बांग्लादेश में 30 दिसंबर को होने वाले ग्यारहवीं जातीय संसद (नेशनल असेंबली) के चुनाव कई मायनों में अलग हैं. नेशनल असेंबली के इस चुनाव पर भारत और चीन समेत दुनिया के कई देशों की नजर इस पर टिकी हैं. इस बाबत कई देशों के पर्यवेक्षक भी ढाका में मौजूद हैं.
हमेशा की तरह इस बार भी देश के अलग-अलग हिस्सों में हिंसक घटनाएं हुई हैं. चुनावी रंजिश में करीब डेढ़ दर्जन लोगों की हत्याएं भी हो चुकी हैं. हिंसा फैलाने के आरोप में बारह हजार लोगों की गिरफ्तारियां हो चुकी हैं. विपक्षी पार्टियां का आरोप है सरकार चुनावी फायदे के लिए सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल कर रही है.
गौरतलब है कि 2014 के चुनाव में मुख्य विपक्षी दल ‘बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी’ (बीएनपी) और ‘बांग्लादेश जमात-ए-इस्लामी’ समेत कई पार्टियां प्रशासनिक पक्षपात का अंदेशा जाहिर करते हुए चुनावी प्रक्रियाओं में शामिल नहीं हुईं. इस तरह बगैर किसी खास चुनौती के शेख हसीना की अगुवाई में अवामी लीग 234 सीटों के साथ दोबारा हुकूमत में आई थी.
इस बार बीएनपी नेशनल असेंबली के चुनाव में हिस्सा तो ले रही है. लेकिन पूर्व प्रधानमंत्री बेगम खालिदा जिया की गैर-मौजूदगी का विपरीत असर पार्टी के चुनावी अभियान पर पड़ा है. बीएनपी के कार्यवाहक अध्यक्ष व बेगम खालिदा जिया के बेटे तारिक रहमान को एक आपराधिक मामले में अदालत ने दस वर्षों की सजा सुनाई है. अपनी गिरफ्तारी से बचने के लिए वह इन दिनों लंदन में हैं.
जिया यतीमखाना ट्रस्ट में हुए भ्रष्टाचार के मामले में सजा काट रहीं बेगम खालिदा ने जेल से ही क्रमशः बोगरा-6, फेनी-1 और बोगरा-7 सीटों से उम्मीदवारी का पर्चा भरा था. लेकिन चुनाव आयोग ने उनके तीनों नॉमिनेशन खारिज कर दिए. ऐसे में चुनाव-प्रचार की सारी जिम्मेदारी बीएनपी के दो वरिष्ठ नेताओं पूर्व प्रधानमंत्री बैरिस्टर मौदूद अहमद और पार्टी महासचिव मिर्जा फखरुल इस्लाम आलमगीर पर है.
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अदालत के फैसले के बाद बीएनपी में यह राय बनी कि इस बार भी चुनाव का बहिष्कार किया जाए! लेकिन बीएनपी के लिए इस बार चुनाव का बहिष्कार करना आसान नहीं था. दरअसल बांग्लादेश चुनाव आयोग के नियमानुसार अगर कोई राजनीतिक दल लगातार दो चुनावों का बॉयकॉट करती है तो उसकी मान्यता रद्द हो सकती है.
इधर बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) की सहयोगी जमात-ए-इस्लामी को भी चुनाव से पहले झटका लगा. दरअसल 1971 के युद्ध अपराध के मामले में हाईकोर्ट के आदेश पर चुनाव आयोग ने पार्टी की मान्यता रद्द कर दी है. नतीजतन जमात के सभी उम्मीदवार बीएनपी के चुनाव-चिह्न ‘धान की बाली’ से मैदान में हैं.
सत्ताधारी महाजोट के खिलाफ जातीय ओइक्को फ्रंट
जातीय संसद की कुल 300 सीटों में सत्तारूढ़ अवामी लीग इस बार 230 सीटों पर चुनाव लड़ रही है. शेष 70 सीटें उसने महाजोट (ग्रैंड-अलायंस) में शामिल अपने सहयोगियों को दी हैं. इसमें पूर्व राष्ट्रपति एच.एम. इरशाद की जातीय पार्टी सबसे अधिक सीटों पर चुनाव लड़ रही है.
