हमारे इर्दगिर्द की दुनिया बुरी है, तो फिर विराट कोहली ही अच्छे लड़के क्यों बने? वो क्यों इस बदलती टीम इंडिया का चेहरा नहीं बन सकते, क्यों वो सामने वाले को उसे बेहतर ढंग से जवाब नहीं दे सकते. फील्ड पर भला वो किसी भी चीज में पीछे क्यों रहे. उन्हें अपने बल्ले की कवर ड्राइव के साथ-साथ मुंह से बोलने की भी आजादी दी जानी चाहिए. कोहली को जेंटलमेंस गेम का वास्ता देकर उनके एग्रेशन को कंट्रोल या खत्म करने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए. क्योंकि यह गेम जेंटलमेंस गेम नहीं रहा है और इसके साथ हमेशा से ही अग्रेशन जुड़ा रहा है.
लोगों को लगता है कि क्रिकेट उसी दौर का जेंटलमेंस गेम है जब लॉडर्स के लॉन में कलफ लगे कॉलरों की शर्ट के साथ सूट और हैट पहने पुरुष बैठते थे और शॉट्स की 'वेल प्लेड सर' कहकर भद्रता के साथ तारीफ करते थे. भारतीयों के लिए तो इस ब्रिटिश परंपरा का अंत उसी दिन हो गया था जब सौरव गांगुली ने लॉडर्स ने अपनी शर्ट उतार कर लहराई थी और खराब लड़के के आने की मुनादी कर दी थी जो हर हाल में जीतना जानता है. भारत के उस दिन नेटवेस्ट ट्रॉफी जीतने के बाद हमने विनम्र कप्तान को तिलांजली दे दी. कोहली उसी प्रक्रिया की उपज हैं उसे बदलने की कोशिश नहीं कीजिए.
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इस हंगामे को समझना मुश्किल है क्योंकि कोहली ने थोड़ी सी स्लेजिंग कर ली है. भारतीय कप्तान मैदान पर हमेशा ये पसंद करते हैं. इस मामले में वह जॉन ग्रीन का अच्छा उदाहरण हैं जो घटिया शख्स कहलाना पसंद करते थे. लेकिन कोहली के बारे में सर्वविदित है कि वह मध्यमा अंगुली (मिडिल फिंगर) दिखाना पसंद करते हैं. वह जब गाली देते हैं तो उनके मुंह से मां-बहन जैसे शब्द निकलते हैं. हालांकि ऐसा नहीं है कि उनके आने से पहले मैदान पर ऐसे शब्द नहीं कहे जाते थे. यहां तक की उनके पूर्ववर्ती के पहले से ये चला आ रहा है.
तो फिर अचानक ये स्यापा क्यों? इसलिए क्योंकि इस बार हारने वाली टीम कोहली की थी? हम तब बेहद खुश होते हैं जब कोहली बल्ले से भी रन बनाते हैं और मुंह से भी और हमें मैच जिताते हैं. जब वह आक्रामक होते हैं और मैच जीतते हैं तो हम उसे पैशन (जुनून) कहते हैं. अगर वह आक्रामक होते हैं और मैच हार जाते हैं तो हम उसे बुरा बर्ताव कहते हैं. फैंस और कमेंट्रेटर के तौर पर हमें ये तय करना होगा कि हम विराट कोहली से क्या चाहते हैं. हम उनकी किसी एक चीज को पसंद और एक से घृणा नहीं कर सकते. भले ही टीम हारे या जीते हैं तो वह वही कोहली. आक्रामक कोहली.
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कुछ साल पहले जब भारतीय टीम ऑस्ट्रेलिया जाती थी तो टूटी नाक के साथ लौटती थी. उनके दिमाग में हार का तिरस्कार कौंध रहा होता था. उसके बाद ऑस्ट्रेलियाई कप्तान स्टीव वॉ मुलायमियत से कहते थे, दिमागी रूप से ढह जाना. उनके टीम के साथी कहते थे कि वो मारधाड़ वाला क्रिकेट खेलने में यकीन रखते हैं, जिसकी वजह से ऑस्ट्रेलियाई टीम को बुरी टीम का तमगा मिला था. लेकिन कोहली के मामले में ऐसा नहीं है. उनका मानना है कि अगर ऑस्ट्रेलियाई ऐसा कर सकते हैं तो हम क्यों नहीं.
खिलाड़ी भी इसकी शिकायत नहीं करते हैं. ऑस्ट्रेलियाई कप्तान टिम पेन ने पर्थ में दूसरे टेस्ट मैच के बाद कहा, ये एक प्रतिस्पर्धी छेड़छाड़ थी. इसे मैदान से आने के बाद भुला दिया जाना चाहिए. कोच जस्टिन लेंगर उनसे एक कदम और आगे निकल गए. उन्होंने इसे मजाकिया बताया. जैसे भारतीय कोच रवि शास्त्री ने खिलाड़ियों के लिए कहा, उन्हें आराम करना है, नेट्स को गोली मारिए. आप बस वहां आओ, अपनी उपस्थिति दर्ज कराओ और फिर होटल लौट जाओ. उनकी बात पर एडीलेड के कमेंट्री बॉक्स में ठहाके लगते रहे.
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ये बात सही है कि आक्रामकता के नाम पर किसी पर दबंगई दिखाने का लाइसेंस नहीं मिल जाता. वास्तव में ये खिलाड़ी के व्यवहार में भी नहीं झलकना चाहिए. आक्रामकता केवल उनके खेल में दिखनी चाहिए. जैसे जिमी कोनर्स, जॉन मैकनरो, डिएगो मैराडोना, जावेद मियांदाद, इयान चैपल और रॉडनी मार्श (और सेरेना विलियम्स जैसी बुरी लड़की) दिखाते थे.
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