जिन्न की कहानी हम सबको पता है. बोतल में एक जिन्न होता है. जब तक वो बंद रहता है, तब तक कोई बात नहीं. लेकिन एक बार खुलने के बाद जिन्न की अपनी मांगें होती हैं. क्या विराट कोहली ने जिन्न खोल दिया है? अगर जिन्न खुल गया है, तो वो कुछ न कुछ तो करेगा ही.
जिन्न है ऑस्ट्रेलियन टीम की स्लेजिंग का. पिछले कुछ समय में ऑस्ट्रेलियन टीम मैदान पर शालीन दिखने की कोशिश कर रही है. फिल ह्यूज की मौत से लेकर दक्षिण अफ्रीका में बॉल टेंपरिंग तक क्रिकेट ऑस्ट्रेलिया में काफी कुछ हुआ है. ह्यूज की मौत के बाद तमाम ऑस्ट्रेलियन खिलाड़ियों का मानवीय रूप दिखा था. इसने ‘बैड बॉय’ वाली इमेज से अलग कुछ दुनिया को दिखा था.
दक्षिण अफ्रीका में हुए हादसे के बाद बदलाव की कोशिश
उसके बाद दक्षिण अफ्रीका में बैड बॉय वाली इमेज फिर दिखी. फिर बॉल टेंपरिंग का मामला आया, जिसके बाद पूरी टीम तितर-बितर हो गई. डेविड वॉर्नर और स्टीव स्मिथ पर बैन लगा, जिसको वो अब तक झेल रहे हैं. इसके बाद क्रिकेट ऑस्ट्रेलिया ने तय किया कि अब इमेज को बदला जाएगा. उसी का नतीजा रहा कि ऑस्ट्रेलिया ने स्लेजिंग यानी छींटाकशी से बचने की कोशिश की है.
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भारत के खिलाफ सीरीज में भी स्लेजिंग दिख नहीं रही थी. लेकिन इसे विराट कोहली ने खोल दिया है. जैसा सुनील गावस्कर ने कहा- भारतीय खिलाड़ी संत नहीं हैं. बीसीसीआई कॉन्ट्रैक्ट में रहते हुए अपनी आवाज खो चुके गावस्कर कॉन्ट्रैक्ट से निकलने के बाद वापस धारदार बातें करने लगे हैं. उन्होंने कहा, ‘2014 में फिल ह्यूज की मौत के बाद भी हमने ही स्लेजिंग शुरू की थी. इस हालात में हम हमेशा हारते हैं. ऑस्ट्रेलिया के लिए यही खेलने का तरीका है, हमारे लिए नहीं. इस तरह क्रिकेट खेलना हमारे डीएनए में नहीं है. यहां भी हमने ही पहल की.’
गावस्कर ने जो कहा है, उस पर गौर करने की जरूरत है. उन्होंने कहा कि स्लेजिंग हमारे डीएनए में नहीं है. आप पूरी टीम इंडिया को देखिए. ऐसे ज्यादा खिलाड़ी नहीं मिलेंगे, जिनके लिए स्लेजिंग जिंदगी का एक हिस्सा हो. मुरली विजय, केएल राहुल, चेतेश्वर पुजारा, अजिंक्य रहाणे से लेकर उमेश यादव, शमी और बुमराह तक. स्लेजिंग की चुनौती विराट को प्रेरित करती है. शायद ऋषभ पंत को भी. पंत को तो जूनियर वर्ल्ड कप में स्लेजिंग पर चेतावनी तक मिली है. लेकिन अभी वो ‘बड़ों’ की क्रिकेट में काफी छोटे हैं.
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ऑस्ट्रेलिया को उसी के ‘इलाके’ में चुनौती देना कितनी बुद्धिमानी
ऐसे में, जब ऑस्ट्रेलियन आराम से खेलना चाह रहे हों, तब जबरदस्ती उनके ‘इलाके’ में कूद जाना क्या वाकई बुद्धिमानी है? कम से कम लगता तो नहीं. पिछले तमाम समय में बार-बार यह साबित हुआ है कि विराट कोहली दुनिया के बेहतरीन बल्लेबाजों में हैं. शायद बेहतरीन भी कह सकते हैं. बार-बार यह भी साबित हुआ है कि इस वक्त कप्तानी कर रहे लोगों में विराट सबसे कमजोर लोगों में हैं. शायद अभी के सबसे कमजोर कप्तान भी कह सकते हैं.
विराट वो पिच पढ़ने में नाकाम रहे, जिसमें स्पिनर के लिए मदद थी. यहां तक कि मैच के बाद भी उन्होंने साफ कर दिया कि स्पिनर को खिलाना उनकी स्कीम में ही नहीं था. यानी वो पर्थ की उसी पिच को दिमाग में रखकर आए थे, जो दो दशक पहले हुआ करती थी. दिमाग में छपी पिच की उस तस्वीर को बदलने की उन्होंने कोशिश भी नहीं की. उसके बाद विपक्षी टीम को खेल के उस हिस्से में ले गए, जो उनका पसंदीदा है. ऑस्ट्रेलियन खिलाड़ी किसी भी खेल का हो, बचपन से वो ऐसे ही खेलता है, जिसे वो ‘टफ और हार्ड’ तरीका मानते हैं. उनके लिए जिंदगी जीने का वही तरीका है.
‘टिपिकल दिल्ली वाले’ का तरीका कितना फायदा पहुंचाएगा
कोहली के लिए भी शायद वो तरीका रहा हो. दिल्ली की गलियों में बैटिंग पाने के लिए या तो अपना बैट होना जरूरी है या दादागीरी. उसी तरह के माहौल में वो बड़े हुए हैं. इसमें वो सोच भी शामिल है कि ‘तेरे इलाके में आकर तुझको मारूंगा.’ हालांकि इशांत शर्मा भी दिल्ली के हैं. लेकिन उनमें वो असर नहीं है.
कुल मिलाकर स्लेजिंग का हिस्सा स्वाभाविक तरीके से सिर्फ विराट कोहली की पर्सनैलिटी से जुड़ता है. लेकिन विराट को ध्यान रखना होगा कि वो कप्तान हैं. उन्हें वो नहीं करना, जो उनके लिए मुफीद हो. उन्हें वो करना है, जो टीम को फायदा पहुंचाए. यहां वो एक बार फिर चूक गए हैं. कप्तान के तौर पर लगातार निराश करते विराट ने अपने कामों में एक और जोड़ लिया है. साथ ही, शायद उस जिन्न को भी बोतल से आजाद कर दिया है, जो भारत को परेशानी में डाल सकता है.
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