कैंब्रिज एनालिटिका की करतूतों का खुलासा होने पर दुनिया भर में इस बात को लेकर चिंता जतायी जा रही है कि डेटा फर्म्स निजी सूचनाओं की गोपनीयता में सेंधमारी कर रहे हैं लेकिन कर्नाटक में नजारा कुछ दूसरा है. वहां चुनावी प्रबंधन की सेवा मुहैया करा रही एजेंसियों का कहना है कि चुनाव प्रचार के अभियान में सोशल मीडिया उपयोगी साबित नहीं हो रहा.
बेंगलुरु में कायम 5Forty3 Datalabs के कारपोरेट कम्युनिकेशन स्पेशलिस्ट येश्मा नन्जप्पा का कहना है कि भारत के सियासी माहौल में सोशल मीडिया का इस्तेमाल पूर्वानुमानों से जुड़े किसी विश्लेषण के लिए उपयोगी नहीं है क्योंकि 70 फीसद भारत सोशल मीडिया के रडार से बाहर है.
येश्मा ने कह भी कहा कि 'आज के वक्त और माहौल में डेटा और एनालिटिक्स के इस्तेमाल से बचा नहीं जा सकता और एक बार यह सिलसिला शुरू हो गया तो इसे फिर से पलटकर पुरानी जगह पर नहीं लाया जा सकता. सोशल मीडिया के डेटा लीक्स के जुड़ी अधिकतर बहसें किसी मजाक से ज्यादा नहीं हैं.'
सोशल मीडिया बस प्रोफाइल को बढ़ावा देने के लिए
एक फर्म का नाम है Pollltics.in जो चुनावों के प्रबंधन से जुड़ी खास सेवाएं मुहैया कराती है. इस फर्म के सीईओ और कैंपेन से जुड़े मामलों के मुखिया अभिषेक शुक्ला कहना है कि हम लोग प्राथमिक स्रोतों (फर्स्टहैंड सोर्सेज) से डेटा जुटाते हैं यानी घर-घर जाकर सर्वे किया जाता है और इसके आधार पर आंकड़ों का संग्रह होता है, सोशल मीडिया के प्लेटफार्म का इस्तेमाल सिर्फ अपने ग्राहक के प्रोफाइल को बढ़ावा देने के लिए किया जाता है.
लेकिन कर्नाटक में राजनीतिक दल सोशल मीडिया का इस्तेमाल एक सियासी औजार के रूप में कर रहे हैं और इसके सहारे ये दल फेक न्यूज और गुमराह करने वाली सूचनाओं की काट करने के जतन में लगे हैं. अभिषेक शुक्ला ने बताया कि बीजेपी समेत भारत के बहुत से राजनीतिक दलों ने अपने उम्मीदवारों को आदेश दे रखा है कि वे सोशल मीडिया पर एक्टिव रहें.
शुक्ला का कहना है कि 'दरअसल आजकल की एक बड़ी दिक्कत तो ये है कि सोशल मीडिया किसी जादुई मंत्र की तरह हो गया है. हर उम्मीदवार चाहता है कि उसका सोशल मीडिया कैंपेन बड़े अच्छे तरीके से चलाया जाए और हमलोग उम्मीदवारों की इस सिलसिले में भी मदद करते हैं.'
प्राथमिक स्रोतों से जुटाए जाते हैं डेटा
अभिषेक शुक्ला ने बताया कि उनका फर्म उम्मीदवार के लिए जमीनी स्तर पर काम करता है सो सोशल मीडिया के सहारे जुटाया गया डेटा इस काम में बहुत मददगार नहीं. शुक्ला ने फर्म का काम शुरु करने के पहले कुछ सालों तक आम आदमी पार्टी के लिए काम किया था. उनका कहना है कि 'जमीनी स्तर पर चलाये जा रहे कैंपेन में हमलोग प्राथमिक स्रोतों (प्राइमरी सोर्सेज) से जुटाये गये डेटा को ही तरजीह देते हैं क्योंकि ये आंकड़े कहीं ज्यादा भरोसेमंद होते हैं. बहुत बार ऐसा भी होता है कि जुटाया गया डेटा बहुत पुराना हो और मौजूदा माहौल के माफिक नहीं बैठता हो. दूसरी बात डेटा के ‘डॉक्टर्ड’ (घालमेल) होने की है. कई बार ऐसा भी देखने को मिला है.'
