अंग्रेजी उपन्यासकार जेम्स हिल्टन ने कहा है कि यदि नेट न्यूट्रैलिटी खत्म हो गई तो इंटरनेट में कुछ भी पहले जैसा नहीं रहेगा. हिल्टन की यह बात अतिश्योक्ति जान पड़ती है लेकिन यह सच है कि नेट न्यूट्रेलिटी का सिद्धांत इंटरनेट की नींव का पत्थर है. नींव को नुकसान पहुंचने पर इमारत और उसका प्रयोग करने वाले तो प्रभावित होंगे ही. लेकिन आखिर ये नेट न्यूट्रेलिटी है क्या? क्यों सब इसके बारे में बात कर रहे हैं?
नेट न्यूट्रैलिटी इंटरनेट का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. नेट न्यूट्रैलिटी के अनुसार इंटरनेट सबके लिए ‘न्यूट्रल’ है... मतलब कि इंटरनेट किसी के साथ भेदभाव नहीं करता. पूरा इंटरनेट और इस पर उपलब्ध सारी जानकारी और सेवाएं सबके लिए समान रूप से उपलब्ध हैं. नेट न्यूट्रैलिटी का सिद्धांत इस बात को सुनिश्चित करता है कि सभी यूजर्स इंटरनेट का प्रयोग स्वतंत्र संवाद के लिए कर सकें. यदि अभी भी आपके मन में नेट न्यूट्रैलिटी का सिद्धांत स्पष्ट नहीं हुआ है तो आइए इसे और सरलता के साथ समझने की कोशिश करते हैं.
‘नेटवर्क न्यूट्रल रहेगा’ यह अवधारणा 1860 के दशक में जन्मी थी लेकिन ‘नेट न्यूट्रैलिटी’ शब्द का प्रयोग सन् 2000 के बाद चलन में अधिक आया. 2003 में कॉमकास्ट और ए.टी. एंड टी. नामक इंटरनेट कंपनियों के ऊपर मुकदमा कर दिया गया था क्योंकि इन्होनें बिट-टोरेन्ट और फेसटाइम सेवाओं को ब्लॉक कर इंटरनेट के ट्रैफिक में बाधा डाली थी.
सर्विस प्रोवाइडर नहीं ब्लॉक कर सकता वेबसाइट
किसी देश की सरकार अपनी नीतियों के अनुसार पूरे देश में इंटरनेट पर कुछ वेबसाइटों और सेवाओं को ब्लॉक कर सकती है लेकिन कोई भी सर्विस प्रोवाइडर यह नहीं कह सकता कि हम फ़लां वेबसाइट को दिखाएगें और फ़लां को नहीं दिखाएगें. हर सर्विस प्रोवाइडर के लिए यह ज़रूरी है कि वह इंटरनेट पर उपलब्ध सारी वेबसाइटों को समान-रूप से उपलब्ध कराए. सर्विस प्रोवाइडर इंटरनेट से कनेक्ट करने का पैसा ले सकता है लेकिन कनेक्ट करने के बाद उसे यूज़र को पूरा इंटरनेट उपलब्ध करवाना होग. केवल वही वेबसाइटें ब्लॉक की जा सकती हैं जिन्हें सरकार ने ब्लॉक करने को कहा हो. सरकार भी यह नहीं कर सकती कि कोई वेबसाइट कुछ लोगों के लिए ब्लॉक हो जाए और देश के अन्य लोग उसे प्रयोग करते रहे. ऐसा करना भी नेट न्यूट्रैलिटी के सिद्धांत के खिलाफ होगा.
कम शब्दों में बात यह कि ‘इंटरनेट कनेक्शन का पैसा लो... लेकिन कनेक्शन होने के बाद पूरा इंटरनेट उपलब्ध होना चाहिए’... यही नेट न्यूट्रैलिटी है.
दूसरे शब्दों में कहें तो कंपनियों को ‘डाटा पैक’ का पैसा लेना चाहिए... लेकिन जब कोई यूज़र डाटा पैक ले लेता है तो उसे पूरा इंटरनेट सर्फ़ करने की आज़ादी होनी चाहिए.
20 अगस्त 2013 को फ़ेसबुक के जन्मदाता मार्क ज़करबर्ग ने internet.org नाम से एक संस्था की शुरुआत की थी. बाद में इसका नाम बदल कर ‘फ़्री बेसिक्स’ कर दिया गया. आजकल नेट न्यूट्रैलिटी जो चर्चा चल रही है वह ‘फ़्री बेसिक्स’ की वजह से ही शुरु हुई थी. ‘फ़्री बेसिक्स’ ने एयरटेल के साथ मिलकर 2014 में एक प्लान सामने रखा था.
