पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई मानते थे कि उनकी ही दो गलतियों के कारण केंद्र की जनता पार्टी सरकार का 1979 में पतन हो गया था. इसे उनका बड़प्पन ही कहा जा सकता है. वरना आज भला कौन नेता अपनी गलती स्वीकारता है!
90 के दशक में उन्होंने मीडिया से बातचीत में कहा था कि नीलम संजीव रेड्डी को राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में स्वीकार करना मेरी भूल थी. चरण सिंह को दोबारा सरकार में लेना मेरी दूसरी गलती थी. मोरारजी ने कहा कि यह दोनों काम मुझे दबाव में आकर करना पड़ा. हालांकि मोरारजी देसाई के बारे में इससे पहले यह कहा जाता रहा कि वो कभी किसी तरह के दबाव में आकर कोई काम नहीं करते थे.
मगर उस बातचीत में मोरारजी ने कहा था नीलम संजीव रेड्डी में राष्ट्रपति पद के लिए अनिवार्य गरिमा और नैतिकता मुझे नहीं दिखाई पड़ती थी. लेकिन जगजीवन राम और कुछ अन्य नेताओं के दबाव के सामने मुझे झुकना पड़ा था. अपने सिद्धांतों से हटकर मुझे रेड्डी के नाम पर सहमति देनी पड़ी. जगजीवन राम तब मोरारजी मंत्रिमंडल के सदस्य थे.
चरण सिंह को निकालने के बाद उन्हें वापस नहीं लेना चाहिए था
चौधरी चरण सिंह के बारे में मोरारजी ने कहा कि एक बार चरण सिंह को मंत्रिमंडल से निकाल देने के बाद उन्हें वापस नहीं लेना चाहिए था. पर मुझे सहयोगी मंत्री लालकृष्ण आडवाणी के दबाव में आकर चरण सिंह को वापस लेना पड़ा. चौधरी चरण सिंह मतभेदों के कारण जुलाई, 1978 में मोरारजी सरकार से अलग हो गए थे. लेकिन उन्हें जनवरी, 1979 में एक बार फिर मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया गया.
हालांकि कुछ राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार मोरारजी देसाई की सरकार के पतन के कारण कुछ और थे. जुलाई, 1978 में जब चरण सिंह को केंद्रीय मंत्रिमंडल से हटाया गया तो भी जनता पार्टी के अंदर चरण सिंह के पक्ष में कोई विद्रोह नहीं हुआ. पर जब उत्तर प्रदेश और बिहार के मुख्यमंत्रियों को उनके कार्यकाल के बीच में ही बारी-बारी से हटा दिया गया तो जनता पार्टी टूट गई. बता दें कि फरवरी, 1979 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री राम नरेश यादव को मुख्यमंत्री पद से हटा दिया गया था. वहीं कर्पूरी ठाकुर को अप्रैल, 1979 में बिहार के मुख्यमंत्री पद से हटाया गया था.
खैर, राजनीतिक घटनाक्रम को लेकर मोरारजी देसाई का अपना आकलन था. हालांकि समाजवादी नेता मधु लिमये ने तब कहा था कि एक तो मोरारजी देसाई ने अपने कैबिनेट में किसी यादव और राजपूत को शामिल नहीं किया. उधर पिछड़े समुदाय के दो मुख्यमंत्रियों को महत्वपूर्ण राज्यों के मुख्यमंत्री पद से हटा दिया गया. इससे जनता पार्टी का जनाधार घटने की आशंका थी.
नीलम संजीव रेड्डी को मुआवजे के तौर पर राष्ट्रपति पद दिया गया था
उधर राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार नीलम संजीव रेड्डी को मुआवजे के तौर पर 1977 में राष्ट्रपति पद दिया गया था. इस मामले में उनके व्यक्तित्व पर ध्यान नहीं दिया गया. वर्ष 1969 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने राष्ट्रपति के उम्मीदवार के रूप में पहले तो नीलम संजीव रेड्डी के नाम का प्रस्ताव किया, पर बाद में उन्होंने निर्दलीय उम्मीदवार वी.वी गिरि को समर्थन देकर जितवा दिया. तब तक कांग्रेस पार्टी एक ही थी. यानी प्रधानमंत्री ने अपनी ही पार्टी के अधिकारिक उम्मीदवार रेड्डी को हरवा दिया था.
जब 1977 में केंद्र में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी तो उसने रेड्डी को ‘राजनीतिक मुआवजा’ दिया. कट्टर गांधीवादी मोरारजी यह भी मानते थे कि गांधी जी की नीतियां हर युग में प्रासंगिक हैं. कल भी थी. आज भी है और कल भी प्रासंगिक रहेंगी. उन पर कुछ अमल हुआ है, कुछ बाकी हैं.
मोरारजी इंटरव्यू लेने वाली से प्रति प्रश्न करते हैं, ‘अमल इतना आसान है क्या?’ गांधी जी ने हमें आत्म निर्भरता के रास्ते पर रख दिया. अब आगे चलिए. उन्होंने इस बात पर अफसोस जाहिर किया कि गांधी जी जितना चाहते थे, उतना लोग नहीं करते हैं.
कुछ भी कहो, एक दिन देश को गांधी की खादी पर आना ही पड़ेगा
मोरारजी ने इंटरव्यू लेने वाली निर्मला जैन से सवाल किया, ‘तुम कितना याद करती हो गांधी जी को? खादी तक तो पहनती नहीं. मुझे देखो, मैं हमेशा खादी पहनता हूं. जब कहा गया कि वह महंगी है तो हाजिर जवाब पूर्व प्रधानमंत्री ने कहा ‘जो पहनी हो, क्या वह सस्ता है? कुछ भी कहो, एक दिन देश को गांधी की खादी पर आना ही पड़ेगा.
यह चर्चा करने पर कि आर्थिक नीतियों में बदलाव आ गया है, बहुराष्ट्रीय कंपनियां देश पर छा रही हैं, मोरारजी ने कहा कि भटक जाते हैं नीति निर्माता. थप्पड़ पड़ेगा तो वापस आएंगे.
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