इसके अलावा वर्कर्स पार्टी, जातीय समाजतांत्रिक दल (इनू-गुट), जातीय समाजतांत्रिक दल (आंबिया-गुट), तरक्कीयात फेडरेशन, जातीय पार्टी (मंजू-गुट) एवं विकल्पधारा बांग्लादेश समेत कुल चौदह दलों ने महाजोट के तहत अपने उम्मीदवार उतारे हैं. दूसरी तरफ ‘जातीय ओइक्को फ्रंट’ (नेशनल यूनिटी फ्रंट) के तहत बीएनपी ने इस बार 240 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं. जबकि उसकी सहयोगी पार्टियां 60 सीटों पर चुनाव लड़ रही हैं.
इनमें 22 सीटों पर जमात-ए-इस्लामी के उम्मीदवार मैदान में हैं, लेकिन चुनाव आयोग से मान्यता समाप्त होने के बाद ये सभी उम्मीदवार बीएनपी के चुनाव चिन्ह पर पर्चा दाखिल किया है गठबंधन में बाकी सीटें गण फोरम, नागरिक ओइक्को, जातीय समाजतांत्रिक दल (रब-गुट), लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी, जमीअत-ए-उलेमा-इस्लाम, किसान श्रमिक जनता लीग, जातीय पार्टी (जफर-गुट), बांग्लादेश खिलाफत मजलिस, बांग्लादेश जातीय पार्टी, बांग्लादेश कल्याण पार्टी, नेशनल पीपुल्स पार्टी और बांग्लादेश लेबर पार्टी आदि दलों को मिली हैं.
शेख मुजीब सरकार में कानून मंत्री रहे चुके हैं हुसैन
अवामी लीग की अगुवाई वाली चौदह दलीय ‘महाजोट’ (ग्रैंड-अलांयस) के खिलाफ नवंबर में ‘जातीय ओइक्को फ्रंट’ (नेशनल यूनिटी फ्रंट) बनाया गया. जिसका नेतृत्व ‘गण फोरम’ के संस्थापक अध्यक्ष डॉ. कमाल हुसैन कर रहे हैं. इस मोर्चे में ‘बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी’ (बीएनपी) समेत 20 छोटी-बड़ी पार्टियां शामिल हैं. देश की सियासत में डॉ. कमाल हुसैन कोई नया चेहरा नहीं बल्कि एक जानी-मानी शख्सियत हैं.
वे खुद धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के एक हिमायती माने जाते हैं. नोट्रेडम और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से तालीम याफ्ता हुसैन बांग्लादेश के संविधान प्रारूप कमेटी के अध्यक्ष रहे हैं. मशहूर अधिवक्ता और पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री हुसैन शहीद सुहरावर्दी के साथ काम कर चुके हुसैन प्रसिद्ध ‘अगरतला षड्यंत्र केस’ में बंगबंधु शेख मुजीबुर्रहमान के कानूनी सलाहकार भी थे. 1970 के निर्णायक ‘आम चुनाव’ और ‘बांग्लादेश मुक्ति युद्ध’ के समय वे शेख मुजीब के साथ पश्चिमी पाकिस्तान स्थित रावलपिंडी जेल में बंद रहे.
बांग्लादेश बनने पर उन्हें शेख मुजीबुर्रहमान की सरकार में कानून मंत्री बनाया गया. 1974 में बतौर विदेश मंत्री संयुक्त राष्ट्रसंघ में बांग्लादेश को शामिल कराने में उनकी बड़ी भूमिका मानी जाती है. नब्बे के दशक तक वह अवामी लीग में रहे, लेकिन पार्टी प्रमुख शेख हसीना से मतभेद होने पर उन्होंने ‘गण फोरम’ बनाया, लेकिन बांग्लादेश में यह संगठन उतना प्रभावी नहीं रहा.
अवामी लीग को अपनी जीत का भरोसा
अवामी लीग को इस चुनाव में अपनी जीत का पूरा भरोसा है. लेकिन गरीबी और बेरोजगारी जैसे बुनियादी सवाल पर वह ‘जातीय ओइक्को फ्रंट’ के निशाने पर है. अवामी लीग लगातार दस वर्षों से सत्ता में है और सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर भी है. लेकिन जनता के समक्ष कोई ठोस विकल्प न होने के कारण उसकी स्वीकार्यता बनी हुई है.
