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संसद पर अब उल्लुओं की भी नजर है, पर रहेंगे तो वो उल्लू ही न!

कुछ उल्लू बने होते हैं. कुछ बनाने पड़ते हैं. जनता को उल्लू बना सरकार किस तरह घोटाले-पर-घोटाले कर रही है और अवाम उल्लू की तरह आंख फाड़े तमाशबीन बनी है

Updated On: Dec 17, 2018 05:36 PM IST

Hemant Sharma Hemant Sharma
वरिष्ठ पत्रकार

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संसद पर अब उल्लुओं की भी नजर है, पर रहेंगे तो वो उल्लू ही न!

अखबार में एक तस्वीर छपी है. संसद के गलियारे में उल्लुओं ने अपना डेरा जमा लिया है. यानी संसद के भीतर क्या हो रहा है, इस पर अब उल्लुओं की भी पैनी नजर है.

अजब हैं उल्लू भी. रहते हैं सदन के गलियारों में और प्रभाव छोड़ रहे हैं भीतर. यह बात दीगर है कि सदन के भीतर सभी दल अपना-अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं. जबकि पूरे देश में उल्लुओं के अस्तित्व पर संकट है. शायद इसीलिए उल्लुओं ने संसद की सुध ली. यह जानते हुए कि ‘बर्बाद गुलिस्तां’ करने को बस एक ही उल्लू काफी है.

हमारे आसपास उल्लूपन का विस्तार भले ही तेजी से हो रहा हो, पर बेचारा उल्लू विलुप्ति की ओर है. तंत्र-मंत्र और अंधविश्वास ने इस खूबसूरत और बिंदास पक्षी को ग्रस लिया है. उल्लू गजब का प्राणी है. धीर, गंभीर, दार्शनिक और वीतरागी. न ऊधो का लेना, न माधो का देना.

उल्लू को हमारे देश में भले ही मूर्खता का प्रतीक माना जाए, पर पश्चिम में वह ज्ञान और बुद्धि की मिसाल है. पश्चिमी दर्शन में उल्लू ज्ञान की देवी का वाहन है, तो हमारी परंपरा में यह लक्ष्मी का वाहन है. इसीलिए इतना तो तय है कि धन कमाने की कला उल्लू जरूर जानता होगा. रात के अंधेरे में वह प्रकाश फैलाता है. घुप्प अंधकार में जब कुछ नहीं सूझता तो वह रास्ता दिखलाता है. किसानों का दोस्त है. चूहे और खेती को नुकसान पहुंचाने वाले कीड़ों का खात्मा करता है. फसल को बचाता है. बड़े काम की चीज है यह उल्लू.

उल्लूओं की बलि:

बचपन में घर के पास नीम के पेड़ के नीचे पकौड़ी बेचनेवाली एक बुढ़िया रहती थी. बच्चे उसे प्यार से नानी कहते थे. इसी नीम के कोटर में उल्लुओं का एक जोड़ा रहता था. पकौड़ी खरीदनेवालों की उत्सुकता उल्लुओं में ज्यादा होती थी. जब तक पकौड़ी बनती थी, हम उल्लुओं से खेलते थे. कभी-कभी हम उन्हें छू भी लेते थे. वे बिना किसी प्रतिक्रिया के दार्शनिक अंदाज में हमें देखते रहते थे. उस वक्त हमें पता नहीं होता था कि बेचारे हमें देख नहीं पा रहे हैं.

कुछ रोज बाद एक उल्लू गायब हो गया. बाद में दूसरा उल्लू भी गायब हुआ. हम कई दिनों तक उन्हें ढूंढते रहे. बाद में पकौड़ीवाली बुढ़िया ने जो बताया, उसे सुनकर हमारे होश उड़ गए. बुढ़िया के मुताबिक दिवाली की रात एक तांत्रिक ने दोनों उल्लूओं की बलि दे दी. उसकी आंख, दांत और पांव का इस्तेमाल लक्ष्मी की सिद्धि के लिए किया. यह जानकर हम बहुत उदास हुए. जिस उल्लू से पहली बार अपना संवाद बना था, वह तंत्र-मंत्र की भेंट चढ़ गया. हमने नीम के पेड़ के नीचे जाना बंद कर दिया.

