मशहूर शेफ, लेखक और किस्सागो एंटोनी बोर्डेन कहा करते थे कि हिंदुस्तान इकलौता ऐसा देश है जहां आकर वो पूरे हफ्ते शाकाहारी खाना खा सकते हैं. खाने की श्रेष्ठता से जुड़े तमाम मिथकों के बावजूद यह बात सच है कि हिंदुस्तान में शाकाहारी खाने की जितनी विविधता मिलती है शायद ही दुनिया की किसी और संस्कृति में पाई जाती हो.
खट्टा-मीठा ढोकला, गर्मागरम आलू के पराठें, हल्का-फुल्का इडली और डोसा, पंजाब की दाल मखनी, राजस्थान की कैर सांगरी, बंगला का सूक्तो या पहाड़ का काफली भात, आप गिनते गिनते थक जाएंगे मगर शाकाहारी खाने की विविधता और अलग-अलग स्वाद खत्म नहीं होंगे.
रोचक बात ये है कि भारत में शाकाहारी खाने की तरह शाकाहारियों की भी ढेर सारी प्रजातियां मिलती हैं. भारत मुख्य रूप से मांसाहारी देश है. जनगणना का सरकारी आंकड़ा कहता है कि भारत की 70 प्रतिशत से ज़्यादा जनसंख्या मांसाहारी है. हालांकि इसमें से अधिकतर लोग फ्लेक्सिटेरियन यानि कभी-कभार ही मांस मछली का स्वाद चखने वाले होते हैं. खैर, आते हैं शाकाहारियों के वर्गीकरण पर. ध्यान रखें कि इसमें कई वर्गीकरण दुनिया भर में मानक हैं जबकि कुछ सिर्फ भारत के लिए ही सच हैं.
वेगन या अतिशुद्ध शाकाहारी
शाकाहार की मूल परिभाषा है कि पेड़-पौधों से मिली चीजों का इस्तेमाल. इस लिहाज से दूध, पनीर, शहद और ऐसी कई चीज़ें शाकाहार की परिभाषा में नहीं आएंगी. वेगन दूध की जगह सोया मिल्क, पनीर की जगह टोफू और शहद की जगह फलों का रस इस्तेमाल करते हैं. दूध को शाकाहार में गिना जाए या नहीं इसे तय करना बड़ा विवादास्पद है.
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दूध पेड़-पौधों से नहीं मिलता इसलिए यह तकनीकी रूप से शाकाहार नहीं है. लेकिन दूध दुनिया के हर शिशु का पहला आहार है इस लिहाज से हर इंसान पहली खुराक में मांसाहारी हुआ. लेकिन एक बात और है कि इंसान ही दुनिया का एकमात्र प्राणी है जो किसी और जानवर के दूध को नियमित रूप से इस्तेमाल करता है, तो तर्क यह भी दिया जा सकता है कि मां का दूध पीना शाकाहार है और किसी और जानवर का दूध मांसाहार. जाने दीजिए, आगे बढ़ते हैं.
अंडा खाने वाले वेजिटेरियन
भारत में ज़्यादातर स्तरों पर दूध और शहद शाकाहार की तरह ही इस्तेमाल होता है. बल्कि कई मामलों में तो ये अत्यंत पवित्र ही माना जाता है. लेकिन एक और ऐसी चीज़ है जिसे शाकाहारी लोग धीरे से अपने पाले में मिला लेते हैं. अंडे को शाकाहार मानने में दूध वाले तर्क इस्तेमाल होते हैं.
एक वर्ग कहता है कि अगर किसी चीज़ से नए जीवन की उत्पत्ति न हो सके और वो उस समय सक्रिय जीवित न हो तो उसे शाकाहार मान सकते हैं. ऐसे में अंडा (खास तौर पर पोल्ट्रीफार्म वाला) शाकाहार की परिभाषा में ‘मार-तोड़’ कर फिट कर दिया जाता है. एगेटेरियन भी दो तरह के होते हैं. लेक्टो-ओवोटेरियन यानी जो दूध और अंडा दोनों खाते हैं. ओवो टेरियन यानी जो अंडा तो खाते हैं लेकिन दूध से बनी चीज़ों से दूर रहते हैं.
लेकिन अंडे का शाकाहार में शामिल होना किसी वाद से ज्यादा सहूलियत का मसला है. अपने घरों से दूर शहरों में प्रवास कर रहे लोगों के लिए अंडा बड़ी राहत लेकर आता है. मैगी, केले, ब्रेड और अंडे आपको लगभग हर बैचलर के कमरे पर मिल जाएंगे. हालांकि इस वर्ग के अंडा खाने के स्तरों में कई अंतर हैं. कुछ लोग अंडा करी और ऑमलेट से सहज रहते हैं. कुछ सिर्फ केक और बेकरी प्रोडक्ट ही खाते हैं. कुछ को पता होता है कि मोमोज़ के साथ मिलने वाली मेयोनीज़ में अंडा होता है तो भी खा लेते हैं. इसीलिए अब एगेटेरियन के साथ-साथ केकेटेरियन भी चल निकला है.
धार्मिक मान्यता वाले शाकाहारी
धार्मिक मान्यता के साथ शाकाहार का जुड़ना अलग-अलग तरह से होता है. कई पुराने जानकार तो दावा करते हैं कि किसी की रोज़मर्रा की खुराक से उसकी जाति बताई जा सकती है. हिंदुस्तान में कई लोग हफ्ते में एक या दो दिन शाकाहारी होते हैं. उत्तर भारत की अधिकतर हिंदू जातियों में ये दिन अधिकतर मंगलवार होता है. वहीं पूर्व की तरफ गुरुवार अधिक प्रचलित है. सावन और नवरात्रि में निरामिष भोजन का भी चलन है. हालांकि बंगाल की तरफ नवरात्रि मांसाहार का बड़ा मौका है.