शुक्ला ने बताया कि 'कर्नाटक के चुनावों में हिस्सा ले रहे तीन उम्मीदवारों के चुनाव-प्रचार अभियान का काम हमारे जिम्मे हैं. हमलोग ना तो किसी राजनीतिक दल से जुड़े हैं और ना ही हम सियासी दलों के प्रचार अभियान का काम अपने हाथ में लेते हैं. हमारे ग्राहक पार्टियां नहीं बल्कि व्यक्ति होते हैं. फिलहाल हमारे ग्राहकों में एक स्वतंत्र उम्मीदवार हैं जो बेंगलुरु के एक इलाके से चुनाव लड़ रहे हैं. हम लोग बीदर में बीजेपी के और नसूर में जेडी(एस) के एक प्रत्याशी के चुनाव-प्रचार का भी काम देख रहे हैं.'
Polltics.in की तरह 5Forty3 का भी कहना है कि वो विश्लेषण के अपने कामकाज में सोशल मीडिया से जुड़े डेटा को आधार नहीं बनाता है. नन्जप्पा का कहना है कि '5Forty3 Datalabs बुनियादी स्तर के विश्लेषणों के लिए सोशल मीडिया के डेटा का इस्तेमाल नहीं करता. हमलोग सोशल मीडिया का इस्तेमाल सियासी मार्केंटिंग के एक औजार के रुप में करते हैं.'
लेकिन फेक न्यूज है समस्या
लेकिन सियासी मार्केंटिंग में सोशल मीडिया के इस्तेमाल के अपने खतरे हैं. राजनीतिक दलों के आईटी-सेल ‘फेक न्यूज’ की काट के लिए लगातार जूझते रहते हैं. जनता दल सेक्युलर के आईटी-सेल के एक प्रमुख सदस्य चंदन धोरे का कहना है कि उनलोगों ने फेक न्यूज से निपटने के लिए अलग से एक टीम बनाई है. बीजेपी और कांग्रेस के आईटी-सेल ने भी ऐसा ही किया है.
हाल में फेसबुक पर आरोप लगे कि उसके प्लेटफार्म से डेटा की सुरक्षा में चूक हुई है. इस कारण फेसबुक ने कर्नाटक विधानसभा चुनावों के मद्देनजर सोशल मीडिया साइट की निगरानी शुरू की है. फेसबुक ने एक ब्लॉग पोस्ट में लिखा है कि 'हमलोग भारत में एक थर्ड पार्टी फैक्ट-चेकिंग प्रोग्राम का एलान करने वाले हैं. अपने प्लेटफार्म पर फेक न्यूज से निपटने के मकसद से हमने स्वतंत्र डिजिटल पत्रकारिता की एक पहल BOOM के साथ पार्टनरशिप की है. इस पार्टनरशिप के तहत एक पायलट प्रोग्राम चलाया जायेगा और इस कार्यक्रम की शुरुआत सबसे पहले कर्नाटक में होगी.' बहरहाल, फेसबुक की कोशिश अंग्रेजी में लिखे गए फेक न्यूज के प्रसार को रोकने की है लेकिन अभी तक यह बात स्पष्ट नहीं हो पाई है कि उसके डेटाबेस से किस हद तक सूचनाएं निकाली जा सकती हैं.
शुक्ला का कहना है कि 'उम्मीदवारों की जरुरतें अलग-अलग होती हैं और इलाके के हिसाब से भी इन जरुरतों में फर्क होता है. अपने फील्ड सर्वे के आधार पर हम लक्ष्य के अनुरुप अपने प्रचार अभियान को तैयार करते हैं और यह अभियान अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग रुप अख्तियार करता है.' शुक्ला ने बताया कि 'खास ऑडियन्स (श्रोता) को लक्ष्य कर उसके हिसाब से विशेष मुद्दों पर जोर दिया जाता है और वो ही मुद्दे इन श्रोताओं के बीच पहुंचाए जाते हैं. वाररुम बनाने और मतदाताओं के बीच पहुंचाए जाने वाले खास तरह के संदेशों को गढ़ने से लेकर सोशल मीडिया और ऑडियो-वीडियो कंटेट तैयार करने तक हमलोग अपने ग्राहक के लिए ये तमाम काम करते हैं.'
