क्रिकेट में वक्त के साथ बहुत बदलाव आए. बल्ले बदल गए, बल्लेबाजों के सुरक्षा उपकरण बदल गए. इनके आने से बल्लेबाजी की तकनीक काफी बदली, लेकिन गेंदबाजी में बदलाव कम हुए. गेंद कमोबेश वहीं रही, गेंदबाजी का तरीका वही रहा. कुछ वक्त तक नो बॉल मे बैकफुट, फ्रंटफुट नियम बदलते रहे, अब वे भी स्थिर हो गए. गेंदबाजों ने अलबत्ता तरह-तरह की नई गेंदें ईजाद की. उसी एक गेंद को उसी बाइस गज की दूरी से अलग-अलग तरीके से डालने का हुनर पैदा किया और आगे बढ़ाते गए.
क्रिकेट की शुरुआत दो शताब्दियों से भी पहले इंग्लैंड के ग्रामीण अंचलों में हुई और उसका आधुनिक स्वरूप निखरा पूर्व विक्टोरियाई और विक्टोरियाई युग में. इस दौर में क्रिकेट को इंग्लैंड के पब्लिक स्कूलों में जगह मिली, जिनमें अंग्रेज अभिजात्य वर्ग के नौजवानों को भावी प्रशासनिक जिम्मेदारियों के लिए तैयार किया जाता था. इसके पीछे सोच यह थी कि क्रिकेट और फुटबॉल जैसे खेल नौजवानों को नेतृत्व, टीम भावना, खेल भावना और चुनौतियों से जूझने की शिक्षा देने में कारगर हो सकते हैं.
इस बीच क्रिकेट जनता में लोकप्रिय होने लगा और क्रिकेट संगठन और काउंटी क्रिकेट क्लब बनने लगे. इनमें नियमित पैसा भी आने लगा. इसके बाद नियमित प्रतियोगिताओं का तंत्र बन गया. पब्लिक स्कूलों और विश्वविद्यालयों से पढ़े प्रशासकों के साथ यह खेल अंग्रेज उपनिवेशों में पहुंचा. उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट भी शुरू हुआ.
‘जेंटलमैन” बनाम ‘प्लेयर्स‘
जब इंग्लैंड में क्लब, काउंटी और अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट शुरू हुआ तो उन टीमों में पब्लिक स्कूलों के पढ़े अभिजात्य वर्ग के लोगों के साथ समाज के निचले तबकों के प्रतिभाशाली खिलाड़ी भी होते थे. समाज के आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों से आए इन खिलाड़ियों के लिए क्रिकेट एक अच्छा रोजगार भी था. अभिजात्य खिलाड़ी आर्थिक रूप से संपन्न होते थे और वे शौकिया खेलते थे. गरीब तबकों से आए खिलाड़ियों को खेलने के लिए संगठन पैसा देते थे, यानी ये पेशेवर खिलाड़ी होते थे. ये खिलाड़ी क्रिकेट के मौसम में खेलकर कमाई करते थे और जब सर्दियों में खेल बंद हो जाता था तो कोई और रोजगार पकड़ लेते थे. अभिजात्य शौकिया खिलाड़ियों को ‘जेंटलमैन” कहा जाता था और पेशेवर खिलाड़ी ‘प्लेयर्स‘ कहलाते थे. इन दोनों के बीच में स्पष्ट वर्गभेद था.
जेंटलमैन की हैसियत ऊंची होती थी और मजदूर वर्ग से आने वाले प्लेयर्स अपेक्षाकृत कम हैसियत रखते थे. दूसरे विश्व युद्ध तक इंग्लैंड की कप्तानी सिर्फ जेंटलमैन खिलाड़ी को मिल सकती थी. दूसरे विश्वयुद्ध तक अंग्रेज समाज का सामंती ढांचा काफी बदल गया था और उसके बाद लेन हटन पहले ऐसे कप्तान बने, जो प्लेयर थे.
