आखिरकार फुटबॉल विश्वकप अपने आखिरी पायदान तक यानी फाइनल मैच तक आ पहुंचा है. ऐसे वक्त सबसे बड़ा मोह भविष्यवाणी करने का होता है. कायदे की बात यह है कि जिस भविष्यवाणी के सबसे ज्यादा सही निकलने की संभावना होती है, वह सिर्फ़ यह है कि दोनों में से एक टीम जीतेगी. इस विश्व कप में जितनी भविष्यवाणियां गलत हुई हैं, कमोबेश उतनी ही हर विश्व कप में होती हैं. वैसे भी खेल की भविष्यवाणी करना एक चकल्लस है और उस बहाने खेल और खिलाड़ियों पर चर्चा का मौका मिल जाता है.
भविष्यवाणी करने के खतरे भी हैं. क्रोएशिया के कप्तान लूका मोद्रिच ने कहा कि अंग्रेज़ों की प्रेस ने उन्हें कम आंका, बार-बार यह कहा कि पिछले दो मैचों के पेनल्टी शूटआउट तक जाने की वजह से क्रोएशियाई की टीम थकी हुई होगी और इसलिए इंग्लैंड के जीतने का पूरा-पूरा मौका है. इंग्लैंड में सचमुच ऐसा माहौल था, जैसे फाइनल में तो बस पहुंच ही गए हैं और अब विश्व कप जीतने के बारे में सोचना है.
कुछ हद तक यह उत्साह स्वाभाविक भी था. 1966 में गैरी लिनेकर और बॉबी चार्लटन की टीम की विश्व कप की जीत के अलावा इंग्लैंड फाइनल तक कभी नहीं पहुंचा था. उसकी दौड़ 1990 में चौथे स्थान तक रही थी. वैसे भी इंग्लैंड के बाहर भी इंग्लैंड के समर्थक बहुत हैं, जो इंग्लिश लीग की वजह से इंग्लैंड से जुड़ाव महसूस करते हैं. वे सब भी इंग्लैंड की जीत चाह रहे थे. खेल में किसी टीम की जीत की चाह रखने का मतलब है कि उसकी जीत की इच्छा रखना और इच्छा करने का मतलब है कि पहले ही मान लेना कि वह टीम जरूर जीतेगी. यही हो रहा था.
फिर भी यहां यह कहना जरूरी है कि ऐसा सिर्फ़ इंग्लैंड के साथ ही हो, ऐसा नहीं है. हर देश का मीडिया और लोग उसी अंदाज में अपनी अपनी टीम के लिए शोर मचा रहे थे जैसे अंग्रेज मीडिया और समर्थक इंग्लैंड के लिए कर रहे थे. यह हर खेल में स्वाभाविक है. जब भारत क्रिकेट की किसी प्रतियोगिता में भाग लेता है तो क्या भारतीय इसी अंदाज में शोर नहीं मचाते? यह हो सकता है कि अंग्रेजी ऐसी भाषा है जो काफी ज्यादा लोग पढ़ समझ लेते हैं, इसलिए इंग्लैंड से उठता शोर क्रोएशियाई खिलाड़ियों को समझ में आ गया. वरना क्वार्टर फ़ाइनल के पहले रूस में और इसके पहले के मैचों में तमाम देशों में जैसा आशावाद का तूफ़ान बरपा था वह कोई कम नहीं था.