दिवाली पर तांत्रिकों द्वारा उल्लूओं की बलि देने की प्रथा आज भी जारी है

दिवाली पर तांत्रिकों द्वारा उल्लूओं की बलि देने की प्रथा आज भी जारी है

उल्लू आज भी तांत्रिकों के शिकार हो रहे हैं. वशीकरण के लिए उनकी बलि ली जा रही है. भ्रम है कि उल्लू के साथ तांत्रिक अनुष्ठान करने से लक्ष्मी आती है. दुश्मन को ठिकाने लगाने के लिए तांत्रिक श्मशान में उल्लू की बलि देते हैं. इस तर्क के साथ कि उल्लू की आंखों से प्रेमिका वश में आएगी. उसकी हड्डी से पैसा आएगा. पंजे से रोग दूर होंगे. दीपावली की रात कुछ तांत्रिक मंत्र सिद्धि के लिए उल्लू के रक्त से स्नान भी करते हैं. ये ऐसे अंधविश्वास हैं, जिनसे उल्लू के पारिवारिक जीवन पर खतरा बन आया. वे नष्ट हो रहे हैं.

अजीब है कि जहां हमारे समाज में उल्लूपन की प्रतिष्ठा है, वहीं उसका आईना कहे जानेवाले साहित्य में उल्लू के साथ कहीं न्याय नहीं हुआ. साहित्य में उल्लू को हाशिए पर रखा गया है. कवि कहता है-

मैं कैसे मानूं बरसते नैनों कि तुमने देखा है, पी को आते

न काग बोले, न मोर नाचे, न कूकी कोयल, न चटखी कलियां.

यानी कवियों ने मोर, कोयल यहां तक कि कौवे को भी तार दिया, लेकिन उल्लू बेचारा साहित्य में जगह बनाने के लिहाज से अभागा ही रहा. उसे किसी लायक नहीं समझा गया है. मूर्ख, मूढ़, जड़मति और बुद्धिहीन होने के अपमान के साथ वह जीता रहा.

हमारे यहां वैशेषिक दर्शन के एक आचार्य हुए हैं उलूक. उनके दर्शन को औलुक्य दर्शन भी कहते हैं. यह दर्शन न्याय दर्शन का जुड़वां भाई है. संस्कृत कोश के मुताबिक इंद्र का एक नाम उलूक भी है. उल्लू रात के वक्त सक्रिय रहता है. इंद्र के भी रात के किस्से मशहूर हैं.

देशी परंपरा उल्लू को अमंगल मानती है. ऋग्वेद के मुताबिक उल्लू और कबूतर मृत्यु के दूत हैं. उल्लू का रात में बोलना अशुभ माना जाता हैं. दुनिया भर में उल्लुओं की 32 प्रजातियां हैं. इनमें सबसे ज्यादा बुद्धिमान उल्लू को चुगधु घुग्घु कहते हैं. उल्लू के कई दूसरे नाम भी हैं—निशाचर, वज्रधर, कुचकुचवा, पेचकी, घर्घर, काकभीरु, कौशिक, दिवांध, निशिचर, मघवा और शक्र.

उल्लू हैं शायद इसलिए ही उल्लू हैं!

लक्ष्मी को भी उल्लू पसंद आने की खास वजह शायद उसका उल्लू होना ही है.

उल्लू जितने भी मिलें, झुककर करो प्रणाम

उलटे-सीधे वक्त में उल्लू आते काम

उल्लू आते काम, साथ लक्ष्मी को लाएं

क्या जाने किस रूप में फिर उल्लू मिल जाएं

लेकिन हम तो ठहरे काठ के उल्लू. गृहलक्ष्मी को काठ का उल्लू पसंद है. जो उनकी उंगली के इशारे पर नाचता फिरे. गृहलक्ष्मी यह भी चाहती है कि उनका उल्लू सिर्फ उनके लिए उल्लू हो. बाकी संसार के लिए नहीं. शायद इसीलिए सिर्फ सुननेवाले और जवाब न देनेवाले उल्लुओं की बाजार में ज्यादा मांग है.

अगर किसी को काठ का उल्लू कहें तो गाली मानी जाती है. उल्लू का पट्ठा कहें तो बवाल मचता है. पट्ठा शब्द जवान के लिए प्रयोग में आता है. पर उल्लू का पट्ठा वल्दियत बदल देता है. कुछ उल्लू बने होते हैं. कुछ बनाने पड़ते हैं. देखा आपने, जनता को उल्लू बना सरकार किस तरह घोटाले-पर-घोटाले कर रही है और अवाम उल्लू की तरह आंख फाड़े तमाशबीन बनी है. उल्लू बनना तो जनता जनार्दन की किस्मत में ही लिखा है.

(यह लेख हेमंत शर्मा की पुस्तक 'तमाशा मेरे आगे' से लिया गया है. पुस्तक प्रभात प्रकाशन द्वारा प्रकाशित की गई है)

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