पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं. जैसा बोया वैसा काटा....और न जाने क्या-क्या? ऐसी छोटी-बड़ी कहावतें, उस इंसान के सामने बौनी नज़र आने लगती हैं जिसके, खून में यह सब कुछ जन्म से ही मौजूद हो. भागीरथ प्रयास के बाद हाथ आई हम एक ऐसी ही शख्शियत से आपको इस ‘संडे क्राइम स्पेशल’ में मिलवा रहे हैं. वो शख्शियत जिससे मुलाकात नामुमकिन नहीं थी, लेकिन जिससे मिलने के इंतजार में तमाम दिन नहीं महीनों सब्र करना पड़ा.
इसी शख्शियत से छोटी-छोटी बैठकों में कई मर्तबा जब गुफ्तगू का मौका हासिल हुआ तो, हम भूल गए कि वाकई, हमने इसी इंसान से मुलाकात की उम्मीद में दिल्ली की भागम-भाग वाली जिंदगी के बीच मई-जून की तपती दुपहरियों में अक्सर सीजीओ कॉम्प्लेक्स स्थित सीआईएसएफ मुख्यालत के अनगिनत चक्कर भी कभी काटे थे.
वजह थी इस आला आईपीएस अधिकारी की सरलता के साथ-साथ बेबाक मगर आम भाषा-शैली. हमारे तमाम टेढ़े-मेढ़े सवालों के भी सीधे-सीधे जवाब बिना किसी लाग-लपेट के दे देने की हैरतंगेज हुनरमंदी. हम बात कर रहे हैं बिहार कैडर 1984 बैच के दबंग आईपीएस की. इंटरपोल जैसी महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय संस्था में पहले भारतीय असिस्टेंट डायरेक्टर रहे और मौजूदा वक्त में केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (सेंट्रल इंडस्ट्रियल सिक्योरिटी फोर्स यानि सीआईएसएफ) के मुखिया यानी डायरेक्टर जनरल (महानिदेशक) की.
85 साल पहले बिहार का गंगापुर गांव
राम परीक्षण राय पत्नी श्रीमति जानकी राय के साथ गंगापुर गांव में रहते थे. राम परीक्षण गांव के पहले उच्च-शिक्षित युवा थे. सन् 1946 में राम परीक्षण ने वनस्पति विज्ञान (वॉटनी) से एमएससी कर लिया था. उस जमाने में गंगापुर गांव में इकलौते कुशाग्र बुद्धि राम परीक्षण राय एक शाम संध्या प्रार्थना के दौरान श्री मदन मोहन मालवीय जी से रोज की तरह आशीर्वाद लेने पहुंचे. मालवीय जी ने देखा कि, राम परीक्षण सिर में खुश्बू वाला तेल लगाए हुए हैं.
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मालवीय जी को सिर में खुश्बूदार तेल लगाना नागवार गुजरा. मालवीय जी ने राम परीक्षण को मशवरा दिया कि, वे सिर में खुश्बूदार तेल लगाना बंद करें और दूध पीना शुरू करें. उसी दिन से राम परीक्षण ने सिर में तेल लगाना बंद कर करके दूध पीना शुरू कर दिया. मालवीय जी के उन्हीं परम-अनुयायी राम परीक्षण ने कालांतर में सुबौर, भागलपुर कृषि विवि में अध्यापन शुरू कर दिया.
रात में स्टेशन पर सोकर कैंब्रिज से पीएचडी कर ली
पढ़ाई की ललक बदतर हालातों में भी अक्सर ‘गुर्रा’ कर राम परीक्षण को उकसाती रहती थी. सो तंगहाली में अक्सर राम परीक्षण राय पटना स्टेशन पर जमीन के ऊपर ही अखबार बिछाकर रात को सो जाते. परीक्षा ले रहे बुरे वक्त में राम परीक्षण के बुलंद इरादों ने उनका खुलकर साथ दिया. लिहाजा सन् 1950-51 में स्कॉलरशिप पर कैंब्रिज यूनिवर्सिटी पहुंच गए पीएचडी करने. कैंब्रिज से हम-वतन लौटते ही पटना विवि में प्रोफेसरी मिल गयी. 37-38 साल प्रोफेसरी की. साथ ही कई साल डिपार्टमेंट प्रमुख (हेड) रहे. कैंब्रिज विवि में पीएचडी साथ करने वाले डॉ एमएस स्वामीनाथन ने कोलंबिया विवि में नौकरी का प्रस्ताव भेजा.
