जब हमने क्रिकेट देखना शुरू किया तब से अब तक खेल बहुत बदल गया है. तब क्रिकेटरों को इतने पैसे नहीं मिलते थे, टेस्ट खिलाड़ियों की रोजीरोटी भी उन नौकरियों से चलती थी, जो उन्हें स्पोर्ट्स कोटा में मिलती थीं. खेलने के पैसे इतने कम होते थे कि अक्सर विदेशी दौरों से लौटने वाले खिलाड़ियों के बाल लंबे बढ़े होते थे क्योंकि दौरे के भत्ते में बाल कटवाना खास कर इंग्लैंड जैसे देश में महंगा पड़ता था. वह दौर था जब मान लिया गया था कि भारत में तेज गेंदबाज होने की कोई संभावना नहीं है और स्पिन गेंदबाजी एक ख़ास भारतीय हुनर की तरह अपनी जगह बना चुकी थी. लेकिन जैसे स्पिन का एक खास भारतीय अंदाज विकसित हुआ था वैसी बल्लेबाजी की कोई भारतीय पहचान नहीं बनी थी. भारत में अच्छे बल्लेबाज थे. कुछ बहुत अच्छे बल्लेबाज थे, लेकिन दुनिया में उनकी कोई अलग और जोरदार पहचान नहीं बनी थी जैसे कि ऑस्ट्रेलियाई बल्लेबाजी का एक अपना अलग अंदाज था. या वेस्टइंडीज की बल्लेबाजी की बिल्कुल अलग छाप थी.
अंग्रेजी क्रिकेट से कुछ ज्यादा ही प्रभावित था भारतीय क्रिकेट
भारतीय बल्लेबाजी का अलग अंदाज रणजीत सिंहजी और उनके भतीजे दलीपसिंह में था. सीके नायडू और मुश्ताक अली की मौलिकता में एक भारतीय पहचान उभरती थी. विजय मर्चेंट के खेल में भारतीय लयात्मकता का अंग्रेजी तकनीक के साथ सुंदर मेल था, लेकिन बाद में यह पहचान कुछ गड्डमड्ड हो गई.
इसकी एक वजह तो यह थी कि भारतीय क्रिकेट अंग्रेजी क्रिकेट से कुछ ज्यादा ही प्रभावित या कि आक्रांत था. दूसरे महायुद्ध के बाद अंग्रेजी क्रिकेट व्यावसायिकता के दबाव में आक्रामकता और स्वच्छंदता को छोड़ कर “ सेफ्टी फर्स्ट ” सिद्धांत पर चल कर उबाऊ हो रहा था. यह तरीका भारतीय स्वभाव के अनुकूल नहीं था, लेकिन भारत में भी खिलाड़ी जाने अनजाने इससे प्रभावित हो रहे थे.
जब भी कोई शंका हो तो आगे बढ़कर खेलो
आज से चालीस पैंतालीस साल पहले तक फॉरवर्ड डिफेंसिव स्ट्रोक खेल का आधार रहा था. कमेंट्रेटर लगभग हर गेंद के बाद कहते थे, उन्होंने आगे बढ़कर गेंद को रोक दिया, बैट और पैड साथ-साथ. उस वक्त कोचिंग की किताबें भी यही लिखती थीं कि जब भी कोई शंका हो तो आगे बढ़कर खेलो.
हमारे शहर जैसे छोटे शहरों में तभी तभी बाकायदा कोचिंग की शुरुआत हुई थी. जो लड़के कोचिंग लेते थे उन्हें दूर से उनके फॉरवर्ड डिफेंसिव स्ट्रोक से पहचाना जाता था. हम जैसे लोग भी अमूमन यही समझते थे कि बल्लेबाजी का मतलब है, गुड लेंग्थ गेंद पर आगे बढ़कर रक्षात्मक स्ट्रोक और अगर गेंद ओवरपिच या शॉर्ट है तो दूसरा कोई शॉट. यानी बल्लेबाजी का दालरोटी शॉट फॉरवर्ड डिफेंसिव स्ट्रोक और बाकी शॉट अचार चटनी की तरह.
संदीप पाटिल को हवा में शॉट न खेलने की नसीहत मिली
यह बुनियादी तौर पर अंग्रेजों की बल्लेबाजी का तरीका था जिसे अपने यहां क्रिकेट का बुनियादी तरीका मान लिया गया था. जाहिर है इससे बल्लेबाजी बहुत सुरक्षात्मक, सुरक्षित और धीमी हो जाती थी और टेस्ट क्रिकेट की लोकप्रियता घटने का बड़ा कारण यह ही था.
