1980 के दशक के आखिरी सालों की बात है. कलकत्ता से एक कलाकार मुंबई पहुंचा. उसकी ख्वाहिश थी कि वो फिल्मों में गाना गाए. धीरे-धीरे वासी इलाके में कुछ लोगों से उसकी जान-पहचान हो गई. इसी इलाके की एक मेस में उन लोगों ने उसके अपने साथ रहने और खाने का इंतजाम कर दिया. शर्त बस ये थी कि दिन में दो-चार गाना सुनाना होगा. बात बन गई. मुंबई जैसे महंगे शहर में कलाकार के खाने-रहने का इंतजाम हो गया.
एक दिन उस कलाकार ने थोड़ी दूर के ही होटल में देखा कि वहां एक गायक गाना गा रहा है. उसे लगा कि वो भी लोगों के मनोरंजन के लिए ये काम कर सकता है. उसने होटल मालिक से मिलने का समय मांगा. बड़ी मुश्किल से मुलाकात हुई. उस कलाकार ने अपने बारे में बताते हुए कहा कि इस तरह तो वो भी गा सकता है. होटल मालिक ने जवाब दिया कि 'वो तो ठीक है तुम भी गा सकते हो लेकिन जो गायक पहले से मेरे यहां है उनका क्या करूं?' काफी बातचीत के बाद तय हुआ कि उस कलाकार को एक गाना गाने का मौका मिलेगा.
पहली बार गाने पर मिली थी डेढ़ हजार की टिप
उस कलाकार ने उस होटल में आए लोगों के मनोरंजन के लिए जो गाना गाया वो था- 'मेरे नैना सावन भादो फिर भी मेरा मन प्यासा'. 1976 में फिल्म महबूबा में किशोर कुमार के गाए इन गाने को जब उस कलाकार ने गाया तो होटल में आए लोग दंग रह गए. टिप देने का सिलसिला शुरू हो गया. उस जमाने में जब रुपए की कीमत आज से बहुत ज्यादा थी तब उस कलाकार के पास डेढ़ हजार रुपए से ज्यादा की टिप जमा हो गई. इसके बाद होटल मालिक ने उस कलाकार से आकर सिर्फ इतना कहा कि 'आज तो गाना गाते ही रहो और कल से तुम्हारी नौकरी पक्की है.' ये कहानी है केदारनाथ भट्टाचार्य यानी कुमार सानू की. एक ऐसे गायक की जिन्होंने अगले दशकों में फिल्म इंडस्ट्री में पार्श्व गायन के क्षेत्र में एकछत्र राज किया.
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दरअसल सानू दादा की कहानी बड़ी दिलचस्प है. उनका जन्म कलकत्ता में एक ऐसे परिवार में हुआ जहां दिन-रात संगीत का माहौल था. छोटे थे तभी मौत को मात देकर जिंदगी पाई, जिसमें उनके पड़ोस की एक महिला का बड़ा रोल था. हुआ ये था कि कुमार सानू जब एक साल से थोड़े ही बड़े थे तो घुटनों के बल चलते-चलते घर के बाहर एक तालाब तक पहुंच गए थे. थोड़ी देर में वो तालाब के भीतर जा चुके थे. एक महिला वहीं पास में बर्तन धो रही थीं. उन्हें जब छोटा सा बच्चा कीचड़ में धंसता हुआ दिखाई दिया तो उसने किसी तरह उस बच्चे को बाहर निकाला. इसके बाद कीचड़ से सने बच्चे को गोद में उठाकर उन्होंने मोहल्ले में घूम-घूमकर पूछना शुरू किया- ये किसका बच्चा है, ये किसका बच्चा है? तब जाकर किसी तरह कुमार सानू अपने घर पहुंचे थे.
घर में था शास्त्रीय संगीत का माहौल, लेकिन फिल्मी गानों की ओर मुड़े कुमार सानू
कुमार सानू के पिता पशुपति भट्टाचार्य शास्त्रीय संगीत के दिग्गज कलाकार थे. बच्चों को पढ़ाते भी थे. 5 भाई बहन में से हर किसी को संगीत पसंद था. परेशानी ये थी कि अच्छा कलाकार होने के बाद भी पशुपति जी के पास हमेशा पैसे की किल्लत रहती थी. सानू दादा जब छोटे थे तब भी उन्हें लगता था कि शास्त्रीय संगीत में जाकर रुपए पैसे की कमी ही रहेगी इसलिए उन्होंने तय किया था कि वो फिल्मी गाने गाएंगे. इतना तय करने भर से काम नहीं चलने वाला था क्योंकि पिता बहुत सख्त मिजाज के थे. किसी तरह कुमार सानू सभी को समझा-बुझाकर बॉम्बे पहुंचे थे.
