बीते बुधवार यानी 20 सितंबर को मोदी सरकार की कैबिनेट ने ‘खेलो इंडिया’ योजना को मंजूरी दी. देश में खेलों के इंफ्रास्ट्रक्चर को मजबूत करने और ओलिंपिक जैसे बड़े खेल आयोजनों में मेडल्स की संख्या में इजाफा करने के लिए बनी इस योजना में तीन साल के लिए 1756 करोड़ रुपए की व्यवस्था भी की गई है. मोदी सरकार के इस फैसले की जानकारी देने के लिए प्रैस इंफोर्मेशन ब्यूरो यानी पीआईबी के कॉफ्रेंस हॉल में कुछ मंत्रियों के साथ खुद खेल मंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौड़ भी आए.
इस प्रैस कॉफ्रेंस में एक पत्रकार ने राठौड़ से खेलों को संविधान की कनकरेंट लिस्ट यानी समवर्ती सूची में लाने के बारे में सवाल भी पूछा, राठौड़ का जवाब था- स्टेप बाय स्टेप यानी धीरे-धीरे यह काम भी किया जाएगा.
पीआईबी के इस हॉल के ही पास, बतौर सूचना एवं प्रसारण मंत्री, राठौड़ का एक दफ्तर भी है. प्रैस कॉफ्रेंस के बाद सभी मंत्री और कुछ पत्रकार इसी दफ्तर में अनौपचारिक चर्चा में मशगूल थे. इसी बीच मोदी सरकार के एक वरिष्ठ मंत्री ने मजाकिया लहजे में ‘कनकरेंट लिस्ट’ वाला सवाल पूछने वाले पत्रकार से कहा – ‘ यह बहुत सीरियस मसला है, पिछले दस खेल मंत्रियों का करियर इस मसले ने तबाह कर दिया है.’
यूं तो वरिष्ठ मंत्री पत्रकारों से मुखातिब थे लेकिन उनका इशारा खेल मंत्री राठौड़ की ओर था. मानो वह खेल मंत्री को सलाह दे रहे हों कि जिस मसले ने इतने खेल मंत्रियों के राजनीतिक करियर का ग्राफ गिरा दिया, उस मसले ना ही छुएं तो बेहतर होगा.
अब आपको बताते हैं कि आखिरकार क्या है खेलों को कनकरेंट लिस्ट में लाने का यह मसला जो इतने खेल मंत्रियों के राजनीतिक करियर की बलि ले चुका है.
संविधान के मुताबिक राज्यों के अधिकार क्षेत्र में है खेलों का विषय
भारतीय संविधान के मुताबिक तमाम विषयों को अधिकार क्षेत्र के हिसाब से तीन अलग-अलग सूचियों में बांटा गया है. जिन विषयों पर कानून बनाने से लेकर उन्हें अमल में लाने का अधिकार केंन्द्र सरकार के पास है उन्हें यूनियन लिस्ट, जो विषय राज्य सरकारों के अधीन हैं उन्हे स्टेट लिस्ट और जिन विषयों पर केंद्र और राज्य यानी दोनों को कानून बनाने का अधिकार है उन्हें समवर्ती सूची यानी कनकरेंट लिस्ट में रखा गया है.
क्यों जरूरी है खेलों का कनकरेंट लिस्ट में आना
भारतीय संविधान में खेलों का विषय स्टेट लिस्ट में है. यानी केन्द्र सरकार को खेलों के सिलसिले में कानून बनाने का कोई अधिकार नहीं है. देश के हर राज्य की अपनी अलग खेल नीति होती है. केन्द्र सरकार खेलों के विषय में धन तो जारी करती है लेकिन उसके खर्चे पर अंकुश लगाने या फिर पूरे देश में एक समान खेल नीति को लागू करने के लिए कानून बनाने का अधिकार उसके पास नहीं है. खेलों में आगे रहने वाले कई देशों की तरह भारत में भी खेलों को स्कूलों के पाठ्यक्रम में शामिल करने की मांग उठती रहती है. खेलों के समुचित विकास के लिए उन्हें समवर्ती सूची में लाने की वकालत हाल ही में उस टास्क फोर्स ने भी की है जिसका गठन खुद पीएम मोदी ने पिछले साल रियो ओलिंपिक के बाद किया था.
1988 से हो रही है कोशिश
जीएसटी की ही भांति, खेलों को कनकरेंट लिस्ट में लाने के लिए संविधान में संशोधन करने की जरूरत पड़ेगी. इसके लिए राज्य सरकारों की सहमति की भी दरकार रहेगी. इस सिलसिले में सबसे पहली कोशिश 1988 में राजीव गांधी सरकार ने की थी. 1984 में बनी राष्ट्रीय खेल नीति को अमल में लाने के लिए 29 अगस्त 1988 को तत्कालीन कैबिनेट ने खेलों को कनकरेंट लिस्ट में लाने की मंजूरी दी. 24 नंवंबर 1988 को राज्यसभा में इसके लिए संविधान संशोधन प्रस्ताव भी पेश किया गया. लेकिन सहमति नहीं बन सकी. 1996,1997,1998 और 1999 में भी तत्कालीन खेल मंत्रियों ने इस सिलसिलें में राज्यों को चिट्ठियां भी लिखीं लेकिन बात नहीं बनी.
