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मामाओं की विस्तृत और समृद्ध परंपरा कहां से चलकर कहां पहुंच गई?

भाई-भतीजावाद, दामादवाद की अगली कड़ी है मामा-भांजावाद. मामाओं का इतिहास कभी अच्छा नहीं रहा है. कालांतर में बुरे आदमी को ‘मामा’ कहा जाने लगा

Updated On: Jan 05, 2019 09:14 AM IST

Hemant Sharma Hemant Sharma
वरिष्ठ पत्रकार

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मामाओं की विस्तृत और समृद्ध परंपरा कहां से चलकर कहां पहुंच गई?

शकुनि, कंस, मारीच, शल्य और बंसल मामा. मामाओं की यह विस्तृत और समृद्ध परंपरा है. कहां से हम चले थे और कहां पहुंच गए? कभी मामा रिश्तों में मिठास का प्रतीक था. इन महापुरुषों ने उसकी छवि चालबाज, धूर्त, कुटिल, षड्यंत्रकारी और बर्बर की बना दी है. मामा सदा से बदनाम है. इतिहास में शकुनि और दुर्योधन के बाद पवन बंसल और विजय सिंगला की मामा-भांजा जोड़ी को ही सबसे कामयाब और प्रसिद्ध माना जा सकता है.

भाई-भतीजावाद, दामादवाद की अगली कड़ी है मामा-भांजावाद. मामाओं का इतिहास कभी अच्छा नहीं रहा है. कालांतर में बुरे आदमी को ‘मामा’ कहा जाने लगा. अब तो मामा कहने से लोग चिढ़ते हैं. विश्वविद्यालयी दिनों में आंदोलनों के दौरान पुलिसवालों को ‘मामा’ कहने से वे चिढ़कर हम पर डंडे बरसाते थे.

दिल्ली के शाहपुर जट इलाके में तो मामा गाली है. किसी जाट भाई को मामा कहिए, फिर देखिए मजा. मेरे भी एक मामा हैं. मित्रों के जगत मामा. ऊंचे कलाकार. मंदिर में अभिषेक हो या मुजरे का इंतजाम, दोनों में गुड़िया मामा की समान गति है. जितने लोग उन्हें प्यार करते हैं, उतने ही नफरत.

मामा यानी कुटिल. उसमें कोई खोट जरूर होगा. चाहे वह चंदामामा ही क्यों न हो. उसमें भी दाग है. सोचिए, अगर कंस मामा न होते तो भांजे कृष्ण का ‘फ्यूचर’ क्या होता? शकुनि नहीं होते तो महाभारत कराने की औकात दुर्योधन में नहीं थी. मामा शल्य दुर्योधन के आदर-सत्कार से इतने खुश हुए कि वे विरोध पक्ष के पाले में चले गए और कर्ण के सारथी बन बैठे.

रावण का मामा मारीच न होता तो सीता का हरण कैसे होता?

सिर्फ कर्ण को ही पता था कि शल्य उसका मामा है. आजीवन जातीय अपमान और ‘आइडेंटिटी क्राइसिस’ झेलनेवाले कर्ण को शल्य के ताने भी सुनने पड़े. रावण का मामा मारीच न होता तो सीता का हरण कैसे होता? राम-रावण युद्ध न हो पाता. रामकथा उलट जाती. राम कमजोर और रावण का चरित्र बेहतर दिखता.

इतिहास गवाह है कि सारे बड़े काम भांजों ने मामा के निर्देशन में किए हैं. हर मामा का फर्ज है कि वह अपने भांजे की मौज करवाए. चाहे अपनी जेब से या जनता की जेब काटकर. यह तो भांजे की बदकिस्मती थी कि वह पकड़ा गया. इसमें मामा का क्या दोष? वह तो भांजे के प्रति अपने कर्तव्य का पालन कर रहे थे.

भांजा मामा का माल उड़ाने के लिए चढ़ा तो था रेल में, पर पहुंच गया जेल में. मेरे मामा जब घर आते कभी खाली हाथ नहीं आते. हम भानजों के लिए कुछ-न-कुछ लाते जरूर थे, तो बंसल साहब ने क्या बुरा किया! उनके हाथ लंबे थे, इसलिए भांजे को ज्यादा माल दिलवाया. कवि यश मालवीय मामा-भांजा रिश्तों की गांठ खोलते हैं, ‘भला पुरानी कब हुई, शकुनि तेरी चाल. मामा-भांजे साथ मिल, गला रहे हैं दाल.’

