का मतलब ये कि हारते हुए भी उन्होंने बहुत बुरा बर्ताव किया. हिलेरी क्लिंटन की हार के बाद ओबामा का बर्ताव कतई सम्मानजनक नहीं रहा. जबकि कार्यकाल के बाकी दौर में वो इसी बात के लिए जाने जाते थे.
अपने गृह नगर शिकागो में ओबामा के दिये विदाई भाषण से एक बात तो साफ है. दुनिया का लिबरल मीडिया अभी भी उनके साथ है. उनका मुरीद है. उनकी तारीफ में कसीदे काढ़ रहा है. उसे ओबामा के विदा होने का अफसोस है.
ओबामा ने डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल को लेकर जिस तरह की चेतावनियां जारी की हैं, उन्हें लेकर लिबरल मीडिया अफसोस जाहिर करने में काफी आगे निकल गया है. मीडिया के इस बर्ताव से ऐसा लगता है कि बराक ओबामा अभी भी लोगों के दिलो-दिमाग पर छाये हैं.
मीडिया का बर्ताव ऐसा है जो हमें यकीन दिलाना चाहता है कि ओबामा ही हैं जो सही हैं और सही सिद्धांतों के लिए अड़े और लड़े हैं. वो अगर चुनाव लड़ सकते तो डोनाल्ड ट्रंप को आसानी से हरा सकते थे. वहीं डोनाल्ड ट्रंप अंधेरे का दूसरा नाम हैं.
हिलेरी की हार ओबामा की भी है
मगर, ऐसा खयाल पूरी तरह से गलत है. ओबामा के राज में जिस तरह का भटकाव और बंटवारा अमेरिकी जनता के बीच दिखा है, वो जताता है कि मीडिया को अभी भी सच्चाई नहीं दिख रही है. आपको ये समझना होगा कि डोनाल्ड ट्रंप ने क्लिंटन पर जीत इसीलिए हासिल की क्योंकि हिलेरी के बारे में लोग सोचते थे कि वो ओबामा जैसा ही राज चलाएंगी.
पत्रकार अशोक मलिक इसे 'खान मार्केट कंसेंसस' यानी खान मार्केट जाने वाला गिरोह कहते हैं. ओबामा के प्रशासन में जो भी कमियां, गड़बड़ियां लोगों को दिखती थीं, हिलेरी क्लिंटन भी उसी की प्रतीक मानी गईं. इसीलिए ये कहना सही होगा कि अमेरिकी जनता ने सिर्फ हिलेरी क्लिंटन को नहीं, बल्कि, बराक ओबामा को भी खारिज कर दिया. यहां ये समझना भी दिलचस्प होगा कि डोनाल्ड ट्रंप भी सत्ताधारी समाज के ही सदस्य माने जाते थे. मगर वो अमेरिकी जनता को ये यकीन दिलाने में कामयाब हो गए कि वो सत्ता से टक्कर लेने जा रहे हैं. वो रईसों के गिरोह को चुनौती देने वाले हैं.
इसीलिए हमें ओबामा के दावों की समीक्षा और विश्लेषण के वक्त बहुत सावधानी बरतनी चाहिए.
बुधवार को शिकागो में बराक ओबामा ने कहा, 'आज अर्थव्यवस्था फिर से बढ़ रही है. तनख्वाह, आमदनी, घरों की कीमतें और रिटायरमेंट के खाते बढ़ रहे हैं. गरीबी घट रही है. अमीर लोग अपने हिस्से के टैक्स भर रहे हैं. शेयर बाजार बढ़त के नए रिकॉर्ड बना रहा है. बेरोजगारी की दर पिछले दस सालों के सबसे कम स्तर पर है. बीमा के दायरे से बाहर के लोगों की तादाद बेहद कम हो गई है. सेहत का खयाल रखने की कीमत घट गई है. और हमने अपने मेडिकल केयर सिस्टम के लिए एक शानदार योजना बनाकर लागू करने की कोशिश की. जो बेहद कम पैसों में लोगों की सेहत का खयाल रख सकेगी. अगर ओबामाकेयर से बेहतर कोई और योजना कोई बना सकता है, तो मैं उसका खुलकर समर्थन करूंगा'.
लेकिन, क्या ये वाकई सच है? क्या अमेरिकी अर्थव्यवस्था वाकई बहुत अच्छी स्थिति में है?
ओबामा के वोटरों ने क्यों छोड़ा साथ
अगर ऐसा है तो जिन 6 राज्यों ने 2012 में ओबामा का साथ दिया था, वो ट्रंप के साथ क्यों चले गए? ये मध्य अमेरिका के नाराज वोटर थे, जो ओबामा की नीतियों से तंग आ गए थे. जो बेरोजगारी बढ़ने से बेहद गुस्से में थे. जो अवैध अप्रवासियों की बाढ़ को नापसंद करते थे. उन्हें अमीरों और गरीबों की आमदनी के बीच लगातार बढ़ते फर्क से गुस्सा आया हुआ था. जब मध्य अमेरिकी लोगों की नौकरियां जा रही थीं, उनका रहन-सहन गिर रहा था, तब तटीय और शहरी अमेरिकी अमीर हो रहे थे.
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में हिलेरी क्लिंटन की हार के बाद, द वॉशिंगटन पोस्ट ने लिखा था , 'जिन 700 काउंटियों ने ओबामा का समर्थन करके उन्हें राष्ट्रपति बनाया, उनमें से एक तिहाई डोनाल्ड ट्रंप के खेमे में चले गए. ट्रंप ने उन 207 काउंटियों में से 194 का समर्थन हासिल किया, जिन्होंने या तो 2008 या फिर 2012 में ओबामा का समर्थन किया था'. इसकी तुलना में उन 2200 काउंटियों में जिन्होंने कभी ओबामा का समर्थन नही किया, हिलेरी क्लिंटन को सिर्फ छह का साथ मिल सका. यानी ट्रंप के खेमे से सिर्फ 0.3 फीसद वोट हिलेरी के खाते में आ सके. वहीं ओबामा का समर्थक एक बड़ा तबका डोनाल्ड ट्रंप का समर्थक हो गया.'