पटना विवि के वाइस-चांसलर ने कहा देश अभी आजाद हुआ है. तुरंत विदेश मत भागो. सो राम परीक्षण राय ने वो बेशकीमती मौका छोड़ दिया. बाद में वे इंडियन नेशनल साइंस कांग्रेस के प्रेसिडेंट बना दिए गए. जवाहर लाल नेहरू फेलोशिप हासिल की. खुद के निर्देशन में 50 से ज्यादा स्टूडेंट्स को पीएचडी करा दी.
58 साल पहले राम-जानकी को जब राजेश रंजन मिले
इन्हीं जुझारू राम परीक्षण राय और पूजा-पाठ वाली श्रीमती जानकी राय के यहां 15 नवंबर सन् 1960 को बेटे का जन्म हुआ. राम-जानकी ने दुलारे का नाम रखा राजेश. यही राजेश कालांतर में (1980 के दशक में) भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) का बेबाक दबंग मगर मृदुभाषी अफसर बने. राजेश के बचपन का काफी वक्त जितबड़िया गांव स्थित ननिहाल (पहले दरभंगा जिला अब समस्तीपुर जिला) में बीता.
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पढ़ाकू और जुझारु पिता, भला पुत्र को पढ़ाई-लिखाई में कैसे पिछड़ने देते. सो राजेश रंजन ने पटना के सेंट जेवियर्स हाई स्कूल से 7वीं करने के बाद, सेंट माइकल हाई स्कूल से 11वीं कर लिया. यह बात है सन् 1975 के आसपास की. इसके बाद पटना साइंस कॉलेज से इंटर किया. बीएससी (फिजिक्स) में एडमीशन लेने जिस दिन पहुंचे, उसी दिन किसी की मौत के चलते विवि की छुट्टी हो गई.
रात जिसने ‘सब्जेक्ट’ बदलवा विवि का ‘टॉपर’ बना डाला
पटना विवि दिन में बंद हो जाने से उस दिन राजेश के एडमिशन की कागजाती प्रक्रिया पूरी होने से टल गई. रात को घर में बैठे-बिठाए ही ग्रेजुएशन फिजिक्स से करने का प्लान बदल गया. बदले प्लाने के बाद तय किया कि, इंग्लिश ऑनर्स किया जाए. लिहाजा पटना कॉलेज में एडमीशन ले लिया. बकौल राजेश रंजन, ‘अगर यह कहूं उस एक रात ने जिंदगी की दशा और दिशा ही बदल दी तो अतिश्योक्ति नहीं. पटना कॉलेज में इंग्लिश ऑनर्स करते हुए ही विश्वविद्यालय का 'टॉपर' बन गया. यह बात है सन् 1979 की.’
पटना से दिल्ली और फिर दिल्ली से पटना वापसी
यूनिवर्सिटी टॉपर होते ही, उसी साल (1979) पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए दिल्ली चला आया. एडमीशन लिया दिल्ली के सेंट स्टीफन कॉलेज में. प्लान था कि, दिल्ली से ही इंग्लिश में पोस्ट ग्रेजुएशन किया जाए. एक साल पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई दिल्ली में करने के बाद ही पटना वापिस लौट गया. फिर पटना यूनिवर्सिटी से ही एमए किया. ऐसा क्यों हुआ (पटना से दिल्ली, फिर दिल्ली से पटना) कैसे हुआ? करीब 39 साल बाद खुद राजेश रंजन को भी याद नहीं.
उनके मुताबिक, ‘उस वक्त जो भी हुआ, वो सब अच्छा और मेरे हित में ही हुआ, जिसका सबूत आज मैं खुद हूं. आपके (इस संवाददाता/लेखक) और समाज के सामने डायरेक्टर जनरल सीआईएसएफ (केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल) के रूप में सेवाएं देकर.’
पति बनते ही प्रोफेसर बनने का प्लान पलट गया!
दिल्ली से लौटने के बाद पटना में एमए की पढ़ाई कर रहा था. प्लानिंग थी कि, एमए करने के बाद पीएचडी करूंगा. उसके बाद किसी कॉलेज/यूनिवर्सिटी में प्रोफेसरी (अध्यापन कार्य) तलाश करूंगा. अचानक एक दिन बीपी सिन्हा (बाल्मिकी प्रसाद सिन्हा, हाईकोर्ट के जज) की पोती रंजीता रंजन से विवाह का प्रस्ताव परिवार वालों के पास आ गया.
