अब से कोई पचास साल पहले की बात है. आईएएस की परीक्षा में टॉप करने वाला एक नौजवान शहर चेन्नई (तब मद्रास) में परिवहन निदेशक(डायरेक्टर ऑफ ट्रांसपोर्ट) नियुक्त होकर आया. कुल 3 हजार बसों और 40 हजार कर्मचारियों की कमान उसके हाथ में थी.
दिन नौजवानी के थे और जज्बा का कुछ नया कर दिखाने का. हर वक्त धुन ये सवार रहती कि यातायात के नियमों का कड़ाई से पालन हो. कानून का पालन करवाने की धुन में डायरेक्टर साहब अक्सर सड़कों पर देखे जाते थे. एक दिन उनसे एक बस ड्राइवर ने पूछ लिया-डायरेक्टर साहब ! क्या आप बस के इंजन के बारे में जानते हैं?
जब डायरेक्टर साहब बस ड्राइवर बने
डायरेक्टर साहब इस सवाल पर सन्न रह गए. ड्राइवर ने अपनी बात आगे बढ़ाई, 'अगर आप बस के इंजन के बारे में नहीं जानते, बस को चलाना भी नहीं जानते तो फिर आप ड्राइवरों की किसी परेशानी को कैसे समझेंगे?'
बात नौजवान डायरेक्टर के दिल को लग गई. उसने बस ड्राइविंग तो सीखी ही, बसों के वर्कशॉप में भी वक्त गुजारा. और यह हुनर एक दिन बड़े मौके पर काम आया. नौजवान के परिवहन निदेशक रहते चेन्नई में बस ड्राइवरों की हड़ताल हुई. बस फिर क्या था, डायरेक्टर साहब एक बस पर सवार हुए और यात्रियों से भरी उस बस को पूरे 80 किलोमीटर तक चलाकर ले गए.
सन् 1960 के दशक में एक दिन चेन्नई की सड़कों पर बस चलाकर नौकरशाहों के लिए फर्जअदायगी की नजीर कायम करने वाला वाला यही डायरेक्टर ऑफ ट्रांसपोर्ट आगे चलकर (दिसंबर,1990) देश का मुख्य चुनाव आयुक्त बना. और, मुख्य चुनाव आयुक्त रहते दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहलाने वाले भारत के चुनावों में जारी धनबल, बाहुबल और मंत्रीपद के दुरुपयोग पर ऐसी नकेल कसी कि मीडिया में मुहावरा बना- एक तरफ नेशन, दूसरी तरफ शेषन!
जी हां, आपने ठीक समझा-यहां बात मुख्य चुनाव आयुक्त रहते देश के मध्यवर्ग के दिलों पर राज करने वाले तिन्नेल्लई नारायण अय्यर शेषन की हो रही है जिन्हें हम-आप टी.एन. शेषन के नाम से जानते हैं.
चार साल पहले जब टी.एन शेषन अपनी उम्र का 83वां साल पूरा कर रहे थे, चेन्नई स्थित उनके आवास पर एक पत्रकार ने पूछा- आप अपना सबसे बढ़िया कार्यकाल कौन सा मानते हैं? सन् 1950 के दशक में मदुरै (डिंडिगुल) के सब कलेक्टर के पद से शुरुआत कर देश के कैबिनेट सचिव और फिर मुख्य चुनाव आयुक्त का पद संभालने वाले टी.एन. शेषन का जवाब था, ढाई वर्ष का वह कार्यकाल जब चेन्नई मैं डायरेक्टर ऑफ ट्रांसपोर्ट हुआ करता था. मैं बस का इंजन अब भी खोल सकता हूं और उसे दोबारा बस में लगा सकता हूं.'
सवाल पूछने वाले पत्रकार के मन में इस जवाब को सुनकर चाहे जो आया हो लेकिन हम-आप यह अनुमान तो लगा ही सकते हैं कि टी.एन. शेषन ने मुख्य चुनाव आयुक्त रहते जब कहा था कि 'आई ईट पॉलिटिशियन्स फॉर ब्रेकफॉस्ट' तो ऐसा कहने का जज्बा उनमें कहां से आया होगा !
शेषन का शुरुआती सफर
'हम क्या कहें अहबाब क्या कार-ए-नुमायां कर गए/बीए हुए नौकर हुए पेंशन मिली फिर मर गए.' ये शेर अकबर इलाहाबादी का है और 'स्टील फ्रेम' कहलाने वाली नौकरशाही के अफसरान बनने वालों की जिंदगी की पोल खोलता है.
