जाने-अनजाने गलती होने पर अमूमन जब बात जिम्मेदारी लेने की आती है, तो हर ऊपर वाले को (सीनियर) सीधे-सीधे तलाश होती है एक अदद जूनियर (मातहत) के गले की. जिसकी गर्दन में जिम्मेदारी का फंदा कसकर या फिर कसवा कर खुद को महफूज किया जा सके. अक्सर देखने-सुनने में यही आता रहा है. लेकिन यह गलत भी हो सकता है. इस कहावत को गलत साबित करेगी इस ‘पड़ताल’ में आपके सामने लाई जा रही हैरतंगेज मगर सच्ची कहानी. उसी पड़ताली अफसर रिटायर्ड डीआईजी (पूर्व आईपीएस) की मुंहजुबानी 1990 के दशक में जिसने, मातहत दारोगा, हवलदार-सिपाही को हथकड़ियों में जकड़े जाने से बचाने के लिए खुद के नाम लिखा ली थी, थाने की हवालात में हुई एक ‘मौत’. गैर-इरादतन हत्या का मामला दर्ज हुआ. महीनों ‘पड़ताल’ की गई. बाद में यह आला-पुलिस अफसर पड़ताल में बेदाग साबित हुआ.
1990 के दशक में मैनपुरी की कोतवाली शिकोहाबाद
‘पड़ताल’ में पेश यह घटना है सन् 1993 के अंत और 1994 के शुरुआती दिनों की. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे मुलायम सिंह यादव. मैनपुरी जिले के पुलिस अधीक्षक थे राज्य पुलिस सेवा के अधिकारी अजय कुमार, जो कालांतर में उत्तराखंड पुलिस में चले गये. उसी दौरान सीबीसीआईडी से ट्रांसफर करके मैनपुरी भेजे गये पुलिस-उपाधीक्षक आरपीएस यादव (2002 बैच राज्य पुलिस सेवा से यूपी कॉडर के आईपीएस राजेंद्र प्रसाद सिंह यादव). 1994 में आरपीएस यादव को शिकोहाबाद सब-डिवीजन का सर्किल ऑफिसर (क्षेत्राधिकारी-सीओ) बनाया गया. अपराध और राजनीतिक दृष्टिकोण से शिकोहाबाद कोतवाली उस सब-डिवीजन के तमाम थाने-चौकी में सबसे ज्यादा संवेदनशील कोतवाली (थाना) थी.
बदमाश जिसे लॉकअप (हवालात) में बंद किया गया
हैसियत सर्किल ऑफिसर शिकोहाबाद सब-डिवीजन चार्ज लिए हुए कुछ ही महीने आरपीएस यादव को बीते थे. कोतवाल छुट्टी पर गये हुए थे. लिहाजा सब-डिवीजन का सर्किल-ऑफिसर होने के नाते थाने की पूरी जिम्मेदारी सीओ आरपीएस यादव की थी. उन्हीं दिनों शिकोहाबाद कोतवाली पुलिस ने इलाके में पब्लिक के लिए सिर दर्द बने एक कुख्यात बदमाश को गिरफ्तार कर लिया. वह बदमाश लूटपाट, झपटमारी और मादक पदार्थों की खरीद-फरोख्त में भी लिप्त था. उस बदमाश का अपराध की दुनिया में जो नेटवर्क था सो तो था ही, उससे ज्यादा उसकी इलाके के कई थाने पुलिस वालों से भी ठीक-ठाक मेल-मिलाप उठना-बैठना था.
आलम यह था कि जब-जब वो बदमाश पकड़ा भी गया, तो पुलिस वालों ने ही उसे जोड़-तोड़ करके या फिर पुलिस का मुखबिर करार दिलवाकर कथित पुलिस-हिरासत से छुड़वा भी दिया. आरपीएस यादव को जब सच पता लगा तो उन्होंने उस कुख्यात को पकड़ कर जेल भिजवाने की जिम्मेदारी खुद के कंधों पर ले ली. गिरफ्तार करके बदमाशों को चंद दिन में शिकोहाबाद कोतवाली की हवालात (लॉकअप) में लाकर डाल दिया गया.