मुझे समझाया/बताया गया कि, लड़की (अब पत्नी रंजीता रंजन) एमए हिस्ट्री है. लिहाजा पीएचडी शुरू होने से पहले ही रंजीता रंजन से शादी की सभी रस्में पूरी हो गईं. जबकि प्रोफेसर बनने की प्लानिंग कालांतर में कहीं गुम गई? अतीत की यादों में दर्ज जिंदगी की, उस किताब के पन्ने पलटने की कोशिश करते हुए बताते हैं राजेश रंजन, मशरुफियत के चलते जिस किताब को कभी कागज पर उतारने का वक्त ही नसीब नहीं हुआ.
पिता की आंखें बेटे में वैज्ञानिक-डॉक्टर तलाश रहीं वो फेल हो गया!
अब तक 1980 का दशक आ चुका था. अब मैं स्टूडेंट से एक कदम आगे बढ़कर पुत्र के साथ-साथ पति भी बन चुका था. उम्मीदों से लबरेज पढ़ाकू और उच्च-शिक्षित डॉक्टरेट प्रोफेसर पिता श्री राम परीक्षण राय की आंखें मुझमें (पुत्र राजेश रंजन), अक्सर भविष्य का काबिल वैज्ञानिक (साइंटिस्ट) या फिर होनहार डॉक्टर तलाशती रहती थीं. मगर मैं पिता की आंखों में पल-पोस रहे सपनों के इतर ही सोच रहा था. मुझे शिक्षक बनना आसान लगता था. सो कुछ टेढ़ा और टफ कर गुजरने की ठान बैठा. लिहाजा सन् 1982 में सिविल सर्विसेज का रिटेन (लिखित परीक्षा) पास कर लिया. इंटरव्यू में मगर मैं फेल हो गया.
हार ने ना-उम्मीदी की बैसाखियां हटा पांव मजबूत कर दिए
शादी के तुरंत बाद अमूमन नव-विवाहित जोड़े ऐश-ओ-आराम पर खुलकर खर्च करते हैं. मैं और रंजीता दोनों ही इससे पूरी तरह दूर थे. शादी ने हम दोनों को जिम्मेदारियों का अहसास और ज्यादा करीब से करा दिया. संयुक्त परिवार का सपोर्ट था. तमाम ऐबों से दूर-दूर तक दोस्ती नहीं थी. सो सिविल सर्विसेज में हार (फेल) का बोझ आसानी से खुद के ऊपर से वक्त के साथ हल्का करता चला गया. अगर यह कहूं कि, सिविल सर्विसेज के पहले प्रयास में मेरी असफलता या हार ने मेरे अंदर से ना-उम्मीदी की बैसाखियां खींचकर, मेरे पावों को और मजबूत कर दिया तो गलत नहीं होगा.
हारी बाजी जीतने की उम्मीद में 6 महीने पत्नी का चेहरा नहीं देखा
सन् 1982 में फर्स्ट अटेंप्ट में सिविल सर्विसेज के इंटरव्यू में फेल होकर समझदार हो चुका था. फेल हुआ तभी और भी जोर-शोर से सोचना शुरू किया कि, आखिर दूसरे प्रयास में सिविल सर्विसेज एग्जाम को कैसे क्लियर किया जा सकता है? रंजीता के साथ विचार-विमर्श किया. दोनो ने तय किया कि, जब तक मैं सिविल सर्विसेज की तैयारी करके एग्जाम/इंटरव्यू न दे दूं, तब तक हम-दोनो दूर रहेंगे. मुझे और रंजीता दोनों को ही फैसला ‘टफ’, मगर आईंदा की प्लानिंग शुभ-फलदाई लगी. लिहाजा सोची समझी रणनीति के तहत रंजीता को शादी के कुछ समय बाद ही 6 महीने के लिए उनकी ननिहाल में रहने भेज दिया. दूसरे अटेंप्ट में सिविल सर्विसेज एग्जाम (सन् 1984) क्लियर कर लिया. आईपीएस कैडर मिला ‘बिहार’.