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पूर्व प्रधानमंत्री बेगम खालिदा जिया का चुनावी परिदृश्य में न होना बीएनपी के लिए नुकसानदेह है. वहीं जमात-ए-इस्लामी की मान्यता रद्द होने से बीएनपी की रही-सही उम्मीदें भी कमजोर पड़ गई हैं. बांग्लादेश के चटगांव, बारिसाल, रंगपुर और खुलना डिवीजन में जमात-ए-इस्लामी का अच्छा प्रभाव है. चुनावों में बीएनपी को इसका फायदा मिलता रहा है. लेकिन 1971 के बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान किए गए युद्ध अपराध में उसके कई शीर्ष नेताओं को फांसी दी गई.
जिनमें पार्टी प्रमुख मोतिउर रहमान निजामी भी शामिल थे. इस बार सत्ताधारी अवामी लीग और बीएनपी बांग्लादेश के धार्मिक व जातीय अल्पसंख्यकों को लुभाने की कोशिशों में जुटी हैं. अवामी लीग ने अपने घोषणा-पत्र में ‘राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग’ बनाने की बात कही है. बांग्लादेश की राजनीति पर नजर रखने वालों को हैरान नहीं होना चाहिए क्योंकि शेख मुजीब के जमाने से अल्पसंख्यकों खासकर हिंदू मतदाता अवामी लीग के वोट बैंक रहे हैं.
लेकिन इस बार बीएनपी ने चौंकाते हुए अपने चुनावी घोषणा-पत्र में ‘अल्पसंख्यक मंत्रालय’ सृजित करने का वादा किया है. साथ ही बीएनपी और उसकी कुछ सहयोगी पार्टियों ने अल्पसंख्यकों विशेषकर हिंदुओं को अपेक्षाकृत ज्यादा टिकट दिए हैं. बीएनपी ने कुल सात अल्पसंख्यकों को अपना उम्मीदवार बनाया है जिनमें छह हिंदू हैं. वहीं डॉ. कमाल की पार्टी ‘गण फोरम’ ने तीन और जातीय समाजतांत्रिक दल ने एक हिंदू को उम्मीदवार बनाया है.
चुनाव के समय अल्पसंख्यकों को निशाना
बीएनपी ने भले ही अल्पसंख्यकों खासकर हिंदुओं को अधिक उम्मीदवारी और अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालय बनाने की घोषणा की हो. लेकिन बांग्लादेश में रहने वाले अल्पसंख्यक बीएनपी और जमात-ए-इस्लामी की सरकार में वह दौर भी देखे हैं जब उन्हें निशाना बनाया गया.
साल 2001 में हुए चुनाव में बीएनपी और जमात के कार्यकर्ताओं ने हिंदुओं पर काफी जुल्म ढाए. उनकी हत्याएं की, महिलाओं के साथ बलात्कार किए और उनकी जमीनों पर कब्जा जमाया. जैसोर और रंगपुर में रहने वाले हिंदुओं को देश छोड़ने पर विवश होना पड़ा.
अल्पसंख्यकों पर 2008 और 2014 में हुए चुनावों के समय भी कई हमले हुए. शेख हसीना की सरकार में एक कमेटी बनाकर मामले की जांच भी हुई. बीएनपी और जमात-ए-इस्लामी से जुड़े लोगों की पहचान हुई और उनके खिलाफ मुकदमे कायम हुए. लेकिन कुछ लोगों को छोड़ बाकी आज भी आजाद घूम रहे हैं. अल्पसंख्यकों में डर का आलम यह है कि ज्यों-ज्यों 30 तारीख नजदीक आ रही है वैसे-वैसे उनका खौफ बढ़ता जा रहा है. उन्हें डर है कि चुनाव के नतीजे आने पर दोबारा हमले हो सकते हैं. वैसे इस बार चुनाव के मद्देनजर सुरक्षा के पुख्ते इंतजाम किए गए है. संवेदनशील सभी जिलों में सेनाओं की अतिरिक्त तैनाती की गई है.