भारतीय बल्लेबाजी खास कर मुंबई स्कूल की बल्लेबाजी पर इसका बहुत असर था. इसी का नतीजा था कि “ वेंगसिक्सकर ” कहलाने वाले दिलीप वेंगसरकर को अपनी शैली बदलकर परसेंटेज क्रिकेट खेलना पड़ा और संदीप पाटिल को हवा में शॉट न खेलने की नसीहत दी गई. वह तो गनीमत थी कि सचिन तेंदुलकर के जमाने तक क्रिकेट बदल गया था वरना उन्हें भी नीरस बल्लेबाजी करने को कहा जाता.
नाकाम होने से बचने के लिए खेलते थे सुरक्षात्मक खेल
सीएलआर जेम्स की किताब “ बियांड ए बाउंड्री” में एक लेख पढ़ कर कुछ जानकारी में इजाफा हुआ. “द वेलफेयर स्टेट ऑफ माइंड “ नामक इस लेख में जेम्स अंग्रेज क्रिकेटरों के इस तरीके की आलोचना करते हुए लिखते हैं कि तीस के दशक में अंग्रेज खिलाड़ियों ने इस तरीके को अख्तियार किया. वे इसका दोषी क्रिकेट के व्यावसायीकरण को मानते हैं. उनका कहना था कि उस दौर में खेल,पेशेवर अंग्रेज खिलाड़ियों के लिए नौकरी जैसा था, जिसमें सुरक्षा सबसे बड़ा कारक था. खिलाड़ी किसी भी कीमत पर नाकाम होने से बचना चाहते थे. वे आउट होने या मैच हारने का खतरा उठाने को तैयार नहीं थे. इस वजह से खेल से आनंद, रोमांच और जोखिम गायब हो गया जो कि इसके पहले के बड़े बल्लेबाजों के खेल में था.
पेशेवर कौशल का प्रदर्शन बन गई थी बल्लेबाजी
जेम्स के लेख से पता चलता है कि तीस के दशक के पहले के क्रिकेट का बुनियादी स्ट्रोक फॉरवर्ड डिफेंसिव स्ट्रोक नहीं था. सीबी फ्राई, रणजीतसिंहजी, फ्रैंक वूली, मैकलैरन जैसे तमाम बड़े खिलाड़ियों के खेल का बुनियादी आधार यह था कि या तो बैकफुट पर खेला जाए और अगर फ्रंटफुट पर खेलना है तो गेंद के टिप्पे तक पहुंचकर उसे ड्राइव करना है. यानी बुनियादी तौर पर बल्लेबाजी आक्रामक होनी चाहिए रक्षा तभी की जाए जब आक्रमण करना संभव न हो. जेम्स लिखते हैं कि तीस के दशक में यह रवैया बदला और सुरक्षात्मक खेल का महत्व बढ़ा.
वे इसके राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक कारणों का गहन विश्लेषण करते हैं और यह भी लिखते हैं कि इसका कमोबेश असर ऑस्ट्रेलियाई, भारतीय, पाकिस्तानी, वेस्टइंडियन सभी देशों और संस्कृतियों के बल्लेबाजों पर है. इससे क्रिकेट से आनंद और खेल भावना ख़त्म हो रही है. चाहे उबाऊ तरीके से ही हो, ज्यादा से ज्यादा रन बनाना और जीतने के लिए या हार से बचने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहना इस दौर का लक्षण था. इस दौर में बल्लेबाजी अपने व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति नहीं एक पेशेवर कौशल का प्रदर्शन बन गई.
अतिरक्षात्मक मानसिकता का प्रमाण था सुरक्षात्मक रवैया
इस लेख को पढ़कर मुझे समझ में आया कि जिसे हम खेल की बड़ी शास्त्रीय तकनीक कहते थे वह दरअसल एक सुरक्षात्मक और नौकरीनुमा पेशेवर रवैये का नतीजा थी. जिस फॉरवर्ड डिफेंसिव स्ट्रोक को हम बल्लेबाजी की अंतिम कसौटी मानते थे वह एक अतिरक्षात्मक मानसिकता का प्रमाण था. लेकिन यह सब कुछ वैसे नहीं बदला जैसा जेम्स चाहते थे यानी पेशेवराना रवैये की जगह खेल का आनंद लेने का शौकिया रवैया नहीं आया. बल्कि नीरस होने की वजह से टेस्ट क्रिकेट अलोकप्रिय होने लगा और सीमित ओवरों का खेल अपनी जगह बनाने लगा. इसके साथ ज्यादा व्यावसायीकरण हो गया जिसकी मांग की वजह से खेल तेज और आक्रामक हो गया. अब बल्लेबाज पैर बाहर निकालकर गेंद को रोकने को बल्लेबाजी नहीं मानते. फॉरवर्ड डिफेसिव शॉट गायब तो नहीं हुआ, लेकिन बहुत कम हो गया. खेल भावना इस दौर में और घट गई, लेकिन जमाने की गति का क्या कीजिए?
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