ये उन दिनों की बात है जब हिंदुस्तान-पाकिस्तान को अलग हुए थोड़ा ही वक्त बीता था. दोनों ही देशों में अलग तरह का माहौल था. अलग तरह का संघर्ष था. दोनों ही तरफ मौत का मंजर था. भूखे लोग थे. असहनीय पीड़ा थी. ये वही वक्त था जब दोनों ही देशों को अलग-अलग नियम कानून में बांधने की कोशिश भी चल रही थी.
कहते हैं इसी दौरान पाकिस्तान में इस बात के प्रयास भी किए गए थे कि एक अलग किस्म की राष्ट्रीय संस्कृति का विकास किया जाए. हिंदुस्तान से अलहदा किस्म का संगीत तैयार करने की सोची जाए. ऐसी परिकल्पना अभी विचारों में ही थी जब 35-36 साल के कलाकार ने सवाल किया था- क्या हिंदुस्तान पाकिस्तान के बंटवारे के साथ साथ कला संस्कृति का बंटवारा भी हो गया है? क्या यहां भी जमीन जायदाद के बंटवारे वाला नियम लागू हो गया है? क्या संगीत के सात सुर में से चार हिंदुस्तान में हैं और तीन पाकिस्तान चले गए?
ये सवाल उस महान कलाकार की सोच को बताता था. वो संगीत में एकता की परंपरा को देखते थे. इसीलिए उन्होंने खुद को घरानेदार संगीत सीखने के बाद भी घरानेदारी से दूर रखने का भरसक प्रयास किया. वो महान कलाकार थे उस्ताद अमीर खां, जिनका आज जन्मदिन है.
सारंगी और वीणा में महारथ थी जिसकी
उस्ताद अमीर खां भारतीय शास्त्रीय संगीत के महान कलाकारों में गिने जाते हैं. उनका पैदाइश 15 अगस्त 1912 को हुई. पिता शाहमीर खां भेंडीबाजार घराने से ताल्लुक रखते थे. सारंगी और वीणा के मशहूर कलाकार थे. जाहिर है अमीर खां बचपन से ही संगीत सीखने लगे. हां, ये जरूर है कि शास्त्रीय गायकी से पहले उन्होंने सांरगी की तालीम ली थी. घर में हर शुक्रवार को संगीत की महफिल लगती थी.
एक रोज अमीर खां के पिता को समझ आया कि बेटे का ध्यान गायकी की तरफ ज्यादा लग रहा है. उन्होंने भी बेटे को रोकने की बजाए उन्हें शास्त्रीय गायकी की तालीम दिलाने पर जोर दिया. इसका असर ये हुआ कि जल्दी ही अमीर खां रंगमंच में गाने लगे. धीरे धीरे सारंगी बजाना बिल्कुल ही छूट गया.
कहते हैं कि एक बार अब्दुल वहीद खान साहब ने अमीर खां को गाते हुए सुना. उन्हें अमीर खां की गायकी बहुत पसंद आई और उन्होंने उनको अपना शिष्य बना लिया. अब्दुल वहीद खान किराना घराने के बेहद प्रतिष्ठित कलाकारों में गिने जाते थे. शास्त्रीय संगीत की दुनिया में अमीर खां की वाहवाही तब शुरू हुई जब वो दिल्ली छोड़कर कोलकाता गए. वहां पर उन्होंने रेडियो के लिए रिकॉर्डिंग की और लोगों ने उनकी गायकी को जमकर सराहा. कोलकाता में थोड़ा समय बीताने के बाद उस्ताद अमीर खां मुंबई चले गए.
गायकी नहीं चिंतन करते थे अमीर खान
धीरे धीरे उस्ताद अमीर खां की गिनती उन शास्त्रीय गायकों में होने लगी जो गायकी नहीं बल्कि चिंतन करते हैं. एक-एक सुर में डूबते जाना और डुबाते जाना ही उनकी खासियत थी. इस किस्से की प्रामाणिकता तो नहीं पता लेकिन कहते हैं कि उनके इसी सुर चिंतन की वजह से उन्हें शुरुआती दिनों में एक बार लोगों ने ‘हूट’ तक कर दिया था. लेकिन उस्ताद अमीर खां को अपनी गायकी से समझौते की आदत नहीं थी. उन्होंने खयाल गायकी की उस परंपरागत सोच को भी पूरी तरह तोड़ा जिसमें कहा जाता था कि खयाल गायकी में शब्दों का महत्व नहीं होता है.
