पुरानी यादों का बोझ है या और कुछ, शारजाह , दुबई जैसी जगहों पर होने वाले क्रिकेट को मैं गंभीरता से नहीं ले पाता. बीस बाईस साल पहले वहाँ क्रिकेट के नाम पर जैसा तमाशा होता था, यहाँ से फिल्मी सितारों को मैच देखने के लिए ले जाया जाता था, टीवी का कैमरा बार-बार शान से बैठे दाऊद इब्राहिम पर केंद्रित होता था और सब से ऊपर सट्टेबाजी, मैच फिक्सिंग. इन्हीं सब वजहों से वहाँ क्रिकेट बंद हुआ. अगर पाकिस्तान में अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट बंद न होता और पाकिस्तान का घरेलू मैदान दुबई को न बनाया जाता तो शायद ऐसा ही चलता रहता. शारजाह में तो खैर अब भी मैच नहीं होते.
एशिया कप को भी इसीलिए गंभीरता से लेना जरा मुश्किल हो रहा है. फिर जबकि अब विश्व क्रिकेट का केंद्र भारतीय उपमहाद्वीप हो गया है और क्रिकेट में पैसा भी यहीं से आ रहा है इसलिए एशिया कप की प्रतिष्ठा कुछ फुटबॉल के यूरो कप जैसी तो हो ही सकती है. फुटबॉल में यूरो कप जीतना विश्व कप जीतने से भी ज्यादा कठिन माना जाता है. अगर एशिया कप की ऐसी प्रतिष्ठा नहीं है तो इसके पीछे कुछ आयोजकों की लापरवाही तो है ही, उन्हें मालूम है कि एशिया में सीमित ओवरों का कोई टूर्नामेंट करवा दें और उसमें भारत भी हो तो तिजोरी में पैसा तो आता ही रहेगा. दूसरी बड़ी समस्या जो देखने में आ रही है वह एशियाई टीमों का स्तर है.
श्रीलंका और पाकिस्तान का गिरता स्तर
भारत की टीम बेशक दुनिया की सर्वश्रेष्ठ टीमों में से है लेकिन एशियाई क्रिकेट के दो बड़े स्तंभ पाकिस्तान और श्रीलंका लगातार उतार पर हैं. बांग्लादेश की टीम सचमुच तरक्की कर रही है और कम से कम सीमित ओवरों के क्रिकेट में वह किसी भी टीम को टक्कर दे सकती है यह साबित हो चुका है. अफगानिस्तान असाधारण तेजी से आगे बढ़ रहा है लेकिन ये टीमें भी ऐसी नहीं हैं कि भारत से उनका मुकाबला कोई बड़ी सनसनी पैदा करे. भारत और पाकिस्तान की परंपरागत दुश्मनी भी राजनैतिक या सांप्रदायिक वजहों से भले ही कुछ सनसनी पैदा करे लेकिन उसमें सचमुच की प्रतिस्पर्धा नहीं बची है. हो सकता है पाकिस्तान एकाध मैच में भारत को हरा दे जैसा पिछले साल एशिया कप में हुआ था लेकिन दोनों टीमों में सचमुच मुकाबला नहीं है.
पाकिस्तान की टीम इमरान खान के दौर के बाद लगातार उतार पर है और इस पतन के थमने के कोई आसार नहीं दिखते यह क्रिकेट के लिए अच्छी खबर नहीं है. पाकिस्तान की टीम विश्व क्रिकेट की सबसे रोमांचक टीमों में से रही है और उसमें हर वक्त कुछ बिल्कुल अपनी तरह की मौलिक प्रतिभाएँ रही हैं. क्रिकेट में पाकिस्तानियों ने रिवर्स स्वीप, रिवर्स स्विंग और दूसरा जैसी कई नई चीजें ईजाद की हैं. माजिद खान, जहीर अब्बास से लेकर तो यूनुस खान जैसे बल्लेबाज और इमरान खान, वसीम अकरम, वकार युनूस जैसे बल्लेबाज तो हमारे सामने के हैं.
