भारत-ऑस्ट्रेलिया के बीच टेस्ट सीरीज का अंत आते आते चेतेश्वर पुजारा नए हीरो की तरह उभर आए हैं. दो टेस्ट मैचों में जीत में उनके शतकों का योगदान बहुत बड़ा था और चौथे मैच में उनके बड़े शतक ने भारत को ऑस्ट्रेलिया में सीरीज जीतने के क़रीब पहुंचा दिया. विराट कोहली अगर बड़े स्कोर न बना पा रहे हों तब भारतीय बल्लेबाजी के ढह जाने का खतरा होता है लेकिन पुजारा की बल्लेबाजी ने यह खतरा टाल दिया. अचानक सब लोग पुजारा और उनकी शैली के मुरीद होते दिख रहे हैं.
पुजारा उस किस्म के खिलाड़ी नहीं हैं जो हीरो बनते हैं. उनके व्यक्तित्व में या बल्लेबाजी की शैली में ऐसा कुछ नहीं है जो ग्लैमरस हो. उनके पूरे अंदाज में इतनी सादगी है कि आजकल के रंगीन, चमक-दमक वाले दौर में उनका हीरो हो जाना नामुमकिन सा लगता है. जब अपने यहां राहुल द्रविड़ और वीवीएस लक्ष्मण जैसे स्टाइलिश, लयदार बल्लेबाज हीरो नहीं बन पाए तो उनके मुकाबले पुजारा तो बहुत ज्यादा सादे हैं. फिर भी अगर आज उनकी चर्चा हो रही है तो उसकी वजह टीम को उनका बहुमूल्य योगदान है और उन्होंने यह भी साबित किया है कि कम से कम टेस्ट क्रिकेट में उन जैसी बल्लेबाजी की बहुत जरूरत है. इस सीरीज में ऑस्ट्रेलिया और भारत के बीच, कामयाबी और नाकामी के बीच सबसे बड़ा, लगभग एकमात्र फर्क पुजारा हैं. पुजारा को अगर घटा दें तो इस सीरीज में दोनों टीमों के बीच बहुत कम फर्क है, और अगर ऑस्ट्रेलिया के पास भी एक पुजारा होते तो नतीजे कुछ और ही हो सकते थे.
काफी तेज हो गया है टेस्ट क्रिकेट
पुजारा की बल्लेबाजी ने यह एक अच्छी बात रेखांकित की है कि टेस्ट क्रिकेट में अलग अलग किस्म के खिलाड़ियों की जरूरत होती है. गेंदबाजी में हम अक्सर विविधता की बात करते हैं, अगर हमारे पास चार अच्छे ऑफ स्पिनर हों तो हम ऐसा नहीं करते कि टीम में चार ऑफ स्पिनर ही ले लें. तेज गेंदबाज़ों में भी अलग अलग किस्म के गेंदबाज हों तो वह आक्रमण बेहतर माना जाता है. अक्सर बल्लेबाज़ी के मामले में वैसा नहीं सोचा जाता. सीमित ओवरों के क्रिकेट के आ जाने के बाद टेस्ट क्रिकेट भी काफी तेज हो गया है यह अच्छी बात है.
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बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में खास कर पचास, साठ और सत्तर के दशक में टेस्ट क्रिकेट काफी धीमा और नीरस हो गया था, जो अब काफी तेज हो गया है. लॉयड और रिचर्ड्स की वेस्टइंडीज़ टीम और उसके बाद ऑस्ट्रेलिया की टीम ने दो दशकों तक आक्रामक क्रिकेट का कुछ ऐसा प्रतिमान बनाया कि हर टीम अब वैसा ही आक्रामक क्रिकेट खेलना चाहती है. विराट कोहली का अंदाज भी आक्रामक है और वे भी सामने वाली टीम पर हावी हो जाना चाहते हैं. ऐसे में पुजारा जैसे खिलाड़ी को इस टीम में अप्रासंगिक मान लिया गया. पुजारा के खराब फ़ॉर्म ने भी उनकी दावेदारी को डांवाडोल कर दिया. लेकिन पिछली कुछ सीरीज ने पुजारा ने अपनी प्रासंगिकता साबित की है.
टीम को पुजारा की जरूरत
यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि वेस्टइंडीज और ऑस्ट्रेलिया के जिन बल्लेबाज़ों ने आक्रामक बल्लेबाज़ी के कीर्तिमान बनाए थे वे परंपरागत क्रिकेट की भट्टी में तपे हुए थे, इसलिए तकनीकी रूप से बहुत मजबूत खिलाड़ी थे. वीक्स, वॉरेल, वॉलकॉट से लेकर तो लॉयड, ग्रीनिज, हैंस और रिचर्डस तक वेस्टइंडीज के बड़े बल्लेबाजों की तकनीक और रक्षात्मक खेल भी बहुत मजबूत था, वही बात ऑस्ट्रेलिया के बल्लेबाज़ों के बारे में भी कही जा सकती है. यही वजह थी कि गेंदबाजों के लिए अनुकूल विकेटों पर भी वे टीमें कभी ढहती नहीं थीं और उनके खिलाड़ी सारी दुनिया में किसी भी परिस्थिति में रन बना सकते थे. यह बात आज के कुछेक को छोड़कर ज़्यादातर आक्रामक बल्लेबाज़ों के बारे में कहना मुश्किल है जो प्रतिकूल परिस्थितियों में नहीं टिक पाते.
ये बल्लेबाज बल्लेबाजी के लिए अनुकूल विकेटों पर, सीमित ओवरों का क्रिकेट खेलते हुए आगे आए हैं. ढेर सारे सुरक्षा के इंतज़ाम भी तकनीक बेहतर न होने की एक वजह है. इन सब कारणों की वजह से टीम को पुजारा जैसे बल्लेबाज की ज्यादा जरूरत होती है जो एक छोर पर मज़बूती से डटा रहे. दूसरे बल्लेबाज अपना स्वाभाविक आक्रामक खेल ज्यादा खुल कर खेल सकते हैं, अगर दूसरे छोर पर कोई बल्लेबाज दीवार बन कर अड़ा रहे. टेस्ट मैच पूरे पाँच दिन का होता है और इसमें समय बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, इसलिए ऐसे बल्लेबाज़ों का होना भी ज़रूरी है जो पिच पर रन बनाने के अलावा कुछ समय भी बिता सके. बल्कि भारतीय टीम प्रबंधन को अजिंक्य राहणे को भी यह आत्मविश्वास देना चाहिए कि वे परंपरागत नंबर पांच बल्लेबाज की तरह खेलें, उन्हें तेज खेलने की दुविधा में बाहर जाती हुई गेंदों पर बल्ला चलाने की जरूरत नहीं है.
अगर चेतेश्वर पुजारा कुछ और वक्त तक इस भूमिका में कामयाब हुए तो दुनिया की बाक़ी टीमें भी एकाध ऐसे बल्लेबाज की खोज में जुट जाएंगी जो उनकी टीम में यह भूमिका निभा सके. अभी से ऑस्ट्रेलियाई टीम में पुजारा से सीखने की बातें होने लगी है. हो सकता है कि साल दो साल में हम दुनिया की तमाम टीमों में नंबर तीन पर किसी रक्षात्मक पुराने किस्म के खिलाड़ी को देखें. हो सकता है कि नए दौर में कुछ पुराने अंदाज का खेल ही नया फ़ैशन बन जाए , क्या कह सकते हैं.
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