सन् 1990 में ‘मंडल आरक्षण’ लागू करने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कहा था, ‘मैंने गोल तो कर दिया, पर अपनी टांगें तुड़वा ली’. हालांकि यह भी सच है कि उस एक फैसले का ऐसा राजनीतिक असर हुआ कि उसके बाद कभी कांग्रेस को लोकसभा में पूर्ण बहुमत नहीं मिल सका.
साथ ही मंडल आरक्षण के खिलाफ शुरू हुए मंदिर आंदोलन के कारण बीजेपी को केंद्र में सत्ता मिलनी शुरू हो गई. मंडल आरक्षण के कारण तब न सिर्फ वी पी सिंह की सरकार गिरा दी गई थी बल्कि राजनीतिक तौर पर खुद वी पी हाशिए पर चले गए.
मंडल आरक्षण के बाद मीडिया में खलनायक बन गए
एक तरफ जहां आरक्षण विरोधी लोग उनके कट्टर दुश्मन बन गए तो दूसरी ओर आरक्षण समर्थकों ने वी पी सिंह को नहीं स्वीकारा. क्योंकि वो उनके ‘बीच’ से नहीं थे. इतना ही नहीं, जो वी पी सिंह 1987-89 के ‘बोफर्स अभियान’ के जमाने में मीडिया के अधिकतर हिस्से के हीरो थे, वो मंडल आरक्षण के बाद खलनायक बन गए.
मीडिया के एक बड़े हिस्से के उनके प्रति बदले रुख से वी पी इतना दुःखी हुए थे कि उन्होंने 1996 में प्रधानमंत्री का पद ठुकरा दिया. ज्योति बसु से लेकर संयुक्त मोर्चा के कई नेता उन्हें प्रधानमंत्री बनाने के लिए दिल्ली में खोज रहे थे तब वी पी भूमिगत हो गए थे.
इस संबंध में वी पी सिंह ने बाद में पत्रकार राम बहाुदर राय को बताया कि ‘जब मैंने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किया तो मीडिया का मेरे प्रति दृष्टिकोण बदल गया. वो लोग कहने लगे कि विश्वनाथ प्रताप सिंह पद लोलुप हैं. याद दिलाया गया कि मैंने कहा था कि मैं प्रधानमंत्री पद नहीं लूंगा. जो लोग तब 1989 के जनादेश की व्याख्या मेरे पक्ष में करते थे, वो ही मुझे पद लोलुप कहने लगे.
उन लोगों को यह कहां मालूम है कि लालकृष्ण आडवाणी ने मेरी पत्नी को कई बार फोन किया था कि मैं जनता दल संसदीय दल के नेता के पद को स्वीकार कर लूं. इसलिए इस बार यानी 1996 में मैं यह नहीं चाहता था कि मेरे बाल-बच्चों को यह सुनना पड़े कि तुम्हारे पिता पद लोलुप थे.
मैं चाहता था कि वो यह कह सकें कि 'मेरे पिता ने प्रधानमंत्री का पद ठुकराया था’. उत्तर प्रदेश के डैया रियासत में वी पी सिंह का जन्म 25 जून, 1931 को हुआ था. पांच साल की उम्र में मांडा रियासत के राजा ने विश्वनाथ को दत्तक पुत्र के रूप में गोद लिया.
उथल-पुथल से भरा जीवन जीने वाले विश्वनाथ प्रताप 1969 में पहली बार उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य बने थे. बाद में वो मुख्यमंत्री और देश के प्रधानमंत्री भी बने. वी पी सिंह का विवादों से लगातार संबध रहा. उन्होंने उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री पद भी विवादास्पद परिस्थितियों में छोड़ा.
केंद्रीय मंत्री के रूप में भ्रष्टाचार के सवाल पर उनका प्रधानमंत्री राजीव गांधी से लंबा विवाद चला. जब 1989 के लोकसभा चुनाव के बाद गैर कांग्रेसी सरकार के गठन का वक्त आया तो भी विवाद उठा. जनता दल संसदीय दल ने पहले चौधरी देवी लाल को अपना नेता चुना और उसके तुरंत बाद देवी लाल ने अपनी पगड़ी वी पी सिंह के सिर पर बांध दी.
'वोट आपके नाम पर मिला है. मैं बनूंगा तो जनता डंडा लेकर मारेगी’
उससे पहले देवी लाल और वी पी के बीच अकेले में दिलचस्प संवाद हुआ था. मंच पर पेश होने वाले राजनीतिक नाटक का स्क्रिप्ट तैयार करते समय देवीलाल ने वी पी सिंह को व्यक्तिगत बातचीत में कहा कि ‘नेता पद के लिए पहले मेरे नाम का प्रस्ताव पास हो जाएगा, फिर मैं मना कर दूंगा और आप हो जाइएगा.’ इस पर वी पी ने उनसे कहा कि आपको मना करने की क्या जरूरत है? आप प्रधानमंत्री बनिए. तो देवीलाल ने कहा कि ‘वोट आपके नाम पर मिला है. मैं बनूंगा तो जनता डंडा लेकर मारेगी.’
फिर वही हुआ जो नेपथ्य में तय हुआ था. उस पर चंद्रशेखर ने सभा भवन से वाॅक आउट किया क्योंकि इस स्क्रिप्ट की पूर्व सूचना उन्हें नहीं थी. किसी बड़े नेता के अनशन के दौरान भी कितनी बड़ी बदइंतजामी हो सकती है, वह 1993 में मुंबई में साबित हुआ. उसके शिकार वी पी सिंह हुए.
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वहां उनकी किडनी खराब हो गई और समय बीतने के साथ उनकी स्थिति बिगड़ती चली गई. कुछ अन्य बीमारियों ने भी उनके शरीर में अपना घर बना लिया. आखिर में 27 नवंबर, 2008 को वी पी सिंह का निधन हो गया.
उस अनशन के बारे में कुछ बातें वी पी सिंह के शब्दों में, ‘जहां मैं भूख हड़ताल पर बैठा था, वह बहुत व्यस्त चैराहा था. जनता दल वालों ने इस बात का ध्यान नहीं रखा कि वो पेशाब वगैरह के लिए कोई प्रबंध करते. बाकी लोग तो उठकर इधर-उधर चले जाते थे, मैंने उस दौरान पानी कम पीया जिससे मेरी किडनी को नुकसान पहुंचा.’
'कभी आरोप नहीं लगाया था कि बोफोर्स सौदे में राजीव गांधी को पैसे मिले'
इस बात को लेकर भी वी पी सिंह की बदनामी हुई थी कि वो बोफर्स घोटाले के बारे में अपने पहले के आरोपों से बाद में पलट गए थे. पर 6 फरवरी, 2004 को वी पी सिंह ने मीडिया से कहा कि ‘मैं अपने आरोप पर कायम हूंं. बोफर्स सौदे में दलाली दी गई थी. मैंने उस बैंक खाते का नंबर भी बताया था जिसमें दलाली के पैसे जमा किए गए. जांच में नंबर सही पाया गया पर मैंने कभी यह आरोप नहीं लगाया था कि राजीव गांधी को पैसे मिले हैं.’
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