अन्य खेलों के बरक्स टीवी पर क्रिकेट देखने में एक बडी दिक्कत यह है कि इसमें हर ओवर के बाद दो चार विज्ञापन आते हैं. इसका अर्थ यह है कि अगर आप दिन भर का खेल टीवी पर देखते हैं तो वे ही पाँच छह विज्ञापन आप करीब सौ बार या ज्यादा देख चुकते हैं. यह ऐसा ही है कि कोई हर बार आप को वही बात सौ बार बताए या वही चुटकुला हर दो मिनट बाद सौ बार सुनाए. पहली बार कोई चुटकुला सुनाए तो आप हँस देंगे, दूसरी बार सुनाए तो मुरव्वत में हंसेंगे लेकिन अगर फिर फिर वही चुटकुला सौ बार सुनाए तो आप की क्या प्रतिक्रिया होगी? वह भी तब जब आप यह इंतजार कर रहे हैं कि मैच में आगे क्या होगा. कोई विकेट गिरती है तो आपकी दिलचस्पी यह जानने में होती है कि विकेट कैसे गिरी, उसकी प्रतिक्रिया दूसरे खिलाड़ियों में कैसे हुई लेकिन विकेट गिरते ही अचानक विज्ञापन शुरु हो जाते हैं.
क्या कभी विज्ञापन एजेंसियों ने इस बात पर विचार किया है कि लगातार सौ बार विज्ञापन दिखाने पर देखने वालों में क्या प्रतिक्रिया होती है. कई बार मेरे दिमाग में तो यही विचार आता है कि चाहे जो हो जाए, यह प्रोडक्ट तो मैं कभी नहीं खरीदूंगा. यह संभव है कि और लोगों के मन में भी ऐसे ही विचार आते हों. आखिरकार एक ही बात कोई बार बार कहे तो उससे खीज होना स्वाभाविक है. लेकिन विज्ञापन बनाने और प्रसारित करने वाले इसी धारणा पर काम करते रहते हैं कि जितनी बार मौका मिलता है उतनी बार विज्ञापन दिखाते रहो. इस परिस्थिति से निपटने के लिए मैंने एक तरीका अपनाया है जो कुछ हद तक कारगर है. मैं साथ ही साथ टीवी पर कोई ऐसा कार्यक्रम लगा रखता हूँ जिसे लगातार देखना जरूरी न हो, मसलन 'डेंजरस खिलाडी' या 'डॉन नंबर वन' जैसी फिल्म लगा देता हूँ. जैसे ही विज्ञापन आने लगते हैं, मैं वह फ़िल्म लगा देता हूं. मेरे अंदाज से जब विज्ञापन खत्म होकर खेल शुरू होता है तो फिर खेल देखने लगता हूं. इसमें एक ही समस्या है कि अक्सर मेरी टाइमिंग गलत हो जाती है , इस चक्कर में एकाध विज्ञापन देखना पड़ जाता है या कभी एकाध गेंद चूक जाती है.
क्रिकेट में विज्ञापन को लेकर फिर सोचना जरूरी
क्रिकेट में विज्ञापन दिखाने को लेकर फिर से सोचने की जरूरत है. टेनिस और फुटबॉल में भी पैसा कम नहीं है फिर जब उनका कामकाज बिना हर दो मिनट पर विज्ञापन दिखाने से चल जाता है तो क्रिकेट का क्यों नहीं चल सकता. हो सकता है कि विज्ञापन कम बार दिखाने से उनका प्रभाव और बढ़ जाए, कम से कम विज्ञापन देने वालों के प्रोडक्ट के प्रति चिढ़ और खीज तो नहीं ही होगी. व्यावसायीकरण हर खेल का हुआ है लेकिन क्रिकेट का व्यावसायीकरण बहुत फूहड़ ढंग से हुआ है. शायद इसकी वजह यह है कि क्रिकेट में भारी पैसा अभी अभी आया है और उसका स्रोत भी भारत जैसे देश में है.