कुमार सानू के करियर में भगवान बनकर आए मशहूर गजल गायक जगजीत सिंह. कम ही लोग जानते हैं कि जगजीत सिंह ने ही कुमार सानू को शुरुआती फिल्मी गाने दिलाए थे. हुआ यूं था कि कुमार सानू एक बार किसी स्टूडियो में किशोर कुमार के गाने गा रहे थे. जगजीत सिंह भी वहीं पर थे. कहते हैं कि जगजीत सिंह को कुमार सानू की गायकी और गायकी का अंदाज अच्छा लगा. उन्होंने स्टूडियो में कुमार सानू के बारे में पता किया और उन्हें अगले दिन अपने घर आने का न्यौता दे दिया. सानू दादा के लिए तो ये सपने के पूरा होने जैसी बात थी.
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जगजीत सिंह से मुलाकात के बाद कहानी तब और आगे बढ़ी जब उन्होंने कुमार सानू को कल्याण जी आनंद जी से मिलवाया. कुमार सानू की गायकी से वो भी ‘इंप्रेस’ हुए. उन्होंने ही केदारनाथ भट्टाचार्य को कुमार सानू का नाम दिया. सानू दा के लिए बॉम्बे में ये उनका नया जन्म हुआ था. इसी दौरान एक फिल्म बनने वाली थी-आधियां. फिल्म का संगीत बप्पी लाहिड़ी दे रहे थे. फिल्म में शत्रुघ्न सिन्हा की आवाज के तौर पर एक प्लेबैक सिंगर की तलाश थी. किशोर दा शायद कहीं बाहर गए हुए थे और उनके बेटे अमित कुमार समय से स्टूडियो नहीं पहुंच पाए. जगजीत सिंह के कहने पर वो गाना कुमार सानू से गवाया गया. ये तय हुआ था कि अगर गाना पसंद नहीं आया तो बाद में उसे किशोर दा या उनके बेटे की आवाज में रिकॉर्ड कर लिया जाएगा. लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं. वो गाना सानू दादा की आवाज में ही गया.
बड़े नामों के साथ काम किया और खूब सारे अवॉर्ड जीते
इसके बाद तो अगले कुछ सालों में कुमार सानू प्लेबैक सिंगिग में संगीतकारों का पसंदीदा नाम हो गए. उन्होंने आरडी बर्मन, बप्पी लाहिड़ी, कल्याण जी आनंद जी, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, नौशाद, हदयनाथ मंगेशकर, राजेश रोशन से लेकर नदीम श्रवण, आदेश श्रीवास्तव, आनंद मिलिंद, जतिन ललित, अनु मलिक और हिमेश रेशमिया जैसे संगीतकारों के साथ काम किया.
90 के दशक में कुमार सानू की पॉपुलैरिटी टॉप पर थी. 1991 में उन्होंने फिल्म आशिकी के लिए पहला फिल्मफेयर अवॉर्ड जीता. इसके बाद तो ये सिलसिला अगले कई साल तक चला. 1992 में साजन, 1993 में दीवाना, 1994 में बाजीगर और 1995 में 1942 ए लव स्टोरी ने उन्हें लगातार सर्वश्रेष्ठ प्लेबैक सिंगर का फिल्मफेयर अवॉर्ड दिलाया.
1996 में उदित नारायण ने आखिरकार फिल्म दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे के ‘मेहंदी लगाके रखना डोली सजा के रखना’ के लिए फिल्मफेयर अवॉर्ड जीता. हालांकि उस फिल्म में भी तुझे देखा तो ये जाना सनम गाना दशकों तक लोगों की जुबान पर छाया रहा. उन्हें पद्मश्री से भी नवाजा गया. इस बीच अगले कुछ साल अभिजीत, उदित नारायण, हरिहरन और सोनू निगम जैसे गायकों ने भी शानदार गाने गाए.
एक समय वो भी आया जब सानू दादा ने हिंदी फिल्म गायकी से दूर से हो गए थे लेकिन साजिद-वाजिद उन्हें वापस लेकर आए. फिल्मों में गायकी के अलावा कुमार सानू दो बार भारतीय जनता पार्टी से भी जुड़े. पहली बार उनकी पारी ज्यादा लंबी नहीं थी. सानू दादा को उनके जन्मदिन पर ढेर सारी बधाई वो यूं ही हंसते गुनगुनाते रहें.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)
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