छोटे ‘गुडवर्क’ की खुशी में जब बड़ी ‘गड़बड़’ हो गयी
इनामी और कुख्यात बदमाश की गिरफ्तारी की खबर से शिकोहाबाद कस्बे के निवासियों में खुशी की लहर दौड़ गयी. गिरफ्तार बदमाश को देखने के लिए भीड़ शिकोहाबाद कोतवाली पर इकट्ठी होने लगी. उधर कुछ पुलिस वाले इस बात को लेकर खुश थे कि चलो इस कुख्यात की गिरफ्तारी से रोज-रोज होने वाली आपराधिक घटनाओं में कुछ तो कमी आयेगी. बदमाश को गिरफ्तार करके शिकोहाबाद कोतवाली की हवालात में बंद कर दिया गया. पूछताछ के बाद अगले दिन उसे लॉकअप से निकाल कर अदालत में पेश किया जाना था. अभी बदमाश को लॉकअप में कैद किए हुए कुछ ही घंटे बीते होंगे कि वो अपना बदन और सिर खुद ही नोचने लगा. शिकोहाबाद कोतवाली में मौजूद पुलिस वालों को लगा कि आरोपी हवालात से निकलने के लिए बहानेबाजी (ड्रामा) कर रहा है.
गलती जिसने पुलिस को ‘कटघरे’ में खड़ा कर दिया
बस यही वो गलती थी, जिसने चंद घंटो में ही पुलिस की ‘पड़ताल’ का रुख बदल दिया. बदमाश (आरोपी) को ‘पीड़ित’ और पुलिस वालों को ‘मुलजिम’ बनाकर कटघरे में खड़ा कर दिया. बेबाकी से बताते हैं उस समय शिकोहाबाद सब-डिवीजन के सर्किल-ऑफिसर रहे और उस बवाली-पड़ताल में फंसे दबंग पूर्व आईपीएस (डीआईजी अलीगढ़ के पद से रिटायर) राजेंद्र प्रसाद सिंह यादव.
कोतवाली में मौजूद पुलिस वाले जब तक हकीकत जान-समझ पाते, आरोपी ने लॉकअप के अंदर अपने ही हाथों खुद को लहु-लुहान कर लिया. आरोपी की तबियत बिगड़ गई. पुलिस वाले उसे हवालात से निकालकर तुरंत अस्पताल ले गये. जहां डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया.
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डॉक्टरों ने पुलिसकर्मियों को बताया कि आरोपी मादक पदार्थों के सेवन का आदी (अभ्यस्थ) था. बिना मादक पदार्थ सेवन के वह खुद को काबू नहीं रख पाता था. हवालात में उसने इसीलिए खुद को बुरी तरह नाखूनों से खुरेंच कर जख्मी कर लिया था. पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में कहीं भी पिटाई से हुई मौत का तथ्य सामने नहीं आया.
गुस्साई भीड़ ने जब आग लगाने को घेर ली कोतवाली
‘हिरासत में आरोपी की मौत से कोतवाली में मौजूद पुलिस वालों के हाथ-पांव फूल गये. कई पुलिस वाले जान बचाने को मौके मिलते ही कोतवाली परिसर से भाग गये. जब बात बेकाबू हो चुकी और पब्लिक ने कोतवाली घेर ली तो मुझे बताया गया. तब तक कस्बे के हालात तकरीबन बिगड़ चुके थे. नाराज पब्लिक ईंट-पत्थर-लाठी-डंडों के साथ सड़कों पर उतर आई थी. स्थानीय नागरिक उन पुलिसकर्मियों को पाने की जिद कर रहे थे, जिन्होंने उसे गिरफ्तार किया.
जिन पुलिस वालों ने मुलजिम को इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती कराया था. भीड़, पुलिस वालों को कब्जे में लेकर उन्हें जान-माल का नुकसान पहुंचाने पर उतारू थी. बस उस पूरी ‘पड़ताल’ में गलती इतनी हो गयी थी कि मामला बिगड़ने के शुरुआती दौर में ही घबराये हुए पुलिसकर्मी पूरी बात मेरे संज्ञान में नहीं लाये. भीड़ चाह रही थी कि हिरासत में मौत के आरोपी/संदिग्ध/संलिप्त पुलिसकर्मियों के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज करके उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेजा जाये.’ बताते हैं शिकोहाबाद सब-डिवीजन के तत्कालीन क्षेत्राधिकारी आरपीएस यादव.