इसलिए उसके व्यवसाय में नौदौलतिया लोगों वाला फूहड़पन है. बीसीसीआई जैसे संगठन पर पिछले दो ढाई दशकों से पैसे की बरसात हो रही है और वह और ज्यादा पैसे के लोभ में होश खो बैठा है. और किसी खेल संगठन के अधिकारी इस तरह पैसा अपने ऊपर नहीं लुटा सकते जैसे बीसीसीआई के अधिकारी लुटाते हैं. ललित मोदी बीसीसीआई के पैसे पर कैसे ऐश कर रहे थे यह तो उस दौर में चर्चा में आया ही था, लेकिन अब भी बीसीसीआई के अधिकारी जितना पैसा अपने किसी दौरे में दैनिक भत्ते के रूप में लेते हैं वह किसी अच्छे भले आदमी की महीने की तनख़्वाह हो सकती है.
प्रसारण कंपनी का खेल पर नहीं होना चाहिए असर
व्यवसायीकरण का दूसरा बुरा रूप यह है कि टीवी प्रसारण करने वाले खेल और चयन प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने की कोशिश करें. जैसे टीवी प्रसारण करने वाली कंपनी ने एशिया कप में विराट कोहली के न होने पर आपत्ति दर्ज की वह बहुत गंभीर मामला है. कौन खिलाड़ी टीम में होगा या नहीं होगी यह तय करने का हक या इस प्रक्रिया के बारे में कुछ कहने का हक भी प्रसारणकर्ता को कैसे दिया जा सकता है. इस मामले में प्रसारणकर्ता के कुछ कहने के दुस्साहस को भी गंभीर मामला माना जाना चाहिए जब ऐसा हुआ नहीं है. व्यवसाय भी खेल का जरूरी हिस्सा है लेकिन खेल और व्यापार के बीच एक लक्ष्मण रेखा तो खींची जानी चाहिए. व्यावसायिक दबावों की वजह से खिलाड़ियों के अनफ़िट होते हुए खेलने के उदाहरण आईपीएल में तो देखने में आए ही हैं. कई खिलाड़ी चोटिल हो कर आईपीएल में खेलते रहे और उसके बाद महीनों तक अपने देश की टीम में खेलने लायक नहीं बचे.
खेल के कैलेंडर पर भी व्यवसायिकता का दबाव देखने में आता ही है. भारतीय टीम सबसे ज्यादा सीमित ओवरों के मैच खेलने वाली टीम है ही इसलिए ताकि प्रसारणकर्ताओं को अपने निवेश पर मोटा मुनाफा हो सके. इससे खेल और खिलाड़ियों पर कितना बुरा असर होता है, इसकी परवाह न प्रसारणकर्ताओं को है न बीसीसीआई को.
बीसीसीआई की जिद का टीम पर हो रहा है असर
पिछले साल भारतीय टीम के दक्षिण अफ्रीका के दौरे का बडा शोर था लेकिन बीसीसीआई ने इस दौरे में प्रस्तावित पांच टेस्ट मैचों की जगह चार टेस्ट मैच करवा दिए और टेस्ट मैच के पहले अभ्यास मैचों के लिए भी समय नहीं छोड़ा. नतीजा यह हुआ कि पहले दो टेस्ट मैचों में भारत बुरी तरह हार गया. दक्षिण अफ्रीका के दौरे में जो कतरब्योंत की गई उस वक्त में श्रीलंका के खिलाफ बेवजह के घरेलू सीमित ओवरों के मैच रख दिए गए जबकि भारतीय टीम ठीक इसके पहले ही श्रीलंका से लौटी थी.
यह सब करने की वजह यह बताई जा रही थी कि घरेलू मैचों के प्रसारण के अधिकार एक चैनल के पास थे और विदेशी दौरों के प्रसारण के अधिकार किसी दूसरे चैनल के पास. घरेलू मैचों का प्रसारण करने वाले चैनल के दबाव में दक्षिण अफ्रीका का दौरा संक्षिप्त करके श्रीलंका वाले मैच रखे गए थे. हो सकता है कि वक्त के साथ बीसीसीआई और उसके व्यावसायिक सहयोगियों में थोड़ी समझ आए और वे इस कदर व्यावसायीकरण से खेल को बचाएं. या हो सकता है कि यह मुझ जैसे पुराने जमाने के क्रिकेटप्रेमी की ही शिकायत हो, ज्यादातर लोगों को इससे कोई दिक्कत न हो. ऐसे में जो है, जैसा है उसी को झेलना होगा.
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