शान के खिलाफ थी तेज गेंदबाजी
बहरहाल अगर हम क्रिकेट के शुरुआती दौर पर नजर डालें तो हम पाते है कि सभी नहीं तो ज्यादातर नामी बल्लेबाज जेंटलमैन होते थे और ज्यादातर गेंदबाज, खास कर तेज गेंदबाज प्लेयर्स होते थे. जाहिर है क्रिकेट में सबसे ज्यादा मेहनत का काम तेज गेंदबाजी है और यह करने के लिए समाज के मजदूर वर्ग के खिलाड़ी ही ज्यादा उपयुक्त पाए गए. भारत में एक लंबे दौर तक तेज गेंदबाज न होने की वजह भी शायद यही थी कि भारत में क्रिकेट मध्यमवर्ग का खेल था और मध्यमवर्ग के लोग तेज गेंदबाजी जैसा मेहनत का काम करना अपनी शान के उपयुक्त नहीं मानते थे. फील्डिंग के प्रति उपेक्षा भाव की भी एक बड़ी वजह शायद यही थी. एक वक्त में बल्लेबाजी या स्पिन गेंदबाजी के कलाकार फिटनेस और फील्डिंग पर मेहनत करना मजदूरी करना मानते थे. यह रवैया लगभग अस्सी के दशक में बदलना शुरु हुआ और अब हम विराट कोहली के दौर में आ पहुंचे हैं, जिनकी फिटनेस के चर्चे होते हैं.
अब तेज गेंदबाजी के प्रति रवैया भी बदला है, लेकिन अब भी आप देखेंगे कि भारत में जिन खिलाड़ियों की चर्चा गरीबी और अभाव से जूझते हुए टॉप पर पहुंचने के लिए होती है, उनमें से ज़्यादातर तेज गेंदबाज हैं, बल्लेबाज या स्पिन गेंदबाज कम ही हैं. ‘इकबाल‘ फिल्म में भी नायक तेज गेंदबाज ही है, यह सिर्फ संयोग नहीं है.
गेंदबाजों के खिलाफ शुरू से रहा है भेदभाव
क्रिकेट में गेंदबाजों के खिलाफ कुछ भेदभाव शुरू से रहा है और सीमित ओवरों के क्रिकेट के बाद यह भेदभाव और ज्यादा बढ़ गया. इसके पहले ही हैल्मेट और अन्य सुरक्षा उपकरणों के आने से बल्लेबाजों का पलड़ा काफी भारी हो गया था. इसी दौर में वेस्टइंडीज के तेज गेंदबाजों से त्रस्त अंग्रेजों ने मुहिम चलाकर बाउंसर वगैहरा पर नियंत्रण लागू करवा दिए थे. सीमित ओवरों के क्रिकेट में ये नियंत्रण और बढ़ गए. यह माना गया कि दर्शक तो चौकों-छक्कों की बरसात देखने आते हैं इसलिए गेंदबाज को और ज्यादा नखदंतविहीन कर दिया गया. गेंद जरा लेग स्टंप से बाहर हुई तो वाइड हो गई. बल्लेबाज के कंधे से ऊपर भी गेंद फेंकना जुर्म हो गया. यह सब कम था कि फ्रीहिट का कायदा आ गया. तरह-तरह के फील्डिंग नियंत्रण आ गए, पॉवर प्ले आ गया. टी20 में तो चौकों-छक्कों के लिए मैदान ही छोटे कर दिए गए.
जरूरी है बल्लेबाजों के लिए वास्तविक चुनौती
गेंदबाज इन सब नियंत्रणों और अत्याचारों से जूझते हुए भी अपने लिए नए-नए औजार ईजाद करते रहे. इसी बीच गेंदबाजों ने यॉर्कर और धीमी गति गेंद का प्रभावी इस्तेमाल सीखा. रिवर्स स्विंग भी इसी दौर की ईजाद है. स्पिनरों ने इस बीच कितनी तरह की नई गेंदें ईजाद की हैं. उसी गेंद और उसी बाईस गज की पट्टी का जितना कल्पनाशील और रचनात्मक इस्तेमाल इन नियंत्रणों से पार पाने के लिए हो सकता है, गेंदबाज करते रहे हैं.
अच्छा यही है कि अब धीरे-धीरे लोगों को यह भी समझ में आ रहा है कि बिना वास्तविक चुनौती के चौकों-छक्कों की बरसात भी नीरस हो जाती है, इसलिए गेंदबाज को भी कुछ प्रोत्साहन मिलना चाहिए. यह सही है कि क्रिकेट बल्लेबाजों के पक्ष में झुका खेल है, लेकिन इसमें जहां तक हो सके बराबरी अगर न हो तो खेल भी मजेदार नहीं रहता. क्रिकेट के वर्ग संघर्ष की बात जरा ज्यादा क्रांतिकारी लग सकती है, लेकिन इसमें सचाई है, काफी हद तक.
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