जब आला-अफसर मातहतों की गर्दन नापने पर उतरे
कोतवाली को भीड़ द्वारा घेर लिये जाने की खबर सुनते ही दंगा नियंत्रण वाहन शिकोहाबाद में सड़कों पर उतार दिये गये. सभी थानों की पुलिस को अलर्ट कर दिया गया. पुलिस अधीक्षक अजय कुमार, तत्कालीन जिलाधिकारी भी कोतवाली पहुंच गये. तमाम अफसरों के समझाने पर भी मगर भीड़ शांत नहीं हुई. जिले और रेंज के तमाम पुलिस और प्रशासनिक आला अफसरों ने मीटिंग में तय किया कि घटना के वक्त थाने में मौजूद और जख्मी हालत में हवालाती को अस्पताल में इलाज के लिए ले जाने वाले पुलिस कर्मियों के खिलाफ गैर-इरादतन हत्या का मामला दर्ज करके उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाये. तभी भीड़ शांत हो पायेगी.
वो आइडिया जिसने पुलिस महकमे में नजीर पेश कर दी
‘मैंने अकेले में बैठकर काफी माथा-पच्ची की. मेरे जेहन में एक तरफ गुस्साई भीड़ और कस्बे के बेकाबू हो चुके हालात थे. दूसरी ओर शिकोहाबाद कोतवाली में तैनात मेरे ही वे कई मातहत दारोगा-हवलदार-सिपाही, भीड़ को खुश करने के लिए कुछ ही देर में आला पुलिस अधिकारी जिनके खिलाफ गैर-इरादतन हत्या का मामला दर्ज कर उनकी नौकरी और जिंदगी दोनों खराब करने पर उतारू थे.’ बताते हैं उस समय शिकोहाबाद सब-डिवीजन के सर्किल ऑफिसर राजेंद्र प्रसाद सिंह यादव.
बकौल आरपीएस यादव, ‘मैं कुछ ऐसी जुगत निकालन लेना चाहता था जिससे, सांप मर जाये और लाठी भी टूटे न. लिहाजा मैंने एक ऐसा प्लान आला पुलिस अफसरों के सामने पेश कर दिया, जिसे सुनकर उन सबके होश उड़ गये. मैंने तय कर लिया था कि अगर भीड़ पुलिसकर्मियों के खिलाफ गैर-इरादतन हत्या का मामला दर्ज कराकर ही शांत होगी, तो वो केस मैं खुद के नाम दर्ज करवाऊंगा.’
गर्दन मेरी फंस रही थी, दिल-दिमाग उनके सुन्न हो गये
उस दिल दहला देनी वाली पड़ताल की सच्चाई बयान करते बेबाकी से बताते हैं दबंग पूर्व आईपीएस आरपीएस यादव, ‘मेरा आइडिया सुनकर उस वक्त के डीएम साहब और एसपी साहब के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गयी. वे मेरे प्रस्ताव को मेरी बेवकूफी, न-समझी-कमअक्ली का सबसे बड़ा नमूना समझ कर हैरत में थे. मैं जिद्दी मगर अपनी जगह सही था. जब आरोपी को गिरफ्तार मैंने करवाया था. आरोपी को हवालात में किसी ने भी मारा-पीटा नहीं. ऐसे में जब वो खुद ही मर गया तो फिर भला किसी पुलिस वाले की क्या गलती? मेरे जेहन में बार बार यही सवाल कौंध रहा था. यही सवाल वो वजह थी, जिसके चलते आरोपी की हवालात में मौत की जिम्मेदारी मैंने खुद के सिर ले ली. अंतत: मेरी जिद कहिये या अपनी जिम्मेदारी किसी गैर या अधीनस्थ के कंधों पर न डालने की फितरत.