माहिल मामा के कारण ही आल्हा-ऊदल में जंग छिड़ी थी. इस मामा की करतूत से भाई, भाई के खून का प्यासा हो गया था. पद्मपदाचार्य आठवीं शती में आदिशंकर के चार शिष्यों में एक थे. उनके मामा द्वैती थे. पद्मपदाचार्य ने ‘ब्रह्मसूत्र भाष्य’ पर टीका लिखी. भानजे ने द्वैत का खंडन कर अद्वैत का प्रतिपादन किया था. मामा को बुरा लगा. पद्मपदाचार्य जब तीर्थयात्रा पर गए तो मामा द्वैती ने घर में आग लगा दी. घर के साथ भांजे की टीका भी जल गई. मामा की इस कुटिलता से पद्मपदाचार्य दुबारा टीका नहीं लिख पाए.

लखनऊ के अमीनाबाद के पास मामू-भांजे की कब्र है. जहां षड्यंत्रों के शिकार लोग अपनी झाड़-फूंक कराते हैं. यानी कब्र में जाने के बाद भी मामू-भांजे षड्यंत्र के सूत्र अपने हाथ में ही रखते हैं. छत्तीसगढ़ में मामा-भांजे का मंदिर है. वहां भी ऐसे ही उपाय होते हैं. हालांकि छत्तीसगढ़ में भांजों की बड़ी प्रतिष्ठा है. मामा उनके पांव छूता है.

मामा को ‘मामू’ बनाने का यह था कांग्रेसी तरीका 

छत्तीसगढ़ ही प्राचीन कोसल राज्य था. जहां की बेटी कोसल्या महाराज दशरथ को ब्याही थी. इस नाते कोसल्या बहन और राम भांजे हुए, सो वहां हर भांजा राम के तौर पर प्रतिष्ठित हो गया. उसके पांव छूकर लोग यश और पुण्य के भागी बनते हैं. चांद को मामा इसलिए कहते हैं, क्योंकि चांद और पृथ्वी का जन्म एक ही नक्षत्र में हुआ. पृथ्वी मां है, इसलिए उसका सहोदर मामा, पर वो भी दागदार है. महाभारत में कृपाचार्य अश्वत्थामा के मामा थे. उनकी कुटिलता ने द्रौपदी के बेटों की हत्या सोते वक्त करा दी थी. पूरे महाभारत की यह सबसे जघन्य कथा है.

इमरजेंसी के उत्पीड़न से तंग आकर हेमवती नंदन बहुगुणा ने कांग्रेस छोड़ दी थी. संजय गांधी ने उनका अपमान किया था. कुछ समय बाद बहुगुणाजी दुबारा कांग्रेस में लौटे तो संजय गांधी ने उन्हें मामा कहा और माफी मांगी. यह बात दूसरी है कि इस दफा कांग्रेस ने उन्हें ‘मामू’ बनाया. नाराज बहुगुणा ने फिर कांग्रेस छोड़ दी. उसके बाद पलटकर देखा नहीं. यह मामा को ‘मामू’ बनाने का कांग्रेसी तरीका था.

वैसे राजनीति में भांजे के जरिए पैसा कमाना भी जनता को ‘मामू’ बनाने जैसा ही खेल है. यह काम कोई भाई, भतीजा या बेटा बखूबी नहीं कर सकता, क्योंकि उसके नाम के अंत में बंसल लिखा होता. ऐसे में घपला पहली नजर में ही पकड़ा जाता, लेकिन भांजे के साथ ऐसी दिक्कत नहीं है. वे तो ‘सरकारी तोते’ थे, जिन्होंने बंसल-सिंगला के बीच रिश्ता ढूंढ निकाला. वरना जनता जान ही नहीं पाती सिंगला नामक प्रजाति क्या होती है.

धन्य हैं वे मामा, जिनके नाम पर भांजे करोड़ों की डील फाइनल करते हैं. हम तो बचपन में गाते थे, ‘मामा-मामा भूख लगी है. खा लो बेटा मूंगफली. मूंगफली में दाना नहीं. हम तुम्हारे मामा नहीं.’ इस पंक्ति में अब बदलाव जरूरी हैं..‘मामा-मामा भूख लगी. खा लो बेटा घूस बड़ी. पर घूस पर हंगामा नहीं, वरना हम तुम्हारे मामा नहीं.’ बदकिस्मती है कि मेरे पास ऐसा कोई मामा नहीं है. मुझे भी एक ऐसे ही मामा की तलाश है..‘बिन मामा सब सून.’

(यह लेख हेमंत शर्मा की पुस्तक 'तमाशा मेरे आगे' से लिया गया है. पुस्तक प्रभात प्रकाशन द्वारा प्रकाशित की गई है)

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