अनिल कुंबले पहले ऐसे कोच नहीं हैं, जिन्हें इस तरह बाहर जाना पड़ा. वो आखिरी भी नहीं होंगे, बशर्ते बीसीसीआई ऐसा कोई सिस्टम बनाए जिसमें कोच का चयन, उसकी ग्रूमिंग और बदलाव शामिल है. तकनीकी तौर पर यकीनन कुंबले ने पद छोड़ा है. लेकिन इससे यह सच नहीं छुपता कि हालात ऐसे हो गए थे, जहां वो अपने पद पर बने नहीं रह सकते थे.
अगर वो इस्तीफा नहीं देते. उसके बजाय वेस्टइंडीज चले जाते तो क्या हालात और खराब हो सकते थे? इसका जवाब है- हां. संभव है कि वो अगर मीटिंग बुलाते तो टीम उसमें आने से मना कर देती. या नेट्स में उनकी अनदेखी की जाती. या कप्तान कोच को बाहर रखकर टीम मीटिंग करते.
भारतीय क्रिकेट में कुछ भी संभव है. इसलिए कुंबले का हटना सही है. ताज्जुब इस बात पर है कि उन्होंने पहले हटने का फैसला नहीं किया. उस वक्त, जब उनके और कप्तान के बीच मतभेद की बातें मीडिया में लगातार चल रही थीं.
क्या कुंबले को पहले समझ आ गया था कि संकट है?
कुंबले को कुछ महीने पहले ही समझ आ गया होगा कि संकट है. इसलिए इतने बुद्धिमान और सेंसिटिव इंसान का ऑस्ट्रेलिया सीरीज के ठीक बाद और आईपीएल के दौरान इस्तीफा न देने का फैसला हैरत भरा है. इसके बजाय रिश्ते बिगड़ते गए और चैंपियंस ट्रॉफी से पहले टूट की हालत में पहुंच गए. अब हालात ऐसे हुए हैं कि वेस्टइंडीज दौरे से ठीक पहले उन्हें हटना पड़ा है.
अब इस बात का कोई मतलब नहीं बचता कि उन्हें या कप्तान विराट कोहली को दोषी करार दिया जाए. इस तरह के विवाद भारतीय क्रिकेट में लंबे समय से रहे हैं. ऐसी पूरी लिस्ट है, जहां कोच को हटना पड़ा है. इसमें कपिल देव, बिशन सिंह बेदी, अजित वाडेकर, अंशुमन गायकवाड, मदन लाल, चेतन चौहान, अशोक मांकड, रवि शास्त्री, संदीप पाटिल, कुंबले सब शामिल हैं. इनके अलावा कुछ विदेशी भी हैं. ग्रेग चैपल और डंकन फ्लेचर का नाम तुरंत दिमाग में आ जाएगा.
कुंबले के अलावा क्रिकेट सलाहकार समिति में शामिल सौरव गांगुली, सचिन तेंदुलकर और वीवीएस लक्ष्मण अपने खेल दिनों में कई दिग्गजों के इसी तरह हटने की कहानियां जानते होंगे. वे ये भी जानते होंगे कि कोच और खिलाड़ियों मे जब भी विवाद होता है, लगभग हर बार कोच को ही जाना पड़ता है. होना भी ऐसा ही चाहिए.
क्रिकेट में कोच नहीं होता बॉस
क्रिकेट का खेल फुटबॉल, हॉकी या बास्केटबॉल की तरह नहीं है, जहां कोच सुप्रीमो होता है. क्रिकेट में कप्तान मैदान पर और मैदान के बाहर बॉस होता है. कोच को मैन मैनेजमेंट और कप्तान से अपनी बात मनवा लेने का माहिर होना चाहिए. उसे ये साबित करना होगा कि वो और कप्तान एक जैसा सोचते हैं. इसी तरह टीम भावना बरकरार रहेगी और टीम को आगे ले जाया जा सकेगा.
टीम भावना और कुंबले-कोहली के बीच आपसी समझबूझ की कमी भी भारत को घरेलू सीरीज जीतने से नहीं रोक सकी. लेकिन ये भी सच है कि लगातार मिल रही जीत भी दरारों को पाटने में कामयाब नहीं हुई. सीएसी के पास इससे निपटने का पूरा समय था.
क्या एक अच्छा क्रिकेटर हमेशा अच्छा कोच बन पाएगा?
हर कोई मानेगा कि खेलना और कोचिंग या प्रशासनिक काम या कमेंटरी करना या अंपायरिंग करना बिल्कुल अलग स्किल है. एक महान खिलाड़ी बड़ा कोच हो या बड़ा कोच महान खिलाड़ी रहा हो, ऐसा जरूरी नहीं है.
उदाहरण के तौर पर रमाकांच आचरेकर को महान कोच माना जाता है. उनके शिष्यों में सचिन तेंदुलकर, विनोद कांबली, प्रवीण आमरे जैसे लोग रहे हैं. लेकिन उन्होंने बड़े स्तर पर क्रिकेट नहीं खेला. वो बंबई (अब मुंबई) के लिए भी नहीं खेले. लेकिन कौन नहीं मानेगा कि वो बेहतरीन कोच थे. उनमें टैलेंट का पता लगाने और उसे बेहतर करने की अद्भुत क्षमता थी.
यकीनन, एक भारत जैसे देश में इंटरनेशनल टीम का कोच होना आसान नहीं. एक खिलाड़ी के तौर पर आपकी उपलब्धियां तय नहीं करतीं कि आप कोच के तौर पर भी सफल होंगे. इसीलिए जरूरी है कि ऐसी प्रक्रिया हो, जिसमें कोच को तैयार किया जा सके. ये बात टैलेंटेड युवा खिलाड़ियों के चयन जितनी ही अहम है.
आदर्श तरीका ये है कि कोच पहले फर्स्ट क्लास टीम के साथ काम करे. उसके बाद उसे भारत ए और अंडर-19 टीम का कोच बनाया जाए. टैलेंट की देखभाल में कोच को सेंसिटिव होने की जरूरत है. उन्हें कब सख्त होना है और कब नर्म, इसे खुद को ढालने की क्षमता होनी चाहिए. तीन साल बच्चों के साथ काम करके सबसे बड़ी पोस्ट पर आने से मदद ही मिलेगी. इससे उन्हें कोच के नजरिए से टीम को समझने में आसानी होगी. इस तरह का सिस्टम लाया जाना चाहिए. जब तक ये नहीं होगा. कोच का आना और हटा दिया जाएगा भारतीय क्रिकेट में चलता रहेगा.
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