कोतवाली में खुद के ही खिलाफ केस दर्ज करवा लिया
‘लाख सबके समझाने के बाद भी मैं नहीं माना. मेरी आत्मा ने गवाही नहीं थी कि मरा हुआ कौवा किसी और के आंगन में फेंकू (अपनी जिम्मेदारी दूसरे के कंधे पर). मैंने आरोपी की पुलिस हिरासत में हुई मौत के सिलसिले में शिकोहाबाद कोतवाली में अपने ही खिलाफ गैर-इरादतन हत्या का मामला दर्ज करा लिया. इससे दो फायदे हुए. एक तो पब्लिक में यह संदेश गया कि कोतवाली में तैनात पुलिस वालों को बचाने की कोशिश आला-पुलिस अफसरों ने नहीं की. शिकोहाबाद पुलिस ने अगर ऐसा किया होता तो भला पुलिस अपने ही सीओ (डिप्टी एसपी)के खिलाफ मामला दर्ज क्यों करती? दूसरे सीनियर और जिम्मेदार अफसर होने के चलते मेरी भी पुलिस की नौकरी पर दाग नहीं आया. दाग यह कि मैंने खुद की गर्दन बचाने के लिए, मातहत हवलदार-सिपाही-दारोगा ‘कस्टोडियल-डैथ’ में फंसवा दिये. मामले की महीनों पड़ताल हुई. मैं निर्दोष था. मेरे मातहत और मैं उस जांच पड़ताल में बेदाग साबित हुए.’ यूपी पुलिस महकमे से 31 जुलाई 2017 को डीआईजी (अलीगढ़ रेंज) के पद से बेदाग रिटायर होने वाले पूर्व आईपीएस राजेंद्र प्रसाद सिंह बेबाकी से बताते हैं.
अपने रिश्वतखोर दारोगा को भी जब नहीं बख्शा
अविश्वसनीय ‘शिकोहाबाद-कांड’ तो केवल एक बानगी भर थी. उसूलों के पक्के, पुलिस महकमे में जिद्दी और अड़ियल पुलिस अफसर की छवि लेकर रिटायर होने वाले आरपीएस यादव की. अपने जमाने के इस दबंग पूर्व आला आईपीएस (यूपी स्टेट पुलिस सर्विस से 2002 आईपीएस कॉडर) अफसर की और भी तमाम नजीरें उत्तर प्रदेश पुलिस महकमे में मौजूद हैं.
आने वाली तमाम पीढ़ियां जिन्हें पढ़ेंगी तो सब, मगर उन्हें इतिहास के पन्नों से मिटा कोई नहीं पायेगा. 1990 के दशक में यूपी पुलिस महकमे की आन-बान-शान समझे जाने वाले आरपीएस यादव ही वो, आला-अड़ियल ‘पड़ताली’ पुलिस अफसर भी साबित हुए, जिन्होंने अपने अधीनस्थ दारोगा (सब-इंस्पेक्टर) को थाने में ही वर्दी उतरवाकर गिरफ्तार कर लिया.
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यह बात है सन् 1989 से 92 के बीच की. जब राजेंद्र प्रसाद सिंह यादव जिला बस्ती में खलीलाबाद सब-डिवीजन के क्षेत्राधिकारी(सीओ) थे. खलीलाबाद थाने में तैनात आरोपी सब-इंस्पेक्टर दूसरे इलाके(बीट) में एक पेट्रोल टैंकर वाले से जबरन 10 हजार रुपये की ‘उगाही’ कर लाया था. ‘पड़ताल’ खुद आरपीएस यादव ने की.
जब मेरी ‘पड़ताल’ पर पुलिस कप्तान ने माथा पीट लिया
करीब 30 साल पहले पुलिसिया नौकरी में हुए उस वाकये का जिक्र करते हुए आरपीएस बताते हैं कि, ‘मैं और इंस्पेक्टर खलीलाबाद (थानाध्यक्ष) श्री द्विवेदी, दारोगा को दिन भर अपने दफ्तर में बैठकर समझाते रहे कि वो सच कबूल ले. माफ कर दिया जायेगा. सच कबूलने की बात दूर रही, दारोगा मुझे ही घुड़कियां देने लगा.