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टी.एन.शेषन नौकरशाह रहते कैबिनेट सचिव के पद पर पहुंचे लेकिन उनके इस सफरनामे के किसी भी मुकाम पर अकबर इलाहाबादी के इस शेर को लागू नहीं कर सकते. पिता वकील थे और शेषन छह भाई-बहनों (दो भाई, चार बहन) में सबसे छोटे. अपने बचपन के दिनों की याद करते हुए शेषन ने तनिक मजाकिया लहजे में लिखा है, 'परिवार निम्न मध्यवर्गीय था, लेकिन केरल के जिस ब्राह्मण कुल में मेरा जन्म हुआ उसमें लोगों ने चार कामों-नौकरशाही, संगीत, रसोइया और ठगी में नाम कमाया है.'
कुल-परंपरा से अलग शेषन वैज्ञानिक बनना चाहते थे लेकिन संयोग देखिए कि बने वे नौकरशाह ही. फिजिक्स से बीएससी थे सो कुछ दिन कॉलेज में विज्ञान पढ़ाया लेकिन वेतन इतना कम था कि सोचा बड़े भाई के नक्श-ए-कदम पर चलकर नौकरशाह बनना ही ठीक है. बड़े भाई टी.एन. लक्ष्मीनारायणन आईएएस के पहले बैच के टॉपर थे. शेषन पहले आईपीएस की परीक्षा में बैठे और टॉपर हुए फिर अगले साल(1954) 21 साल की उम्र में आईएएस की परीक्षा में शीर्ष स्थान पर रहे.
मदुरै (डिंडिगुल) की सब कलेक्टरी हो या फिर ग्राम विकास के सचिव (1958) की जिम्मेदारी शुरुआती दौर से ही हर पद पर उन्होंने साबित किया ‘बीए हुए नौकर हुए पेंशन मिली और मर गए' वाली नियति उनकी नहीं होने जा रही.
डिंडिगुल में स्थानीय कांग्रेस के प्रेसिडेंट के पति पर गबन का आरोप लगा था. शेषन के ऊपर राजनीतिक दबाव था कि आरोपी को गिरफ्तार न किया जाय लेकिन शेषन ने फर्ज भी निभाया और नौकरी भी बचाई. परिवहन विभाग की डायरेक्टरी वाला किस्सा हमलोग ऊपर पढ़ ही चुके हैं. तब ढाई साल के भीतर शेषन ने चेन्नई में खस्ताहाल परिवहन-व्यवस्था को चाक-चौबंद करने का करिश्मा कर दिखाया था. उनके बारे में यह भी कहा जाता है कि नौकरी के ऊंचे पदों पर पहुंचने पर जिस भी मंत्रालय में महत्वपूर्ण पद संभाला वहां प्रभारी मंत्री की छवि चमक गई.
बेशक, एक नौकरशाह के रूप में शेषन की कामयाबियों की फेहरिश्त लंबी है और वे खुद भी एक चेन्नई में डायरेक्टर ऑफ ट्रांसपोर्ट के रूप में बिताए अपने कार्यकाल को सबसे श्रेष्ठ मानते हैं लेकिन भारत का मध्यवर्ग उन्हें किसी और रूप में याद करता है.
लोकतंत्र के महापर्व का महापुरोहित
मध्यवर्ग के मन में शेषन की छवि आने वाले कई दशकों तक दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के महापर्व चुनाव के महापुरोहित यानि एक ऐसे व्यक्ति के रूप में कायम रहेगी जिसने सिर्फ संविधान का कहा किया. खुद कानून की चौहद्दी में रहा, दूसरों को इस चौहद्दी के भीतर रहने की हिदायत दी और अगर किसी ने इस हिदायत का जरा सा भी उल्लंघन किया तो चाहे वह कोई भी हो-इस महापुरोहित के कोप का शिकार हुआ.
अब से तकरीबन तीन दशक पहले वह भारतीय राजनीति में उथल-पुथल का जमाना था. वी.पी.सिंह की सरकार के गिरने के बाद केंद्र में चंद्रशेखर की सरकार(10 नवंबर 1990- 21 जून 1991) बस बनी ही थी. वी.पी.सिंह के जगाए बोफोर्स के जिन्न ने राजीव गांधी की कांग्रेस को विपक्ष में बैठने के लिए मजबूर किया था और महज 64 सांसदों वाली चंद्रशेखर की सरकार को विपक्ष में बैठी कांग्रेस की बैसाखी का सहारा था. कहते हैं, चंद्रशेखर की सरकार ने राजीव गांधी के कहने पर कैबिनेट सचिव टी.एन. शेषन को मुख्य चुनाव आयुक्त बनाया था.