वॉल स्ट्रीट जर्नल ने लिखा था, 'ओबामा का प्रगतिशील एजेंडा आर्थिक बराबरी दिलाने के मोर्चे पर पूरी तरह नाकाम रहा'. ओबामा ने आमदनी के पुनर्वितरण को अपना सबसे बड़ा लक्ष्य बनाया था. आर्थिक विकास को रफ्तार देने से भी ज्यादा अहमियत ओबामा ने आमदनी के मामले में अमेरिका को ज्यादा बराबरी की पायदान पर खड़ा करने को दी थी. मगर हुआ क्या? अर्थव्यवस्था की विकास दर दूसरे विश्व युद्ध के बाद सबसे धीमी रही. अमीर-गरीब के बीच फासला बढ़ गया. ज्यादा टैक्स और बार-बार बदलते कानूनों ने निवेश को धीमा कर दिया. मगर इससे सरकार का खर्च बढ़ता गया. सरकार से मिलने वाली मदद के लालच में बहुत से अमेरिकियों ने नौकरी या कारोबार के लिए जद्दोजहद कम कर दी.
अपने भाषण में ओबामा ने भेदभाव से लड़ने की गुहार लगाई. उन्होंने कहा, 'हमें ऐसे कानूनों का पालन करना होगा, जो भेदभाव से लड़ते हैं. फिर वो नौकरी देने के मामले में हों, मकान खरीदने के लिए हों, शिक्षा या न्याय व्यवस्था में हो,...एक नागरिक के तौर पर हमें बाहरी आक्रांताओं से सावधान रहना होगा..हमें अपने जीवन मूल्यों को कमजोर होने से रोकना होगा...हमें उन्हें बचाए रखना होगा ताकि हमारी जो पहचान है वो बरकार रहे. इसीलिए मैं अमेरिकी मुसलमानों से भेदभाव का विरोध करता हूं'.
इन लंबी चौड़ी बातों से इतर, ओबामा की नाकामी ये रही कि वो न्याय व्यवस्था में कोई क्रांतिकारी सुधार नही ला सके. तभी तो 'ब्लैक लाइव मैटर' जैसे आंदोलनों का जन्म हुआ.
पूरे कार्यकाल में वो त्रिशंकु की तरह लटके रहे. न तो ओबामा उस सिस्टम को खुश कर सके, जो अपराधियों को प्रश्रय देता है. और न ही वो उन अश्वेतों की उम्मीदों पर खरे उतर सके, जो ओबामा से 'ड्रीम एक्ट' जैसे कानून बनाने की आस लगाए थे.
जैसा कि ब्रिटिश अखबार द गार्जियन ने लिखा, 'मुख्यधारा का मीडिया ओबामा की इन नाकामियों को उजागर करने में नाकाम रहा. इसके बरक्स टीवी और रेडियो के मोटी तनख्वाह वाले कमेंटेटर ब्रांड ओबामा की तारीफ करने में जुटे रहे. अश्वेतों के प्रवक्ता बेशर्मी से ओबामा का बचाव करते रहे. नस्लवाद के नाम पर हो रहे अपराधों पर ओबामा की खामोशी को जायज ठहराने को ऐसे लोगों ने अपना करियर बना लिया था. ये कितना बड़ा दोगलापन है कि आज डोनाल्ड ट्रंप की जीत के बाद वो अश्वेतों के हक और उन पर हो रहे जुल्म की बातें कर रहे हैं, जबकि ये काम उन्हें एक अश्वेत राष्ट्रपति ओबामा के रहते हुए करना चाहिए था. उनका सम्मान करने लायक नहीं, जो अपने सबसे कमजोर वक्त में अश्वेत अधिकारों की वकालत कर रहे हैं'.
अमेरिका अब इकलौती महाशक्ति नहीं बचा. चीन बड़ी तेजी से एशिया और यूरेशिया में अपनी ताकत बढ़ा रहा है. ओबामा के राज में अमेरिका और रूस के रिश्ते बेहद खराब दौर से गुजर रहे हैं. रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन, चीन से हाथ मिलाकर, हर मोर्चे पर अमेरिका को चुनौती दे रहे हैं. आतंकवाद के दानव इस्लामिक स्टेट की पैदाइश भी ओबामा की नीतियों की देन कही जाती है. इसके लिए इराक से हड़बड़ी में अमेरिकी सेनाएं हटाने का ओबामा का फैसला जिम्मेदार माना जाता है.
ओबामा ने सीरिया के मसले को जिस तरह से निपटने की कोशिश की वो भी उनकी नाकामी की मिसाल है. ईरान के साथ एटमी डील को उनकी कामयाबियों की फेहरिस्त में रखा जा सकता था, मगर यहां पर भी भरोसे की कमी साफ दिखती है.
अपनी लफ्फाजी से इतर ओबामा ने अमेरिकी कांग्रेस से इतना झगड़ा किया कि कार्यकाल के आखिरी दिनों में वो राष्ट्रपति के आदेश के जरिए राज करते रहे. क्योंकि ओबामा को डर था कि उनके ज्यादातर फैसलों को कांग्रेस खारिज कर देगी.
ओबामा की विदाई के बाद अमेरिका ही नहीं, पूरी दुनिया को एक इंसान की काबिलियत की बर्बादी का सोग मनाना चाहिए.
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