भैरव, तोड़ी, केदार, ललित, मारवा, पूरिया, दरबारी, मुल्तानी, पूर्वी, मारवा, रागेश्री, शुद्ध कल्याण, शुद्ध सारंग जैसे रागों को गाने में उन्हें बहुत मजा आता था. लेकिन नियम वही था कि पहले वो अपनी गायकी का मजा खुद लेते थे. आम संगीत प्रेमियों में उस्ताद अमीर खां का नाम तब प्रचलित हुआ जब वो ‘बैजू बावरा’ और ‘झनक झनक पायल बाजे’ के साथ जुड़े. 1952 में रिलीज हुई फिल्म बैजू बावरा का संगीत नौशाद साहब ने दिया था.
उन्होंने अपने ‘रिस्क’ पर इस फिल्म में उस्ताद अमीर खां और पंडित डीवी पलुष्कर से गायकी करवाई. जो प्रयोग उस दौर में जमकर हिट हुआ. बैजू बावरा में राग पूरिया धनाश्री में ‘तोरी जय जयकार’ और राग देसी में ‘आज गावत मन मेरो झूमके’ उस दशक के पसंदीदा गानों में शुमार रहे. इस फिल्म की कामयाबी के तुरंत बाद ही महान फिल्म निर्माता वी. शांताराम फिल्म बना रहे थे- झनक झनक पायल बाजे. फिल्म में संगीत वसंत देसाई का था. इस फिल्म का टाइटिल गीत उस्ताद अमीर खां ने गाया था. इन दोनों फिल्मों ने उस्ताद अमीर खां को आम संगीत प्रेमियों में भी खूब शोहरत दिलाई.
अमीर खां की दीवानी थीं लता
उस्ताद अमीर खां की गायकी के दीवानों में भारत रत्न लता मंगेशकर भी शुमार हैं. वो अपने पसंदीदा शास्त्रीय गायकों की फेहरिस्त में हमेशा खां साहब का नाम बड़ी प्रमुखता से लेती रही हैं. उनकी राय में उस्ताद अमीर खां का संगीत सुनना मन को शांति के एक सफर पर ले जाने जैसा है.
लता मंगेशकर के भाई और जाने माने संगीत निर्देशक पंडित हृदय नाथ मंगेशकर ने तो उस्ताद अमीर खां से बाकायदा गंडा बंधवाकर संगीत सीखा था. लता मंगेशकर के बारे में भी ये कहा जाता है कि वो समय समय पर उस्ताद अमीर खां से संगीत की बारिकियों पर बात करती थीं. यहां तक 60 के दशक में लता जी को ऐसा लगता था कि जब वो ऊपर के सुरों में जाती हैं तो उनकी आवाज फटती है. उस्ताद अमीर खां की सलाह पर लता जी ने कुछ महीनों तक कोई भी गाना नहीं गाया. वो लगभग मौन की मुद्रा में रहीं. बाद में उन्होंने फिल्मी गायकी में जबरदस्त सुरीली वापसी की थी.
किराना घराने के महान कलाकारों में शुमार दूसरे भारत रत्न पंडित भीमसेन जोशी भी उस्ताद अमीर खां की गायकी के मुरीद थे. उस्ताद अमीर खां की रचनाओं में ‘गुरु बिन ज्ञान’, ‘मन सुमिरत निस दिन तुम्हारो नाम’, लाज रख लिज्यौ मोरी, साहेब, सतार, निरंकार, जय के दाता, तू रहीम राम तेरी माया अपरम्पार, मोहे तोरे करम पे आधार जग के दाता’ सुन लीजिए आपको गायकी में उनकी गंभीरता का अहसास आसानी से हो जाएगा.
उस्ताद अमीर खां ने हमेशा श्रोताओं की पसंद नापसंद के बराबर ही इस बात का भी ध्यान रखा कि उनके गायन की शास्त्रीयता पर तो कोई आंच नहीं आ रही है. फरवरी 1974 में कोलकाता में एक सड़क दुर्घटना में खां साहब का इंतकाल हो गया था.
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