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दूसरी तरफ मुसलमान भी धार्मिक कारणों से कुछ मौकों पर शाकाहारी हो जाते हैं. लेकिन उनकी वजह बिल्कुल अलग होती है. इस्लाम के मानने वाले अक्सर घर के बाहर शाकाहारी होते हैं. क्योंकि उन्हें पक्का पता नहीं होता है कि जो मिल रहा है वो हलाल मीट है या नहीं. इसी तरह से आपको कई कन्वर्टेड क्रिश्चियन मिल जाएंगे, जिनके लिए बड़े (भैंस) का मीट आज भी एक प्रतिबंधित चीज़ होगी.
जैसे मुसलमान घर के बाहर शाकाहारी हो जाते हैं ठीक उसी तरह उत्तर भारत में हिंदुओं का बड़ा तबका (खास कर सवर्ण जातियां) घर के अंदर शाकाहारी होता है. उसमें नॉनवेज खाने का तो चलन है लेकिन घर के अंदर लाने और पकाने की मनाही है. मज़ेदार बात यह है कि खुद न ‘काटने-पकाने’ मगर खा लेने का ये तरीका मूलरूप से बौद्ध धर्म का है. बौद्ध धर्म में किसी जीव को मारकर-पकाकर खाना हिंसा है लेकिन अगर बना-बनाया मिल जाए तो खा सकते हैं.
अगर इतिहास में देखें तो भारत में बौद्ध परंपराएं सनातन धर्म में उस समय फैली कुरीतियों के विरोध में लोकप्रिय हुईं. समय के साथ बौद्ध धर्म भी अपने मूल स्वरूप से बहुत अलग हो गया. धीरे-धीरे सबकुछ सुविधा के हिसाब से बदल गया. कह सकते हैं कि भूख का कोई धर्म नहीं होता.
प्याज लहसुन और जैन थाली
भारत में शाकाहार में भी निरामिष अलग श्रेणी है. वैष्णव ब्राह्मण और मारवाड़ी खास तौर पर खाने में एलियम परिवार की सब्ज़ियां (प्याज-लहसुन आदि) नहीं खाते हैं. माना जाता है कि यह तामसिक प्रवृत्ति को बढ़ावा देता है. प्याज़ और लहसुन की तेज़ महक के चलते उनसे ये दूरी धार्मिक रूप से हर जगह है. उदाहरण के लिए गोरखपुर के तर्कुला मंदिर, उत्तराखंड और देश की तमाम जगहों में पशुबलि की परंपरा है. देवी को जो भी मांस प्रसाद के रूप में चढ़ता है उसमें प्याज़-लहसुन का इस्तेमाल मना होता है. हालांकि मध्यप्रदेश के दतिया में देवी का एक पुराना मंदिर है जहां प्याज़ का भजिया ही प्रसाद में चढ़ाया जाता है.
जैन और निरामिष थाली में काफी अंतर है. केटी आचाया की किताब हिस्टॉरिकल डिक्शनरी ऑफ इंडियन फूड के मुताबिक जैन धर्म 22 तरह के खाने को प्रतिबंधित करता है. इसमें खास तौर पर पौधों के वह हिस्से शामिल हैं जो ‘बढ़ते’ हैं. गाजर, कच्ची हल्दी, चने की दाल वगैरह जैन सन्यासियों के लिए मना हैं. हिंदू सन्यासियों के लिए जो कंदमूल बेहद सात्विक और त्याग का प्रतीक था. जैन भोजन में वही कंदमूल ‘हिंसक भोजन’ है.
मछली मतलब जल का पक्षी
खाने की सामाजिक मान्यताओं में भूगोल का बड़ा हाथ रहता है. भारत सहित दुनिया के तमाम हिस्सों में मांसाहार को शुभ से जोड़ा गया है. मसलन कश्मीर और बंगाल में मछली का इस्तेमाल शादी में होता है. कश्मीर में जहां इसे जल पक्षी बताया गया है, बंगाल में ये शादी की परंपरा का अहम हिस्सा है. जो शाकाहारी होते हैं वो खोए की मछली बनाकर इस्तेमाल करते हैं.
लेकिन मछली को कई जगहों पर शाकाहार या अर्धशाकाहार (पेसेटेरियन) भी माना जाता है. खासकर समुद्र से लगे इलाकों में. जापान जैसे किसी देश में अगर आप शाकाहारी खाना मांगे और वो आपको मछली या मछली के तेल में पका कुछ परोस दे तो नाराज़ मत होइएगा. जिन जगहों पर पानी की बहुतायत हो तो वहां मछली सबसे आसान और सुलभ खाद्य है. इसलिए इसे शाकाहार में अपनाने की वजह मजबूरी ज्यादा है. वैसे इस्लाम का झटके और हलाल वाला नियम भी मछली पर लागू नहीं होता.
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सही मायनों में खुद शाकाहारी मानने वालों में ज़्यादातर लोग असल में अर्ध-शाकाहारी होते हैं. वेगन या शुद्ध शाकाहारी होना किसी आम आदमी के लिए काफी मुश्किल है. क्योंकि आज की तारीख में जानवरों के अंगों का इस्तेमाल हमारे खाने के अलावा, कॉस्मेटिक्स, दवाओं और तमाम चीज़ों में होता है. ग्लोबलाइज़ेशन के दौर में भारत जैसे देश में खुद को सिर्फ शाकाहारी या मांसाहारी कहना काफी नहीं है. बेहतर है कि खाने के बारे में पूछे जाने पर बताएं कि ‘आप क्या नहीं खाते हैं.’
(लेखक स्वतंत्र तौर पर लेखन का कार्य करते हैं)
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