प्लान यह था कि एयरटेल के यूज़र्स कुछ वेबसाइट्स बिना पैसा दिए भी प्रयोग कर सकेंगे- लेकिन अन्य वेबसाइटों को प्रयोग करने के लिए उन्हें डाटा पैक लेना होगा और इसके लिए कीमत चुकानी होगी. ऊपरी तौर पर तो यह प्लान एकदम बढ़िया है लेकिन यह प्लान नेट न्यूट्रैलिटी के मूल सिद्धांत का उल्लंघन करता है. यदि एक बार इस तरह के प्रयोगों को छूट मिल गई तो नेट न्यूट्रैलिटी हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगी और फिर इंटरनेट स्वतंत्र नहीं रहेगा. इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी टुकड़ों में बंट जाएगी- आप किसी टुकड़े तक पहुंच पाएंगे और किसी अन्य टुकड़े को देखने के लिए आपको और पैसे चुकाने पड़ सकते हैं.
फ़ेसबुक और गूगल जैसी इंटरनेट कम्पनियां चाहती हैं कि इंटरनेट अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचे क्योंकि इसी से इनका व्यापार बढ़ता है. इसलिए यदि मार्क ज़करबर्ग ‘फ़्री बेसिक्स’ की वकालत करते हैं तो बात समझ में आती है. लेकिन एयरटेल जैसी सर्विस प्रोवाइडर कंपनियां क्यों ‘फ़्री बेसिक्स’ में रुचि ले रही हैं?
इसकी वजह OTT में छुपी है
नेट न्यूट्रैलिटी के संदर्भ में OTT के बारे में भी खूब सुना जाता है. Over the Top (OTT) सेवाएं ऐसी इंटरनेट सेवाएं हैं जो मोबाइल कनेक्शन के ऊपर चलती हैं. इनमें से स्काइप और व्हाट्सएप जैसी इंटरनेट सेवाएं वही सुविधा उपलब्ध कराती हैं जो एक मोबाइल सर्विस प्रोवाइडर करता है. मोबाइल सर्विस प्रोवाइडर आपसे कॉल करने के पैसे अलग लेता है और डाटा पैक के पैसे अलग लेता है... लेकिन यदि आप डाटा पैक लेकर स्काइप जैसी सुविधाओं के ज़रिए मुफ़्त वॉइस कॉल करेंगे तो इससे सर्विस प्रोवाइडर को मिलने वाले पैसे में कमी आती है.
रिलायंस जिओ आ जाने के बाद लोकल कॉल्स तो मुफ़्त हो गई हैं लेकिन यदि आपको इंटरनेशनल कॉल करनी पड़े तो अच्छा-खासा चार्ज देना पड़ता है. इसकी बजाय यदि आप स्काइप या व्हाट्सअप के ज़रिए बात करते हैं तो आप अधिक पैसे दिए बिना ही दूर देशों में बैठे अपने मित्रों-संबंधियों से बात कर सकते हैं. यही वजह है कि मोबाइल कम्पनियां OTT के ख़िलाफ़ हैं. लेकिन यदि OTT सेवाओं के लिए अलग से मूल्य लिया जाता है तो नेट न्यूट्रल नहीं रहेगा.
पूरी धरती पर इंटरनेट जिस तकनीकी ढांचे पर चलता है उसे यही सोच कर बनाया गया है कि इस पर उपलब्ध सारी जानकारी व सेवाएं सबको समान-रूप से उपलब्ध हो. मोबाइल इंटरनेट की सुविधा अच्छी तो है लेकिन यदि इस सुविधा की वजह से नेट न्यूट्रैलिटी बाधित होती है तो इंटरनेट के लिए इसके परिणाम ठीक नहीं होंगे.
भविष्य में स्काइप/वाट्सअप जैसी इंटरनेट आधारित सेवाओं के लिए आपको अत्यधिक मूल्य देना पड़ सकता है और कंपनियां अपनी कमाई बढ़ाने के लिए सेवाओं की गुणवत्ता में कमी भी ला सकती हैं. बात केवल स्काइप / व्हाट्सअप जैसी सेवाओं की ही नहीं है. एक बार नेट न्यूट्रैलिटी समाप्त हो गई तो इंटरनेट के यूज़र्स मोबाइल कंपनियों की मनमानी के शिकार हो जाएंगे. आज वे एक सुविधा को मूल्य-आधारित कर रहे हैं तो कल वे अन्य इंटरनेट सेवाओं का भी अलग से मूल्य मांगने लगेंगे.
यदि नेट न्यूट्रैलिटी समाप्त हो गई तो जिस इंटरनेट को आप आज जानते हैं, उसकी मौत हो जाएगी और सूचना-संवाद का एक नया माध्यम अस्तित्व में आएगा जो कि बिज़नेसमैनों के नियंत्रण में होगा. इंटरनेट के यूजर्स आज जितनी स्वतंत्रता से किसी भी वेबसाइट का प्रयोग कर लेते हैं, वह बीते दिनों की बात हो जाएगी.
(लेखक kavitakosh.org और techwelkin.com के संस्थापक हैं)
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