लेकिन शेषन ने मुख्य चुनाव आयुक्त बनने के चंद महीनों के भीतर अपने फैसलों से स्पष्ट कर दिया कि उनको कांग्रेस का तरफदार बताने वाले आलोचक गलत हैं. सख्ती और आगे के इरादे का पता देता शेषन का यह वाक्य 1991 के मार्च महीने तक अखबारों में छप चुका था - 'भूल जाइए कि संसद में गलत तौर-तरीकों का इस्तेमाल करके पहुंच सकेंगे आप. किसी को ऐसा करने की इजाजत नहीं दी जाएगी.'
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लोग सालों से चाह रहे थे कि कोई चुनावी गंगा को धनबल, बाहुबल और सत्ताबल से गंदा करने वाले नेताओं पर लगाम कसे और टी.एन.शेषन की खबरदार करती कड़क आवाज गूंजी तो लोगों को लगा यह कोई मुख्य चुनाव आयुक्त नहीं बल्कि देश का सामूहिक विवेक बोल रहा है.
शेषन ने जैसा कहा था, 1991 के चुनावों(10 वीं लोकसभा) में ठीक वैसा ही करके दिखाया. इसकी पहली बानगी देखी 1991 के पहले पखवाड़े में जारी किए गए उनके आदेश में. शेषन ने पांच राज्यों बिहार, यूपी, हरियाणा, राजस्थान और कर्नाटक की सरकारों से कहा आपने अपने अधिकारियों का जो थोक भाव से तबादला करना शुरू किया है उस पर रोक लगाइए, अधिकारी जहां काम कर रहे थे, वे वहीं काम करेंगे. (दरअसल चुनावों की घोषणा होने के साथ राज्यों में चुनावी गणित के हिसाब से अधिकारियों के तबादले हो रहे थे और लोकलुभावन वादों किए जा रहे थे).
राज्यों ने तकनीकी तौर पर कुछ गलत नहीं किया था. सारे तबादले 25 मार्च यानी चुनावी आचार संहिता लागू होने से पहले हुए थे. लेकिन शेषन ने कहा कि यह आचार संहिता की भावना का उल्लंघन है. शेषन के फरमान पर बाकी राज्य चुप रहे लेकिन हरियाणा सरकार ने जवाब दिया कि तबादले का आदेश हम नहीं रद्द करने वाले.
सोचिए, हरियाणा सरकार की इस रुखाई का शेषन ने क्या जवाब दिया होगा? शेषन का पलटवार था, 'ना रुकने वाला तूफान ना हिलने वाले पहाड़ से टकराये तो फिर दोनों में से किसी एक को झुकना पड़ता है!'
आगे के सालों में शेषन का यह अंदाज और तल्ख हुआ और उनके कामकाज के अंदाज की यह तल्खी ही थी जो वे राजनेताओं को जितना खटकते चले गए, मध्यवर्ग के दिल पर उतनी ही उनकी बादशाहत बढ़ती गई.
शेषन ने किसी को नहीं बख्शा
शेषन पर कांग्रेसी होने का ठप्पा लगा था लेकिन जल्दी ही कांग्रेस को समझ में आ गया कि मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एन.शेषन को न तो पिछला उपकार याद दिलाकर रोका जा सकता है, न ही लालच दिखाकर डिगाया जा सकता है. कोई चाहे तो मिसाल के तौर पर कांग्रेस के विजय भास्कर रेड्डी और संतोष मोहन देब के साथ शेषन के बरताव को याद कर सकता है.
विजय भास्कर रेड्डी(केंद्रीय मंत्री) को आंध्रप्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया गया और पद पर बने रहने के लिए नियम के मुताबिक उनके लिए छह महीने के भीतर चुनाव में निर्वाचित होना जरूरी था. शेषन ने उपचुनाव कराने से इनकार कर दिया. तर्क दिया कि विजय भास्कर रेड्डी की जरूरत के हिसाब से उपचुनाव नहीं होंगे. जब बाकी जगहों के उपचुनाव होंगे तो ही आंध्रप्रदेश में उपचुनाव कराए जाएंगे.