अंग्रेज़ों की एक समस्या और है, सारे आधुनिक खेल इंग्लैंड के मैदानों और पब्लिक स्कूलों में बने संवरे हैं. अंग्रेज़ों ने उनकी संस्कृति और पहचान बनाई है. लेकिन अब अंग्रेज़ों को लगता है कि वे पराए हो गए हैं. विंबलडन से ज्यादा प्रतिष्ठित टेनिस टूर्नामेंट कोई नहीं है, लेकिन अंग्रेज़ टेनिस में कहां हैं? लॉर्ड्स में घुसते ही हर क्रिकेट खिलाड़ी या क्रिकेटप्रेमी का सिर झुक जाता है, लेकिन अब क्रिकेट इंग्लैंड से ज्यादा भारतीय उपमहाद्वीप का खेल है. फुटबॉल से अंग्रेज़ों का और भी ख़ास लगाव है, क्योंकि फुटबॉल दुनिया का सबसे लोकप्रिय खेल है और अंग्रेज़ राष्ट्रवाद के लिए फुटबॉल की जीत बहुत ज़ोरदार टॉनिक साबित हो सकती है. ख़ैर, इस बार इस टॉनिक की आधी-अधूरी खुराक ही उन्हें मिल पाई.
फुटबॉल कितना अंग्रेज़ों का खेल है यह तो अलग विषय है, लेकिन यह ज़रूर सोचा जाना चाहिए कि क्या फुटबॉल अब एक यूरोपीय खेल हो गया है. जिस तरह यूरोपीय देशों का जलवा विश्व कप में देखने को मिलता है, उससे क्या यही नहीं लगता? इस बार भी सेमीफ़ाइनल खेलने वाली चारों टीमें यूरोपीय थी. यह सवाल इस धारणा से भी जुड़ा है कि यूरोपीय फुटबॉल रक्षात्मक, तकनीकी और ताक़त का खेल है, वहीं लातिन अमेरिकी फुटबॉल आक्रामक, कलात्मक और लयात्मक होता है.
यह बात इस बार ब्राज़ील की क्वार्टर फ़ाइनल मे हार के बाद भी बार बार कही गई कि एक बार ऐसी हार से लंबे वक्त ब्राज़ील शैली का खेल दशकों तक दब जाता है. इस ब्राज़ील की टीम को 1982 की सॉक्रेटिस की टीम के बाद सबसे ख़ूबसूरत और लयात्मक टीम माना जाता है लेकिन उस टीम के फाइनले में हारने के बाद जैसा बदलाव ब्राज़ील में आया, क्या वैसा ही अब भी होगा, यह सवाल भी पूछा जा रहा है.
यह लगता है कि फुटबॉल अब यूरोपीय खेल बन गया है, लेकिन इसमें बुरा कुछ नहीं है. यूरोप में फुटबॉल के लिए सुव्यस्थित बुनियादी ढांचा है, पैसा है इसलिए फुटबॉल वहां केंद्रित हो गया है. लेकिन यह गलत लगता है कि यूरोपीय फुटबॉल सिर्फ़ तकनीकी और एकरस है. यूरोपीय फुटबॉल बहुत बदला है, विभिन्न देशों और नस्लों के खिलाड़ियों ने यूरोपीय फुटबॉल को अपना खेल बनाया है. उससे बहुत कुछ बदला है. यह फ़र्क़ उन देशों की लीग में भी देखने में आता है.
सारी दुनिया के खिलाड़ी यूरोपीय लीग में खेलते हैं, यह नहीं सोचा जा सकता कि उनके खेल का असर स्थानीय खिलाड़ियों पर नहीं पड़ता होगा. अगर आप की टीम में मेसी या नेमार है तो उनका प्रभाव उनकी टीम के खिलाड़ियों और अन्य जूनियर खिलाड़ियों पर न पड़े यह असंभव है. दुनिया में जितनी आवाजाही तेज हुई है, उससे भी टीमों में विविधता बढ़ी है. अब एक देश की टीम का अर्थ एक नस्ल या संस्कृति के लोगों की टीम नहीं है. यह मिश्रण और मेलजोल खेल के लिए भी अच्छा है और मानव समाज के लिए भी.
इसलिए अंग्रेज़ों को परेशान नहीं होना चाहिए. फुटबॉल अब किसी एक देश का खेल नहीं रहा. उसमें तरह-तरह के रंग शामिल हैं, और अभी उसमें कई रंगतें और शामिल होनी हैं.
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