पाकिस्तानी क्रिकेट इस बात की मिसाल है कि सिर्फ प्रतिभाओं के दम पर आप हमेशा नहीं चल सकते, हर वक्त सफल होने के लिए एक सुव्यवस्थित तंत्र का होना ज़रूरी है. पाकिस्तानी क्रिकेट में प्रतिभाशाली खिलाड़ियों को निखारने और उन्हें टीम का स्थायी हिस्सा बनाने वाला तंत्र नहीं है. इस वजह से होता यह है कि पाकिस्तान में नया खिलाड़ी आता है, हम उसे पहचानना शुरु करें उसके पहले वह कहीं गायब हो जाता है. पाकिस्तान की आज की टीम में ऐसा कौन खिलाड़ी है जिसे हम सितारा खिलाड़ी कह सकें , बल्कि अच्छे खासे क्रिकेट प्रेमी भी कितने मौजूदा पाकिस्तानी खिलाड़ियों के नाम जानते हैं ?
श्रीलंका में नहीं मिल रहा दिग्गजों का विकल्प
दूसरी टीम जो लगातार ढलान पर है वह श्रीलंका है. श्रीलंका में तो ऐसा लगता है कि खिलाड़ियों का अकाल पड़ गया है. कुमार संगकारा, महेला जयवर्धने और तिलकरत्ने दिलशान के बाद कौनसा ऐसा श्रीलंकाई खिलाड़ी है जिसे देखने के लिए आप रुक जाएँ. रंगना हेरात के बाद कौनसा ऐसा गेंदबाज है जिसकी गेंदबाजी देखने में मजा आए. पाकिस्तान और श्रीलंका की एक बड़ी समस्या यह भी दिख रही है कि उसके खिलाडी आधुनिक पेशेवर खिलाड़ी भी नहीं लगते. उनकी फिटनेस और फील्डिंग क्लब क्रिकेट के स्तर की है. ऐसे तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर क्रिकेट नहीं खेला जा सकता.
विश्व क्रिकेट में यह समस्या पहली बार इक्कीसवीं सदी में आई है कि कई टीमें इतनी तेजी से फिसल रही हैं. बीसवीं सदी शुरु होने के पहले इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका तीन टीमें टेस्ट खेलती थीं. 1928 में न्यूज़ीलैंड और वेस्टइंडीज को टेस्ट दर्जा मिला, कुछ साल बाद भारत को. भारत के विभाजन के साथ पाकिस्तान की टीम बनी. फिर श्रीलंका अस्सी के दशक में आई. रंगभेद खत्म होने पर दक्षिण अफ्रीका और जिंबाब्वे की टीमें आई. फिर बांग्लादेश का अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में आगमन हुआ.
अगर जिंबाब्वे को छोड़ दें तो सारी टीमें बीसवीं सदी में आगे ही बढ़ती रहीं. लेकिन इक्कीसवीं सदी में वेस्टइंडीज की टीम का पतन हुआ और अब श्रीलंका और पाकिस्तान उस राह पर हैं.
इन तीन टीमों के बिना अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट अधूरा है और ऐसा नहीं लगता कि इन देशों के क्रिकेट प्रशासक अपने क्रिकेट को उबारने में सक्षम हैं. जरूरी यह है कि अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट समुदाय मदद के लिए हाथ बढ़ाए. अगर इन देशों के युवा प्रतिभाशाली खिलाड़ियों को ऐसे देशों में प्रशिक्षित किया जाए जहाँ व्यवस्थित घरेलू क्रिकेट का तंत्र है तो शायद इन देशों का क्रिकेट सुधर सके. एक जमाना था जब वेस्टइंडीज और पाकिस्तान के तमाम खिलाड़ी इंग्लैंड में लीग और काउंटी क्रिकेट खेलते थे और उन देशों के बडे खिलाड़ी भी इस तंत्र से आते थे. ऐसे कई तरीके सोचे जा सकते हैं. इन देशों में क्रिकेट का पतन सिर्फ इन देशों की समस्या नहीं है, यह अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट का नुकसान है और इसे ठीक करने के लिए सबको कोशिश करनी चाहिए.
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