2007 में मणिशंकर अय्यर ने की जोरदार कोशिश
हाल के सालों में खेलों को कनकरेंट लिस्ट में लाने की पुरजोर कोशिश यूपीए सरकार के उस वक्त के खेल मंत्री मणिशंकर अय्यर ने की. भारतीय ओलिंपिक संघ यानी आईओए के तत्कालीन मुखिया सुरेश कलमाडी के साथ अपनी तानतनी के बीच मणिशंकर अय्यर ने राज्यों को, खेलों को कनकरेंट लिस्ट में लाने के लिए राजी करने की जोरदार कोशिश की ताकि केंद्रीय खेल मंत्रालय को खेलों से जुड़े कानून बनाने का अधिकार मिल सके.
खैर..खेल तो कनकरेंट लिस्ट में नहीं आ सके अलबत्ता 2009 में मणिशंकर अय्यर की ही सरकार से छुट्टी हो गई उसके बाद अगले पांच साल तक चली यूपीए सरकार में वह दोबारा मंत्री नहीं बन सके. इसी 2009 के साल में यूपीए सरकार ने 1988 से राज्यसभा में पेंडिंग पड़े उस संविधान संशोधन को भी वापस ले लिया जिसमें खेलों को कनकरेंट लिस्ट में लाने का प्रस्ताव था.
विजय गोयल ने भी गंवाई खेल मंत्री की कुर्सी
राज्यवर्धन राठौड़ से पहले के खेल मंत्री विजय गोयल ने भी खेलों के कनकरेंट लिस्ट में लाने के लिए जोर-शोर से कोशिश की. पिछले साल तमाम नेशनल स्पोर्ट्स फेडरेशंस का सम्मेलन बुलाकर इसका प्रस्ताव भी पास कराया. मीडिया से मुखातिब होते वक्त विजय गोयल अक्सर अपनी इन कोशिशों का जिक्र किया करते थे. यही नहीं राठौड़ के हाथों अपनी खेल मंत्री की कुर्सी गंवाने से चंद दिन पहले भी खेलों से जुड़ी एक पोर्टल लॉच करते वक्त भी उन्होंने इसी मसले का राग अलापा था. हालांकि विजय गोयल अब भी मोदी सरकार की मंत्रिपरिषद का हिस्सा हैं लेकिन उनका पसंदीदा खेल मंत्रालय अब राठौड़ के हाथों में है.
राज्यवर्धन राठौड़ देश के पहले ऐसे खेल मंत्री हैं जो ओलिंपिक मेडलिस्ट भी रहे हैं. पिछले दिनों खेल मंत्रालय की जिम्मेदारी मिलने के बाद वह बहुत तेजी से सक्रिय भी हैं. 152 एथलीटों को 50,000 रुपए प्रतिमाह का जेबखर्च देने जैसे बेहतरीन फैसले से लेकर तमाम स्टेडियमों में छापे मारने और हॉकी कोच की नियुक्ति जैसे मसलों पर उन्होंने गजब की फुर्ती दिखाई है.
अपने हर फैसले को सोशल मीडिया के जरिए बयां करने में भी वह काफी एक्टिव हैं. देशभर के खेल प्रेमियों को उनसे काफी उम्मीदें हैं. ऐसे में सवाल है कि क्या राठौड़ खेलों को कनकरेंट लिस्ट में लाने के लिए उस ‘जोखिम’ को भी उठाएंगे जिसका जिक्र सरकार में उन्हीं के एक वरिष्ठ सहयोगी ने किया है.
बहरहाल, पीआईबी में बीते 20 सितंबर को राठौड़ के दफ्तर में, उन्हें कनकरेंट लिस्ट के मसले से जुड़े खतरे से आगाह करने के साथ-साथ मोदी सरकार के उन वरिष्ठ मंत्री ने इसका समाधान भी सुझा दिया.
वह मंत्री खुद सुप्रीम कोर्ट के बड़े वकील हैं और अपने एक मुकद्मे की नजीर देते हुए उन्होंने बताया कि ‘खेल भले ही राज्यों के अधिकार क्षेत्र में हों, लेकिन चूंकि यह मसला इंटरनेशनल स्तर पर खिलाड़ियों की भागीदारी से जुड़ा हुआ है लिहाजा व्यवहारिक तौर पर केंन्द्र सरकार भी इसमें पूरा दखल रखती है.’
यह बात भी उन मंत्री महोदय ने पत्रकारों से मुखातिब होते हुए ही कही, लेकिन इशारा इस बार भी राठौड़ के लिए ही था.
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