शहरों की ऊंची इमारतों, अत्यधिक वाहनों और यातायात सिग्नलों के कारण उत्सर्जित प्रदूषणकारी तत्वों की सांद्रता वातावरण में बढ़ जाती है. लेकिन राजमार्ग भी प्रदूषण के खतरे से अछूते नहीं हैं.
भारतीय अध्ययनकर्ताओं ने एक अध्ययन में पाया है कि निर्बाध आवागमन और खुलेपन के बावजूद वायु प्रदूषण राष्ट्रीय राजमार्गों पर भी बढ़ रहा है. राजमार्गों से गुजरने वाले वाहनों के भीतर बैठे लोग भी प्रदूषण के खतरे से सुरक्षित नहीं हैं.
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) खड़गपुर के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक ताजा अध्ययन में यह खुलासा हुआ है. इस शोध के दौरान राष्ट्रीय राजमार्गों पर चलने वाले वाहनों के अंदर वायु-प्रदूषकों की मात्रा का अध्ययन किया गया है.
अध्ययन के दौरान राष्ट्रीय राजमार्ग एनएच-30 और एनएच-65 पर भद्राचलम (तेलंगाना) से विजयवाड़ा (आंध्रप्रदेश) के बीच चलने वाली बसों और वातानुकूलित एवं गैर-वातानुकूलित कारों में बैठकर सफर करने वाले लोगों पर प्रदूषणकारी तत्वों के प्रभाव को समझने का प्रयास किया गया है.
अध्ययन में 200 किलोमीटर के सफर में प्रति मिनट से लेकर प्रत्येक राउण्ड ट्रिप तक पीएम2.5 और कार्बन मोनो आक्साइड के साथ-साथ तापमान, आपेक्षिक आर्द्रता और कार्बनाइऑक्साइड की मात्रा का आकलन किया गया है. यह अध्ययन शोध पत्रिका साइंस ऑफ द टोटल एन्वायरमेंट में प्रकाशित हुआ है.
शोध के दौरान पीएम 2.5 की औसत सांद्रता वातानुकूलित कार में सबसे कम पायी गई है, जबकि बस में यह 1.4 गुना और गैर- वातानुकूलित कार में 1.7 गुना अधिक आंकी गई है. कार्बन मोनो ऑक्साइड का स्तर गैर-वातानुकूलित कार में सबसे कम पाया गया, जबकि वातानुकूलित कार में इसका स्तार 77 प्रतिशत और बस में 15 प्रतिशत अधिक था.
अध्ययनकर्ताओं के अनुसार एक ही मार्ग पर अलग-अलग वाहनों, जैसे- बसों और गैर-वातानुकूलित वाहनों और वातानुकूलित कारों के भीतर पीएम2.5, कार्बन मोनो ऑक्साइड और कार्बनडाईऑक्साइड का औसत घनत्व बाहरी वातावरण की तुलना में अलग हो सकता है. इन प्रदूषकों के घनत्व में सुबह और शाम के समय में की जाने वाली यात्रा, यात्रा में लगने वाले समय, गंतव्य की दूरी और वाहन में हवा के प्रवाह से भी फर्क पड़ता है.
स्वास्थ्य पर वायु प्रदूषकों के पड़ने वाले प्रभावों के विभिन्न अध्ययन दर्शाते हैं कि पीएम 2.5 के सम्पर्क में लगातार रहने से एथीरोस्क्लीरोसिस, फेफड़ों में सूजन, हृदय धड़कनों में अनियमितता, खून की आपूर्ति में कमी से उत्पन्न हृदय रोग, हृदयाघात जैसी बीमारियां हो सकती हैं.
पर्यावरण विशेषज्ञ डॉ. प्रवीण पण्ड्या के अनुसार, 'राजमार्गों और शहरों में वायु प्रदूषकों के स्तर पर काफी शोध हो चुके हैं और बहुत-सी जगहों पर इनका नियमित मापन भी होता है. लेकिन, वाहनों के अंदर वायु-प्रदूषकों का मापन एक नई पहल हो सकती है. इससे सफर कर रहे यात्रियों पर प्रदूषकों के पड़ने वाले प्रभावों का सटीक आकलन करने में मदद मिल सकती है. भविष्य में इस तरह के और भी शोध यात्रियों के बीच पर्यावरण जागरूकता बढ़ाने और राजमार्गों पर बेहतर प्रदूषण नियंत्रण रणनीति तैयार करने के लिए उपयोगी हो सकते हैं.'
