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संडे स्पेशल: टी20 जैसे छोटे फॉर्मेट आ जाने से क्या खत्म हो रहा है असली क्रिकेट

दर्शकों को रिझाने के लिए क्रिकेट को जितना छोटा किया जाएगा, उतना उसमें से क्रिकेट कम होता जाएगा

Updated On: Apr 22, 2018 03:51 PM IST

Rajendra Dhodapkar

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संडे स्पेशल: टी20 जैसे छोटे फॉर्मेट आ जाने से क्या खत्म हो रहा है असली क्रिकेट

लगभग हर अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी कहता है कि खेल की असली कसौटी तो टेस्ट क्रिकेट ही है. दूसरी ओर कुछ जानकार कहते हैं कि युवा खिलाड़ी अक्सर इसलिए लंबी अवधि का क्रिकेट खेलते हैं ताकि उनका नाम हो जाए. वे आईपीएल या ऐसी टीम में आ जाएं जिनमें पैसा है, ग्लैमर है और भीड़ भी जुटती है. जो असली क्रिकेट कहा जाता है यानी टेस्ट क्रिकेट, उसे देखने के लिए लोग नहीं आते इसलिए संगठन और प्रायोजक भी चाहते हैं कि जैसे-तैसे टेस्ट क्रिकेट निपटाकर सीमित ओवरों वाला क्रिकेट खेला जाए.

यह भी सही है कि असली खेल की परीक्षा तो टेस्ट क्रिकेट में ही होती है, इसलिए आज भी खिलाड़ी को उसके टेस्ट रिकॉर्ड से आंका जाता है. हम बल्लेबाज के टेस्ट शतक और रन, गेंदबाज के टेस्ट विकेट और औसत से ही जांचते हैं. एकदिवसीय आंकड़े उसके बाद आते हैं और टी20 रिकॉर्ड का तो जिक्र भी नहीं होता. डॉन ब्रैडमैन ही नहीं, ब्रायन लारा, रिकी पॉन्टिंग और तेंदुलकर की बल्लेबाजी या शेन वॉर्न और अनिल कुंबले की गेंदबाजी के टेस्ट रिकॉर्ड ही याद किए जाते हैं. एक दिवसीय क्रिकेट के उनके आंकड़े बस चलताऊ ढंग से ही उल्लेखनीय होते हैं.

टेस्ट क्रिकेट ही है असली परीक्षा

टेस्ट क्रिकेट में खिलाड़ी के कौशल और कला की सच्ची परख होती है क्योंकि वहां उसे अपने पूरे कौशल के साथ खेलने पर कोई बंधन नहीं होता. बल्लेबाज की कला की परख इसलिए होती है कि टेस्ट क्रिकेट में गेंदबाज को यह डर नहीं होता कि एकाध चौका या छक्का पड़ गया तो क्या होगा, इसलिए वह आक्रामक गेंदबाजी कर सकता है. सीमित ओवरों में खासकर टी20 में गेंदबाज रक्षात्मक गेंदबाजी करता है क्योंकि एक चौका भी खेल का पलड़ा झुका सकता है. गेंद को अच्छी स्विंग करा सकने वाले गेंदबाज भी गेंद को स्विंग कराने से डरते हैं कि कहीं वाइड न हो जाए या बाहरी किनारा लग कर बाउंड्री पार न हो जाए. टेस्ट में लंबे स्पेल में गेंदबाज लय में गेंदबाजी कर सकता है और अपना जाल बुन सकता है. टी20 में तो एक-एक ओवर के स्पेल भी होते हैं. दूसरी ओर बल्लेबाज पर टेस्ट क्रिकेट में यह दबाव नहीं होता कि हर गेंद पर बल्ला चलाना ही है, वह अपनी इनिंग्स रच सकता है. इसलिए भी अच्छे खिलाड़ियों को खेल का मजा टेस्ट क्रिकेट में ही आता है और सच्चे क्रिकेटप्रेमी भी उसे ही देखना पसंद करते हैं. अगर टेस्ट क्रिकेट के करीब कुछ आता है तो तीन या चार दिन के घरेलू मैच हैं.