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त्रिपुरा के चुनाव(1988) में कांग्रेस को जीत दिलाने वाले संतोष मोहन देब(केंद्रीय मंत्री) भी एक दफे टी.एन.शेषन का निशाना बने. 1993 के त्रिपुरा विधानसभा के चुनाव फरवरी महीने में होने वाले थे. शेषन ने चुनाव स्थगित कर दिए. कहा जबतक उन पुलिस अधिकारियों पर कार्रवाई नहीं हो जाती जिनकी संतोष मोहनदेब के साथ चुनाव-प्रचार के दौरान मिलीभगत की खबरें आई हैं, तब तक त्रिपुरा में चुनाव नहीं होंगे. त्रिपुरा में चुनाव अप्रैल(1993) में हुए, पुलिस अधिकारियों पर सरकार को कार्रवाई करनी पड़ी.
कानून के पालन पर अडिग शेषन ने अर्जुन सिंह को भी नहीं बख्शा. मध्यप्रदेश, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश में बीजेपी की सरकारों को भंग करने के बाद पी.वी नरसिम्हाराव सरकार के सबसे ताकतवर मंत्रियों में शुमार अर्जुन सिंह ने कहा इन राज्यों में चुनाव एक साल बाद होंगे. शेषन ने तुरंत प्रेस विज्ञप्ति जारी कर याद दिलाया कि चुनाव की तारीख मंत्रिगण या प्रधानमंत्री नहीं बल्कि चुनाव आयोग तय करता है.
शेषन के ऐसे फैसलों से चिढ़कर एक दफे नरसिम्हाराव ने उनसे निजात पाने की सोची. द इंडिपेन्डेन्ट अखबार में छपे लेख में टिम मैक्गिर्क ने वो किस्सा कुछ यों बयान किया है: एक दफे प्रधानमंत्री राव ने शेषन को बुलाया और कहा, 'शेषन! कहिए मैं आपके लिए क्या कर सकता हूं. उन्होंने शेषन के सामने दो विकल्प रखे. कहा कि आप चाहें तो किसी राज्य के राज्यपाल बन जाएं या फिर वाशिंग्टन में भारत के राजदूत. शेषन ने इनकार कर दिया. इस वाकये को याद करते हुए बाद में शेषन ने मजाकिया अंदाज में कहा, 'मुझे उपहार में सिर्फ गणेश की मूर्तियां अच्छी लगती हैं. इसलिए कि मैं खुद ही बहुत कुछ गणेश की तरह दिखता हूं.'
और आखिर में...
चुनाव में उम्मीदवारों के खर्च पर लगाम लगाने की बात हो या फिर सरकार से उधार पर लिए गए हेलिकॉप्टर के जरिए मंत्रियों के चुनाव-प्रचार करने की रीत पर रोक की बात -आज जो चीजें किसी नियम की तरह स्थिर नजर आती हैं तो इसकी वजह है टी.एन.शेषन का चुनाव-सुधार मिशन. दीवारों पर नारे लिखना और पोस्टर चिपकाना, लाउडस्पीकरों से कानफोड़ू शोर करना, चुनाव-प्रचार के नाम पर सांप्रदायिक तनाव पैदा करने वाले भाषण देना सबकुछ टी.एन.शेषन के निशाने पर आया और नेतृवर्ग ऐसे सवालों पर नए सिरे से सोचने पर मजबूर हुआ.
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शेषन अपने फैसलों के कारण कई दफे विवाद में पड़े. एक बार तो उन्होंने यह तक कह दिया था कि जबतक सबके वोटर आईकार्ड नहीं बन जाते, इस देश में चुनाव नहीं होंगे. ऐसे कुछ फैसलों के कारण उन्हें प्रचार-लोभी और अहंकारी कहा गया. कई बार उनके फैसलों पर अदालत को हस्तक्षेप करना पड़ा. यह भी कहा जाता है कि शेषन ने संविधान के अनुच्छेद 324 के अंतर्गत प्राप्त शक्तियों की मनमानी व्याख्या की. और, एक वक्त ऐसा भी आया जब उनकी शक्ति सीमित करने के लिए चुनाव आयोग की संरचना में बदलाव करते हुए एक की जगह तीन चुनाव आयुक्त नियुक्त करने का विधान रचा गया.
शेषन आज अपनी उम्र के आठवें दशक में ऐसी आलोचनाओं और प्रशंसाओं से बहुत दूर जा चुके हैं. लेकिन चेन्नई के उनके घर पर आप कभी समय निकालकर जाएं और बीती बातों को पूछें तो वे आपको यह जरूर बताएंगे, 'मैं राजनीति से नहीं, बुरे राजनेताओं से नफरत करता हूं.'
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