देश की कुल सड़कों में राष्ट्रीय राजमार्गों का योगदान लगभग दो प्रतिशत ही है, फिर भी इनसे कुल सड़क परिवहन का 40 प्रतिशत संचालित होता है. वायु-प्रदूषकों की दृष्टि से शहरों की तुलना में खुले राजमार्ग थोड़ा साफ होते हैं. विशेषज्ञों के अनुसार राजमार्गों के शहरों से होकर गुजरते समय यातायात के लिए बाईपास रास्ते अपनाने से श्वसन द्वारा पीएम 2.5 की ग्राह्यता को 25 प्रतिशत और कार्बन मोनो ऑक्साइड को 50 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है.
राष्ट्रीय राजमार्ग पर लंबी यात्रा के लिए उचित वाहन का चुनाव वायु-प्रदूषकों के निजी स्तर पर खतरों से बचा सकता है. बस से सफर करना एक अच्छा विकल्प हो सकता है क्योंकि इसमें पीएम 2.5 तथा कार्बन मोनो ऑक्साइड की मात्रा कम पाई गई है. हांलाकि, वातानुकूलित कार में पीएम 2.5 कम होता है और प्रति मिनट ग्रहण की गई कार्बन मोनो ऑक्साइड की मात्रा अधिक होती है.
एक अन्य पर्यावरण विशेषज्ञ डॉ. मनीष चांदेकर के मुताबिक, 'देश की खराब सड़कें, ईंधन में मिलावट, वाहनों की मरम्मत और रखरखाव में ज्यादा खर्च, आंकड़ों में हेराफेरी करके जारी किए गए वाहन प्रदूषण के प्रमाण पत्र, ड्राइवरों का कम पारिश्रमिक और मानवीय रवैया वाहनों के माध्यम से फैलने वाले वायु प्रदूषण के मुख्य कारण हैं.'
विश्व स्तर पर ऐसी जागरूकता की मांग दिनों-दिन बढ़ रही है क्योंकि अब धरती पर अत्यंत शुद्ध पर्यावरण वाले ध्रुवीय क्षेत्रों आर्कटिक व अंटार्कटिक पर भी वायु-प्रदूषकों की उपस्थिति देखी जा रही है. राष्ट्रीय अंटार्कटिक एवं समुद्री अनुसंधान केंद्र, गोवा में ध्रुवीय पर्यावरण पर शोध कर रहीं नीलू सिंह के अनुसार, 'विभिन्न स्त्रोतों से उत्सर्जित प्रदूषक, वायु तथा समुद्री धाराओं के माध्यम से हजारों मील दूर ध्रुवीय क्षेत्रों तक पहुंचकर उनको क्षति पहुंचा रहे हैं. वायु प्रदूषक बढ़ेंगे तो इनका प्रभाव ध्रुवीय क्षेत्रों में भी बढ़ता जाएगा.'
इसी आधार पर वैज्ञानिकों का कहना है कि पर्यावरण को बचाने के लिए राष्ट्रीय राजमार्गों की वायु-गुणवत्ता और राजमार्गों पर यात्रा कर रहे लोगों के स्वास्थ्य को दृष्टिगत रखते हुए सभी अपने-अपने नैतिक उत्तरदायित्वों को सही मायनों में समझें.
चांदेकर का कहना है, 'सड़कों की खराब गुणवत्ता के परिणामस्वरूप अक्सर ब्रेक और क्लच का बार-बार उपयोग होने से अधिक ईंधन जलता है और वाहनों को अधिक रख-रखाव की जरूरत होती है. लेकिन, रख-रखाव की ओर ध्यान नहीं दिया जाता. वाहनों से उत्सर्जन का सही परीक्षण किए बिना सिर्फ पीयूसी प्रमाणपत्र के आधार पर उत्सर्जन को मान्यता मिल जाना दर्शाता है कि हम वाहनों से उत्सर्जन के प्रति सही मायनों में सजग नहीं हैं.'
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