आरोपी सब-इंस्पेक्टर सच कबूलने को राजी नहीं था. मैं दूध का दूध पानी का पानी करने की जिद पर अड़ा हुआ था. अब तक कई घंटे चली पड़ताल में साबित हो चुका था कि दारोगा ने जो दस हजार रुपये जबरन ऐंठे हैं, वे थाने में मौजूद उसके कमरे में बिस्तर के नीचे छिपाकर रखे गये हैं. जैसे ही 10 हजार रुपये और पेट्रोल टैंकर चालक से छीना गया वैध परमिट कमरे से बरामद हुए, मैंने उसी वक्त उस सब-इंस्पेक्टर की वर्दी उतरवा दी.
केस दर्ज कराकर उसे गिरफ्तार करवा दिया. जेल भेज दिया उसे. उसके बाद कप्तान (वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक) को पूरे मामले की खबर की. उन्होंने अपना माथा पीट लिया. मेरे उस खतरनाक कदम और उस अविश्वसनीय पड़ताल पर. छह महीने जेल काटने के बाद दारोगा मुझसे मिला. बोला अनजाने में गलती हो गयी थी मुझसे (दारोगा से). मैं बोला, कोई बात नहीं गलती तुमसे हुई. दंड भी तुमने ही भुगत लिया है. कई घंटे समझाने के दौरान अगर तुम ईमानदारी से कबूल कर गये होते तो शायद जेल जाने से बच जाते.
मिलिए अड़ियल-जिद्दी मगर दबंग पड़ताली अफसर से
10 जुलाई 1957 को उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के नोनहरा थानांतर्गत गांव मुंड़ेरा में आरपीएस यादव का जन्म हुआ. पिता शिवधनी सिंह यादव घर की चार-दिवारी के भीतर ही हिंदी सीखे थे. मां श्रीमती मोती रानी पूर्णत: निरक्षर, पूजा-पाठ वाली महिला हैं. तीन भाई दो बहनों में सबसे बड़े राजेंद्र प्रसाद सिंह यादव सात गांव-कुनबे के पहले साइंस पोस्ट ग्रेजुएट बने.
आईएएस की लिखित परीक्षा पास की. उचित मार्गदर्शन के अभाव में इंटरव्यू में सफलता हासिल नहीं कर सके. बजरिये यूपीएससी सन 1986 में उत्तर प्रदेश राज्य पुलिस सर्विस में सलेक्ट हो गये. परदादा सुभग यादव अंग्रेजों के जमाने में (आजादी से पहले) गाजीपुर कोतवाली के चौकीदार और दादा राम नरेश यादव पांच रुपये महीने की पगार पर गाजीपुर कोतवाली में ही चौकीदार रहे.
राजेंद्र प्रसाद सिंह यादव घर-कुनबे में ऐसे पहले लड़के बने जो पुलिस में आईपीएस अफसर बने और डीआईजी के पद से रिटायर हुए. 1990 के दशक में जब सिख आतंकवाद तराई में चरम पर था. खाड़कुओं (सिक्ख आतंकवादी) के डर से पुलिस ने वर्दी पहननी छोड़ दी थी. उस जमाने में आरपीएस को पीलीभीत जिले के अमरिया और पूरनपुर सब-डिवीजन का सर्किल ऑफिसर (सीओ क्षेत्राधिकारी) तैनात किया गया.
रोंगटे खड़े कर देने वाली उस पोस्टिंग में भी राजेंद्र प्रसाद यादव के नाम का खौफ इस कदर खाड़कुओं के दिल-ओ-जेहन में जा बैठा कि आरपीएस यादव के पहुंचने की खबर मिलते ही खूनी खाड़कू रास्ता बदल जाते थे.
31 जुलाई 2017 को डीआईजी अलीगढ़ रेंज से रिटायर होने वाले आरपीएस यादव ने पीलीभीत पोस्टिंग के दौरान जिन दो खतरनाक खाड़कुओं को एनकाउंटर में ढेर करने से बख्श दिया था, वे दोनों खाड़कू करीब 30 साल बाद भी आरपीएस यादव के सामने उनके सम्मान में आज भी नत-मस्तक रहते हैं.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)
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