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पटना की पहली पोस्टिंग में ही खून-खराबा
सन् 1986 में बतौर ट्रेनी आईपीएस फील्ड ट्रेनिंग पूरी की रांची में. सहायक पुलिस अधीक्षक (एएसपी) पहली पोस्टिंग मिली पटना सिटी में (पुराना पटना इलाका). सन् 1987 में इलाके के निहायत ही शरीफ एक शिक्षक की सर-ए-राह बे-वजह गोली मारकर हत्या कर दी गई. उन्होंने एक अपराधी को गलत रास्ते पर जाने से रुकने की नेक सलाह दे दी थी.
बेवजह उस क़त्ल की बात सुनते ही खून खौल उठा. थाना खाजे कला में हत्या का केस दर्ज कराके मैं दिन-रात मास्टर साहब के क़ातिल की तलाश में जुट गया. एक शाम करीब साढ़े सात बजे गंगा नदी के पास उस बदमाश को घेरकर ललकारा. अंतत: उस खूनी मुठभेड़ में शिक्षक का वही क्रूर क़ातिल ढेर कर दिया.
आंखों के सामने हुई सिपाही की मौत आज भी रुलाती है
एक बार डाका डालकर भाग रहे कुछ डकैतों से रास्ते में आमना-सामना हो गया. यह वाकया है जल्ला क्षेत्र (जलकुंभी) का. जहां डाकू हमारे सामने आ डटे, उस जगह के चारों ओर मकान और बीच में जलकुंभी से भरा तालाब था. हमने सोचा कि बदमाश घिर चुके हैं. इसी गफलत में मेरे साथ मौजूद एक सिपाही जल्ला (जलकुंभी से भरे तालाब में) में कूद गया.
वास्तव में तालाब में बहुत गहरा पानी था. आंखों के सामने सिपाही की पानी में डूबने से हुई उस मौत का खयाल आते ही आज भी आंखें भर आती हैं. महसूस होता है कि, कभी-कभी वक्त, इंसान को किस हद तलक बेबस कर देता है? उन दिनो बिहार के पुलिस महानिदेशक थे एसएन राय.
डीजी ने कहा और मैं जलते शहर की आग में कूद गया!
एक रात बिहार पुलिस महानिदेशक एसएम कुरैशी जी ने दस-ग्यारह बजे फोन पर ही हुक्म दिया, ‘देवघर के हालात बिगड़ चुके हैं. शहर में दंगा-आगजनी-पथराव चरम पर है. निर्माणाधीन डैम पर हुई भिडंत में पुलिस फायरिंग कर चुकी है. तुम इसी वक्त देवघर जाकर हालात काबू करो.’ मैने कहा, ‘सर मेरे ट्रांसफर का ऑर्डर तो मिला नहीं हैं मुझे. तो डीजी साहब बोले, 'तुम्हारा डीजी कह रहा है जाकर देवघर में इसी वक्त ज्वाइन करो.'
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रात भर चलने के बाद तड़के पांच बजे मैं जलते हुए देवघर की आग के बीचो-बीच जाकर खड़ा हो गया. उसके बाद मार्च 1988 से अगस्त 1989 तक मैं देवघर के पुलिस अधीक्षक पद पर रहा.’ आज 30 साल बाद भी याद है डीजी कुरैशी साहब ने मुझे देवघर रवाना करने के तुरंत बाद, घर पर मेरी पत्नी रंजीता को फोन करके कहा था, 'तुम परेशान मत होना. पटना में मैं तुम्हारा पहला अभिभावक हूं. राजेश को मैंने अपनी जिम्मेदारी पर भेजा है.'
‘एक्टिंग’ के तजुर्बे ने किसी को क़त्ल होने से बचा लिया
स्कूल के वक्त में एक्टिंग का चस्का था. स्कूल-कॉलेज में होने वाले कल्चरल प्रोग्राम्स में हिस्सा लेता था. बकौल राजेश रंजन, ‘सन् 1990-91 में बेगूसराय में कमांडेंट था. उन्हीं दिनों शहर के बड़े उद्योगपति का अपहरण हो गया. नाराज पब्लिक सड़क पर उतर आई. शहर के हालात बिगड़े तो डीजी साहब (पुलिस महानिदेशक) बोले कि, 'रंजन शहर के बिगड़े हालातों को तुरंत संभालों. क्योंकि सड़कों पर उतरी बेगूसराय की पब्लिक तुम्हें ही बुला रही है. भीड़, जिला पुलिस की एक सुनने को तैयार नहीं है.' मुखबिर ने बताया कि, अपहृत को जिला मुंगेर के बढ़ैय्या (बढ़ैया) में ले जाकर दूसरे गैंग के हवाले कर दिया गया है.
