लड़के तो लड़के हैं. उन्हें सख्ती करने वाले लोग पसंद नहीं आते. उन्हें अनुशासनप्रिय लोग पसंद नहीं आते. वे उन लोगों के साथ काम करना पसंद नहीं करते, जिनकी उपलब्धियां बहुत ज्यादा हों. उनके साथ भी नहीं, जिनकी सख्ती पसंद शख्सियत हो. इसीलिए अनिल कुंबले और ग्रेग चैपल जैसे लोग खिलाड़ियों के बीच कभी मकबूल नहीं हो पाते. इसीलिए रवि शास्त्री जैसे लोग बड़े आराम से फिट हो जाते हैं.
क्रिकेट सलाहकार समिति यानी सीएसी का शास्त्री को कोच बनाने का फैसला समझदारी भरा है. अगर खिलाड़ी एक साथ आ रहे हैं. वे टीम के तौर पर अच्छा कर रहे हैं, तो ऐसा कोच क्यों लाना जो उन्हें कंट्रोल करने की कोशिश करे? जब तक वे मैदान पर अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं, तब तक लड़कों को लड़कों जैसे क्यों नहीं रहने दिया जाए. शास्त्री का अनुभव और उनका स्टाइल ऐसा ही है, जहां टीम मस्ती करेगी.
अनिल कुंबले से श्रेय नहीं छीना जा सकता. भारतीय टीम ने उनके साथ जिस तरह का प्रदर्शन किया, वो कोच के तौर पर उनकी कहानी खुद बयां करता है. एक साल में लगातार पांच सीरीज जीतना एक कोच के तौर पर किसी भी लिहाज से कम नहीं है. लेकिन विराट कोहली की कप्तानी वाली टीम भी इस प्रदर्शन का श्रेय ले सकती है. फुटबॉल में जरूर कोच का कद कप्तान से बहुत बड़ा होता है. लेकिन क्रिकेट में तो ऐसा नहीं होता. कप्तान ही सबसे आगे होता है और मैदान पर सारे अहम फैसले लेता है. टीम की जीत और हार उसके सिर होती है. कोच का रोल ड्रेसिंग रूम में होता है.
ये एक वजह है कि अपनी बात मनवाने की आदत रखने वाले लोग और अहम फैसलों में अपना रोल रखने वाले लोग क्रिकेट कोच के लिए उपयुक्त नहीं होते. अगर कप्तान और कोच ‘स्ट्रॉन्ग पर्सनैलिटी’ वाले लोग हैं, तो विवाद की आशंका और बढ़ जाती है. लगता है कि ऐसा ही कुछ कुंबले और कोहली के बीच हुआ. इसी तरह की बात करीब एक दशक पहले कोच ग्रेग चैपल और भारतीय टीम के खिलाड़ियों में हुई थी. चैपल हर फैसले में अपनी भागीदारी चाहते थे.
कुंबले-कोहली विवाद उतना नहीं बढ़ा, जैसे चैपल-गांगुली विवाद था. लेकिन दो मजबूत शख्सियत के बीच विवाद का मसला वैसा ही है. सवाल यही है कि क्या कोच को अपनी सोच टीम पर लादने की जरूरत है? इसे अलग तरह से कहें तो पूछा जा सकता है कि क्या कोच की सोच होनी चाहिए? क्रिकेट में इसकी जरूरत नहीं है. कप्तान ही टीम के साथ मैदान पर होता है. वही हालात को अच्छी तरह समझ सकता है.
इसके अलावा राष्ट्रीय स्तर पर खेल रहे लोगों, खासतौर पर सीनियर्स को बार-बार कोच की तरफ से बताए जाने की जरूरत नहीं कि उन्हें क्या करना चाहिए. इससे ईगो प्रॉब्लम आएगी ही. अगर बल्लेबाज की तकनीक में समस्या है, जिसकी वजह से वो फेल हो रहा है, तो बैटिंग कोच बीच में आ सकती है. गेंदबाज के लिए हालात ठीक नहीं हैं, तो बॉलिंग कोच अपना काम कर सकता है. फील्डिंग कोच का रोल भी ऐसा ही है. मुख्य कोच का रोल यह है कि वो देखे कि बाकी कोच ठीक काम कर रहे हैं. उनके गेम के साथ छेड़छाड़ करने की इजाजत कोच को नहीं हो सकती.
इसके लिए जरूरी है कि कोच और खिलाड़ियों के बीच बेहतर संबंध हों. आखिर में मामला कंफर्ट लेवल पर आ जाता है. शास्त्री इस मायने में सबसे सही उम्मीदवार थे. सौरव गांगुली, सचिन तेंदुलकर और और वीवीएस लक्ष्मण ने शास्त्री को चुनने से पहले जरूर चैपल के साथ मिले अनुभव को लेकर विचार किया होगा.
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