बांग्लादेश में राजनीतिक हिंसा आम बात
बांग्लादेश में चुनाव के दौरान राजनीतिक हिंसा कोई नई बात नहीं है. पिछले ज्यादातर चुनावों में सत्ताधारी दल और विपक्षी कार्यकर्ताओं के बीच खूनी संघर्ष हुए हैं. 2001 और 2008 के चुनाव में अवामी लीग और बीएनपी के कई नेताओं और कार्यकर्ताओं की हत्याएं हुईं. मौजूदा चुनाव में हिंसा की करीब डेढ़ सौ घटनाएं हो चुकी हैं. ढाका 3 से बीएनपी उम्मीदवार गायेश्वर चंद्र रॉय पर अवामी लीग के कार्यकर्ताओं ने धारदार हथियारों से हमला किया. ऐसी ही घटनाएं नोआखाली, चटगांव, खुलना और मैमन सिंह आदि जिलों में भी हुई हैं. चुनाव के समय बांग्लादेश में रहने वाले उर्दू भाषी बिहारी मुसलमानों की परेशानियां भी बढ़ गईं है.
वर्षों से गैर-बराबरी झेल रहे इन मुसलमानों को हाई कोर्ट के आदेश पर बांग्लादेश की नागरिकता और मताधिकार का हक मिला. मुक्ति युद्ध के समय पाकिस्तान का साथ देने वाले उर्दू भाषी इन मुसलमानों को आज भी बांग्लादेश में पाकिस्तान परस्त माना जाता है. उर्दू भाषी मुसलमानों के हितों की लड़ाई लड़ रहे सदाकत खान बताते हैं, ‘हमारे लोगों को सियासत से कोई वास्ता नहीं है.
फिर भी अवामी लीग के समर्थक हम पर हमला करते हैं. उन्हें लगता है कि हम बीएनपी के हिमायती हैं. जबकि बिहारी मुसलमानों में काफी लोग अवामी लीग को भी पसंद करते हैं खासकर नौजवान. लेकिन हमारी बातों पर उन्हें एतबार नहीं होगा, क्योंकि उनके जेहन में उर्दू भाषी मुसलमानों को लेकर एक गलत छवि बनी हुई है.'
साठ सीटों पर हिंदू मतदाताओं की भूमिका निर्णायक
2011 की जनगणना के मुताबिक बांग्लादेश में हिंदुओं की आबादी 9.6 प्रतिशत हैं. देश की कुल आबादी में इनकी संख्या 1.5 करोड़ है. 1951 में तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में 23.1 फीसद हिंदू थे. 1971 में बांग्लादेश बनने पर वहां हुई पहली जनगणना में हिंदुओं की आबादी घटकर 14.6 फीसद हो गई. जबकि 2011 की जनगणना में हिंदुओं की आबादी 9.6 फीसद रह गई है.
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देश में हिंदुओं की सर्वाधिक संख्या खुलना, ढाका, रंगपुर चटगांव डिवीजन में है. जातीय संसद की कुल 300 सीटों में करीब 60 सीटों पर अल्पसंख्यकों खासकर हिंदू मतदाताओं की संख्या निर्णायक है. इनके वोट इन सीटों के चुनावी नतीजों को प्रभावित करता है. इसलिए अवामी लीग और बीएनपी ने अपने अल्पसंख्यक उम्मीदवारों को इन्हीं सीटों चुनाव लड़ाया है.
वैसे इस बार अल्पसंख्यकों को टिकट अधिक तो मिले हैं. लेकिन जितनी सीटों पर इनका प्रभाव है उस लिहाज से कुछ और उम्मीदवार उतारे जा सकते थे.
अल्पसंख्यकों से किए वादे नहीं हुए पूरे
बांग्लादेश में 2001 के जातीय चुनाव में बहुमत मिलने के बाद बेगम खालिदा जिया के नेतृत्व में बीएनपी की सरकार बनी. इसके बाद तो मानों देश में हिंदुओं पर कहर टूट पड़ा. बड़े पैमाने पर उनके ऊपर हमले हुए और उनकी संपत्तियों पर कब्जा किया गया. हमलावरों में बीएनपी और जमात के कार्यकर्ता थे, जिन्हें सांसदों और मंत्रियों का खुला समर्थन था.
2008 चुनाव में अवामी लीग ने बीएनपी के खिलाफ बड़ी जीत दर्ज की. सरकार बनने पर शेख हसीना सरकार ने 2001 में हिंदुओं के ऊपर हुए सभी 5000 हिंसक घटनाओं की जांच के लिए एक न्यायिक आयोग का गठन किया.