दर्शकों को नहीं भा रहा टेस्ट क्रिकेट

समस्या यह है कि टेस्ट मैच देखने वाले दर्शकों की संख्या बहुत कम है और घरेलू मैच देखने वाले उससे भी कम हैं. आर्थिक नजरिए से देखा जाए तो क्रिकेट बोर्ड सीमित ओवरों के खेल से कमाते हैं और उसी में से कुछ पैसे से लंबे दौर के क्रिकेट को चलाते हैं. घरेलू क्रिकेट किसी दौर में सारी दुनिया में मुख्य क्रिकेट होता था क्योंकि अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट तो तब कम ही होता था. आजकल उसका महत्व यह बचा है कि उससे अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट के लिए खिलाड़ी मिल जाते हैं. जो खिलाड़ी अंतरराष्ट्रीय टीम में आ जाते हैं वे घरेलू क्रिकेट खेलते ही नहीं हैं, क्योंकि उनके पास वक्त नहीं होता. महत्वाकांक्षी नौजवानों के लिए भी हर दर्जे का क्रिकेट ऊपर के दर्जे पर जाने की एक सीढ़ी है.

क्रिकेट अकेला खेल है जिसमें उसके ‘असली’ स्वरूप और लोकप्रिय स्वरूपों में इतना फर्क है. हॉकी, फुटबॉल, टेनिस सब खेल हर स्तर पर एक ही जैसे होते हैं. वे उतने ही वक्त के होते हैं और वैसे ही नियमों से खेले जाते हैं. शायद क्रिकेट उस गुजरे जमाने का खेल है जब लोगों के पास दिनों दिन मैच देखने का वक्त होता था. धीरे-धीरे लोगों के पास वैसा वक्त नहीं रहा, न ज़िंदगी की रफ्तार वैसी रही, इसलिए उसकी लोकप्रियता कम होती चली गई. उसे लोकप्रिय बनाने के लिए उसे कम वक्त का और तेज खेल बनाने की कोशिश की गई. पहले साठ ओवर का क्रिकेट आया, फिर पचास और अब कहा जा रहा है कि पचास ओवरों का खेल भी उतना लोकप्रिय नहीं रहा. फिर बीस ओवरों का खेल आया, अब सौ गेंदों वाला स्वरूप लाने की चर्चा है. लेकिन यह कोई इलाज नहीं है. आखिरकार खेल को कहां तक छोटा कर सकते हैं. और अगर हर गेंद पर छक्का मारने का भी इंतजाम कर दें तो दर्शक एक दिन ऊब जाएंगे.

खेल को छोटा करना उसे बचा नहीं सकता

समस्या यह है कि खेल जितना छोटा होता जाएगा, उतना उसमें से क्रिकेट कम होता जाएगा. बीस ओवर वाला क्रिकेट भी खेल कम मनोरंजन ज्यादा है. यानी लंबे दौर के क्रिकेट के लिए दर्शक नहीं हैं और बहुत छोटे दौर के खेल में क्रिकेट नहीं है. यह समस्या तो है और इसका कोई आसान हल नहीं है. आसान इसलिए नहीं है कि अगर क्रिकेट संगठन पैसे की जगह खेल को अपनी प्राथमिकता बनाएं यानी मुनाफा थोड़ा कम करने को तैयार हो जाएं तो हल निकल सकता है. क्योंकि तब वे एक काम तो यह करेंगे ज्यादा समझदारी से कि कैलेंडर बनाएंगे ताकि लोगों की दिलचस्पी बढ़े, घटे नहीं. और भी कई बातें की जा सकती हैं, जिनके बारे में हम आप सोच सकते हैं, लेकिन क्रिकेट चलाने वाले करेंगे नहीं.

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