सोशल मीडिया का डेटा जमीनी स्तर पर हालात के विश्लेषण के लिहाज से भरोसेमंद नहीं है इसलिए चुनाव-प्रबंधन के काम में लगे फर्म सोशल मीडिया का इस्तेमाल उम्मीदवारों के प्रोफाइल को बढ़ावा देने भर में कर रहे हैं.
जमीनी स्तर पर सोशल मीडिया डेटा कारगर नहीं
अभिषेक शुक्ला इस बात को समझाते हुए कहते हैं कि Polltics.in में उम्मीदवार पर ही जोर दिया जाता है. सोशल मीडिया से जुड़ी उनकी गतिविधियां छोटे से दायरे में सीमित होती हैं. 'बड़े स्तर पर देखें तो पार्टियों के अपने आईटी-सेल होते हैं जो पार्टी को बढ़ावा देने के लिए संदेशों को गढ़ते और उनकी निगरानी करते हैं. हमलोग उम्मीदवार को एक छोटे से दायरे में बढ़ावा देने के मकसद से काम करते हैं और जमीनी स्तर के हालात के विश्लेषण में सोशल मीडिया का डेटा बहुत कारगर नहीं है.' शुक्ला ने बताया कि खास तरह के मतदाताओं के रुझान और मांग के हिसाब वे लोग किसी स्थिति को उभारने में उम्मीदवार की मदद करते हैं, उम्मीदवार के लिए सकारात्मक संदेश तैयार किए जाते हैं जबकि उसके विपक्षी के लिए नकारात्मक संदेश.
निजी डेटा फर्म जैसे कि 5Forty3, अपना डेटाबेस तैयार करने के लिए इन-हाऊस टेक-टूल (घरेलू तकनीकी युक्तियां) का इस्तेमाल करते हैं. नंजप्पा ने बताया कि ‘ऐसे एक टेक-टूल का नाम MAPi यानि माइक्रो एनालिटिकल प्रोजेक्शन्स (इंटेलीजेंस) है. इसमें पूरे भारत को 9,87,000 GUIs (ज्याग्राफिकल यूनिटस् ऑफ इंटेलीजेंस) में बांटा गया है . हर GUI में 1200 नागरिकों का एक औसत-मान निकाला जाता है. MAPi के फीड के रुप में हमारी टीम लोगों के राय-ख्याल का रियल टाइम डेटा जुटाती है.' नंजप्पा का कहना था कि वो यह तो नहीं बता सकती कि उनके डेटा का इस्तेमाल कौन करता है लेकिन उन्होंने यह जरुर कहा कि 5Forty3 के ग्राहकों में अलग-अलग पार्टियों के उम्मीदवार, राजनीतिक संगठन और वित्तीय संस्थान शामिल हैं.
शुक्ला का कहना है कि Polltics.in अपने हर चुनाव-प्रचार अभियान के काम के लिए पांच लाख से चालीस लाख रुपए तक का मेहनताना लेता है- 'उम्मीदवार की जरुरत के हिसाब से मेहनताना तय किया जाता है. अगर बात चुनाव-प्रचार के क्रम में दफ्तरी किस्म की सहायता देने की हुई तो पांच से दस लाख रुपए तक मेहनताने के रुप में मांगे जा सकते हैं लेकिन एंड टू एंड सपोर्ट के लिए अतिरिक्त शुल्क लिया जाता है.'
शुक्ला ने बताया कि प्राथमिक स्रोतों के विस्तृत सर्वेक्षण के आधार पर 12 लोगों की एक टीम तैयार की जाती है जो सामाजिक विकास के मुद्दों को तरजीह देते हुए स्थानीय स्तर के मसलों को सोशल मीडिया में आगे बढ़ाता है और उम्मीदवार के विरोधियों के लिए नकारात्मक संदेश तैयार किए जाते हैं.
बहरहाल, एक ऐसे वक्त में जब चुनावों को देखते हुए सभी राजनीतिक दल ऑनलाइन बड़े स्तर पर प्रचार-अभियान चला रहे हैं और इसमें सोशल मीडिया की टीम और प्राइवेट फर्म्स की मदद ली जा रही है तो बड़ी चिंता इस बात की नहीं है कि डेटा की निजता में सेंधमारी हो जाएगी बल्कि सोचने का बड़ा सवाल यह है कि गुमराह करने वाली सूचनाओं के प्रसार से कहीं नुकसान ना हो जाए.
(लेखक बंगलुरु स्थित मीडिया स्टार्टअप न्यूजकार्ट के सदस्य हैं.)
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