रिटायर्ड जज मोहम्मद शहाबुद्धीन की अध्यक्षता में बने इस आयोग ने जनवरी 2012 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी. उस रिपोर्ट में बीएनपी और जमात-ए-इस्लामी के कई बड़े नेताओं को हिंदुओं के खिलाफ हुई हिंसा के लिए जिम्मेदार ठहराया गया. लेकिन चंद लोगों को छोड़ ज्यादातर लोगों पर कार्रवाई नहीं हुई. 2014 के चुनाव में भी हिंदुओं पर हमले हुए जबकि उस वक्त अवामी लीग की सरकार थी.
जैसोर जिले के अभयनगर उपजिला अंतर्गत मालोपाड़ा में गांव में हिंदुओं के 130 घरों में आग लगा दी गई. उस साल हिंदुओं के ऊपर होने वाले हमलों की मुख्य वजह थी अंतराष्ट्रीय अपराध ट्रिब्यूनल का फैसला. फरवरी 2013 के उस आदेश में जमात-ए-इस्लामी के वरिष्ठ नेता दिलावर हुसैन सईदी को मौत की सजा सुनाई गई.
दिलावर हुसैन को युद्ध अपराध के लिए दोषी करार दिया गया था. 1971 के मुक्ति युद्ध के दौरान जमात पाकिस्तानी सेना के साथ था. उस दौरान हिंदू मुक्ति योद्धाओं का बड़े पैमाने पर नरसंहार किया गया. हमले मुख्य रूप से ठाकुरगांव, दिनाजपुर, रंगपुर, जैसोर, बोगरा, लालमोनिरहाट, गाईबांधा, राजशाही और चटगांव में हुए थे. बांग्लादेश हिंदू-बौद्ध-क्रिश्चियन एकता परिषद इस बार चुनाव के दौरान उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने की मांग की है.
पिछले दिनों ढाका के सुहरावर्दी मैदान में इस संगठन ने एक बड़ी रैली की. उसके बाद उसने अवामी लीग सरकार को पांच-सूत्रीय ज्ञापन सौंपा. ज्ञापन में राजनीतिक दलों से अपील की गई कि ऐसे व्यक्तियों को उम्मीदवार न बनाएं जिनके ऊपर अल्पसंख्यकों की संपत्ति हड़पने के आरोप लगे हैं.
चुनावी घोषणा-पत्र में अल्पसंख्यकों को तरजीह
इस चुनाव में सत्ताधारी अवामी लीग और मुख्य विपक्षी पार्टी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी के घोषणा-पत्रों में अल्पसंख्यक हितों को खास तरजीह मिली है. वैसे तो अवामी लीग को हिंदुओं की हितैषी पार्टी मानी जाती है. हिंदू मतदाता भी अवामी लीग के मजबूत वोट बैंक माने जाते हैं. अपने मेनिफेस्टो में अवामी लीग ने पुनः सत्ता में आने पर ‘राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग’ गठित करने का वादा किया है. वहीं मुख्य विपक्षी दल ‘बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी’ ने अपने घोषणा-पत्र में ‘अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालय’ बनाने का वादा किया है.
इस बार बीएनपी और उसके सहयोगी दलों ने कुल बारह अल्पसंख्यकों को उम्मीदवार बनाकर हैरान जरूर किया है. ढाका-3 से बीएनपी ने पार्टी के वरिष्ठ नेता गायेश्वर चंद्र रॉय को उम्मीदवार बनाया है. वहीं सत्ताधारी अवामी लीग ने 18 अल्पसंख्यक उम्मीदवारों को चुनावी मैदान में उतारा है. इनमें पंद्रह हिंदू, दो बौद्ध और एक ईसाई हैं. उल्लेखनीय है कि यह पहली बार है कि बांग्लादेश में छोटी-बड़ी तमाम पार्टियों ने अल्पसंख्यकों खासकर हिंदुओं को सर्वाधिक 74 टिकट दिए हैं.
