क्रिकेट में महात्मा गांधी का क्या कुछ काम है? या फिर नेल्सन मंडेला और मदर टेरेसा का? आपका जवाब होगा कि नहीं. लेकिन इस वक्त ये लोग क्रिकेट से जुड़ रहे हैं. वो भी किसी अलग अंदाज में. आखिर कैसे इन लोगों का जुड़ाव किसी क्रिकेट सीरीज से हो सकता है?
दरअसल, टीम इंडिया इस वक्त दक्षिण अफ्रीका में है. केपटाउन में पहले टेस्ट की तैयारी हो रही है. इस बीच टीवी चैनल भी अपनी तैयारी में लगे हुए हैं. उनके लिए भी सीरीज अहम है. प्रोमो तैयार हैं. भारत की तरफ से सोनी टेन का. दूसरी तरफ क्रिकेट साउथ अफ्रीका की तरफ से भी एक प्रोमो बनाया गया है. दोनों प्रोमो एक साथ देखिए. झटका लगेगा.
भारतीय खेल चैनलों ने अब तय कर लिया है कि कोई भी सीरीज हो, उसमें खून-खराबा, बदला, कुचल देंगे जैसा अंदाज होना जरूरी है. साउथ अफ्रीका के खिलाफ सीरीज भी इससे अलग नहीं है. प्रोमो शुरू होता है अखबार के एक बंडल से, जिसकी हेडलाइन बता रही है कि अफ्रीका ने भारत को हरा दिया है. जाहिर है, भारतीय की मूंछें कट जाती हैं. टीवी सेट बंद हो जाते हैं. इसके बाद नजारा बदलता है और विराट की टीम दिखती है. आग नजर आती है. फिर प्रोमो की कैच लाइन कि हिसाब 25 साल का...
दक्षिण अफ्रीकी टीम ने 26 साल पहले ही रंगभेद की बेड़ियां तोड़कर क्रिकेट में वापसी की थी. उसके अगले साल भारतीय टीम दक्षिण अफ्रीका गई थी. जाहिर है, हारकर आई थी. शायद इसी को बदले के तौर पर बेचने की तैयारी ब्रॉडकास्टर ने की है.
अब जरा दूसरे प्रोमो को देखिए. महात्मा गांधी आते दिखाई देते हैं. आजादी का संघर्ष दिखता है. फिर नेल्सन मंडेला नजर आते हैं. अगले फ्रेम में क्लाइव राइस और उसके बाद उनसे हाथ मिलातीं मदर टेरेसा. कोलकाता की तस्वीरें, जहां दक्षिण अफ्रीकी टीम भारत में अपना पहला मैच खेली थी. बात 1991 की सीरीज की ही है. इसमें दर्शकों की तरफ देखकर नमस्ते करते क्लाइव राइस और पूरी टीम भी नजर आती है. साथ में स्टैंड से एक बैनर, जिस पर लिखा है- साउथ अफ्रीका सेज.. थैंक्यू.
इन तस्वीरों और क्रिकेट के एक्शन के बाद एक पंक्ति लिखी दिखती है. अ शेयर्ड हिस्ट्री ऑफ फ्रीडम थ्रू नॉन वायलेंस एंड अ लव ऑफ क्रिकेट. यानी अहिंसा के साथ आजादी का साझा इतिहास और क्रिकेट से प्यार. फिर सीरीज का नाम आता है- फ्रीडम सीरीज.
इन दो प्रोमो का फर्क बहुत कुछ कह जाता है. शायद ही पिछले कुछ समय में भारतीय ब्रॉडकास्टर ने बदले के अलावा क्रिकेट को किसी और नजरिए से देखने की कोशिश की. याद होगा मौका-मौका वाला प्रोमो, जो खासा चर्चित रहा था. उसमें विपक्षी टीम की खिल्ली उड़ाई जाती है. उनसे बदला लेने की बात की जाती है. उन्हें कुचल देने का अंदाज होता है.
क्या वाकई क्रिकेट वो जगह है, जहां विपक्षी टीम को कुचल डालने के अलावा कुछ नहीं सोचा जा सकता? खेल चैनलों से जुड़े लोग कंधे उचकाकर जवाब देंगे कि लोग यही देखना चाहते हैं. एक और सवाल उभरता है- क्रिकेट को बहुत दशकों से देश का सबसे लोकप्रिय खेल है. पहले तो इस तरह के प्रोमो नहीं होते थे. आखिर अब क्यों होते हैं?
इस तरह के सवाल लोग न्यूज चैनलों को लेकर भी पूछते हैं, जहां न्यूज रूम वॉर रूम में तब्दील हो चुके हैं. रात नौ बजे किसी भी चैनल पर आपको हिंदुस्तान और पाकिस्तन की जंग होती नजर आएगी. अगर किसी रोज पाकिस्तान को बख्श दिया गया, तो जो भी निशाने पर होगा, उसके कुचलने का अंदाज दिखाई देगा.
यह सवाल अपने आपसे पूछने का कभी तो मन होता होगा कि क्या वाकई हम इतने हिंसक हो गए हैं? क्या हमें अब बगैर हिंसा के कुछ भी दिखाया जाए, तो हम उसे खारिज कर देते हैं? आखिर एंटरटेनमेंट चैनलों से लेकर खेल चैनलों और न्यूज चैनलों का दावा तो यही है. वो आपके सामने टीआरपी रेटिंग रख देंगे कि देखिए, आक्रामक प्रोग्राम या प्रोमो किस हद तक चला. लेकिन आप जरूर इन दोनों प्रोमो को देखिएगा. खुद तय कीजिएगा कि आप कैसा होना चाहते हैं. और खेल को भी कैसा रखना चाहते हैं. आप खेल को प्यार के लिए देखते हैं या बदले और हिंसा के लिए!
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