अवामी लीग और बीएनपी से अल्पसंख्यक उम्मीदवार
सत्ताधारी अवामी लीग ने इस बार कुल अठारह अल्पसंख्यकों को चुनावी मैदान में उतारा है. हालांकि इसमें एक चेहरे को छोड़ शेष सभी 2014 में सांसद निर्वाचित हुए थे. अवामी लीग के अठारह अल्पसंख्यक उम्मीदवारों में नारायण चंद्र चंदा (खुलना-5) वीरेन सिकदर (मागुरा-2),रमेश चंद्र सेन (ठाकुरगांव-1), असीम कुमार उकील (नेत्रकोना-2), मनु मजूमदार (नेत्रकोना-1),मनोरंजन शील गोपाल (दिनाजपुर),साधन चंद्र मजूमदार (नौगांव-1), रंजीत कुमार रॉय (जैसोर-5), स्वप्न भट्टाचार्य (जैसोर-4), पंकज देवनाथ (बारिसाल-5), पंचानन विश्वास (खुलना-5), मृणाल कांति दास (मुंशीगंज-3), जया सेनगुप्ता (सुनामगंज-2), जेवल अरेंग (मैमन सिंह-1), वीर बहादुर सिंह (बंदरवन), दीपांकर तालुकदार (रंगमती) और खग्राछारी से कुजेंद्र लाल. वहीं बीएनपी के अल्पसंख्यक उम्मीदवारों में गोयेश्वर चंद्र रॉय ( ढाका-3), निताई रॉय चौधरी (मागुरा-2) गौतम चक्रवर्ती (टांगिल-6), मिल्टन वैद्य (मदारीपुर), मोनी स्वप्न दीवान (रंगमती) और बंदरवन से सचिन पी.जे चुनावी मैदान में हैं.
वेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट बनी पलायन की वजह
बांग्लादेश में हिंदुओं के पलायन की एक बड़ी वजह है उनकी संपत्तियों पर कब्जा. वेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट (पूर्व में शत्रु-संपत्ति कानून) भी पलायन की एक बड़ी वजह है. साल 1965 में तत्कालीन पाकिस्तान सरकार ने 'शत्रु संपत्ति अधिनियम' बनाया था. इसके तहत 1947 में पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से भारत गए लोगों की अचल संपत्तियों को 'शत्रु संपत्ति' घोषित कर दिया गया.
मुक्ति युद्ध के बाद बांग्लादेश बनने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख मुजीबुर्रहमान ने 'एनेमी प्रॉपर्टी एक्ट' का नाम बदलकर 'वेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट' कर दिया. अवामी लीग के बाद इक्कीस वर्षों तक बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी और जातीय पार्टी की सरकारें रहीं. इस दौरान वहां रहने वाले अल्पसंख्यकों की संपत्तियां पर कब्जे हुए.
23 जून 1996 को अवामी लीग सत्ता में आई और शेख हसीना प्रधानमंत्री बनीं. अपने कार्यकाल के आखिरी साल 2001 मे उन्होंने 'वेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट' में बदलाव कर इसका नाम 'वेस्टेड प्रॉपर्टी रिटर्न एक्ट' कर दिया. अवामी लीग सरकार के इस फैसले का मकसद बांग्लादेश में रहने वाले अल्पसंख्यकों को उनकी अचल संपत्तियों का लाभ दिलाना था.
इस संशोधित कानून के तहत अल्पसंख्यकों की जब्त की गई जमीनों को 180 दिनों के भीतर वापस करने का लक्ष्य रखा गया था, लेकिन अक्टूबर, 2001 में बांग्लादेश जातीय संसद (नेशनल असेंबली) के चुनाव में बीएनपी (बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी) दोबारा हुकूमत में आई और खालिदा जिया प्रधानमंत्री बनीं. बीएनपी सरकार ने 'वेस्टेड प्रॉपर्टी रिटर्न एक्ट' में पिछली सरकार द्वारा किए गए प्रावधानों को ठंडे बस्ते में डाल दिया. जनवरी 2008 में अवामी लीग फिर सत्ता में आई और प्रधानमंत्री शेख हसीना की अगुवाई वाली सरकार ने 'वेस्टेड प्रॉपर्टी रिटर्न एक्ट' को प्रभावी बनाने का फैसला किया.
साल 2013 में इस बाबत फास्ट ट्रैक कोर्ट गठित की गई ताकि अपनी जमीन से बेदखल हो चुके अल्पसंख्यकों को उनकी संपत्ति वापस मिल सके. 'वेस्टेड प्रॉपर्टी रिटर्न एक्ट' से जुड़े क़रीब 10 लाख अल्पसंख्यकों खासकर हिंदुओं के मुकदमे बांग्लादेश के विभिन्न अदालतों में लंबित हैं. लेकिन शेख हसीना सरकार ने इसे लेकर जो वादे किए थे वे पूरे नहीं हुए.
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