जिस मुखबिर के पास लाला की पूरी जानकारी थी मैने, उसे रात में बुलवा लिया. स्कूल के दिनों में स्टेज पर की एक्टिंग का इस्तेमाल करने का प्लान बनाया. इंस्पेक्टर से कहा कि मैं, इस मुखबिर को बार-बार जान से मार डालने की एक्टिंग करूंगा. जैसे ही मैं एक्टिंग शुरू करूं तुम (इंस्पेक्टर) मुझे तुरंत हाथ-पैर जोड़कर, मेरे आगे गिड़गिड़ाकर उसे (मुखबिर को) मारने से रोकने का ‘ड्रामा’ करना. मेरी और इंस्पेक्टर की 'एक्टिंग' में फंसे मेरे खूंखार रूप से भयांक्रांत मुखबिर ने, खुद की जान बचाने की उम्मीद में उस गैंग तक मेरी पुलिस टीम को रात में ही पहुंचा दिया जहां, गैंग के कब्जे में अपहृत बिजनेसमैन बंधक था.’
वे शिकार को क़त्ल करते, उससे पहले हमने उनके 3 मार डाले
शाम का धुंधलका होते ही मुखबिर के साथ संदिग्ध मकान पर धावा बोलकर उसका दरवाजा तोड़ दिया. कमरे के अंदर मैंने जो खून-खराबा होते देखा, उसे देखकर एक बार को तो हमारे (बिहार पुलिस टीम) होश फाख्ता हो गए. अपहरणकर्ताओं में से दो भीमकाय और डरावनी शक्ल-ओ-सूरत वाले बदमाश, अपहृत (शिकार) के ऊपर (सीने और पेट पर) बैठे, बेरहमी से उसका चेहरा ईंट-पत्थरों से कुचलकर उसकी हत्या करने पर तुले थे.
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अचानक पुलिस दबिश से हड़बड़ाए गुंडे, अपहृत को अधमरी हालत में छोड़कर भागने लगे. पुलिस ने तीन अपहरणकर्ता ढेर करके पीड़ित को सकुशल रिहा कराके घर वालों के हवाले कर दिया. उस एनकाउंटर में अगर हम लोगों ने (पुलिस ने) जरा भी देर और लापरवाही की होती, तो अपहृत की जान जाना और पुलिस को भारी जान-माल का नुकसान उठाना तय था.
चंद्रास्वामी को अरेस्ट किया और डीजीपी सजायाफ्ता हो गए
1995 के अंत में सीबीआई (केंद्रीय जांच ब्यूरो) में इकॉनामिक ऑफेंसेस विंग का सुपरिटेंडेंट बना. अगले ही साल लक्खू भाई पाठक मामले में कथित तांत्रिक चंद्रास्वामी को चेन्नई (तमिलनाडू) से गिरफ्तार कर लिया. पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट के आदेश पर बहैसियत डीआईजी सीबीआई (1999), चंढ़ीगढ़ के चर्चित रुचिका गिरोत्रा छेड़छाड़ मामले की पड़ताल की. उस पड़ताल के आधार पर ही पूर्व आईपीएस और हरियाणा के पूर्व पुलिस महानिदेशक एसपीएस राठौर बाद में ‘सजायाफ्ता’ करार दिए गए.
कुल जमा अगर यह कहूं कि, सीबीआई में भले ही पेचीदा मामले आते हैं. लेकिन इन उलझी हुई गुत्थियों को सुलझाने से ही कोई अफसर पूरा और असल पड़ताली भी बनता है, तो गलत नहीं होगा. यही वजह है कि, देश आज भी सीबीआई पर विश्वास करता है. जबकि देश के मीडिया और अदालतों की नजर हमेशा सीबीआई की पड़ताल पर रहती है.
आज भी याद हैं इंटरपोल (फ्रांस) पोस्टिंग के वो 1825 दिन
फरवरी 2002 में भारत सरकार ने राजेश रंजन को फ्रांस स्थित इंटरपोल सचिवालय में प्रतिनियुक्ति (डेपूटेशन) पर भेज दिया. राजेश रंजन इंटरपोल पोस्टिंग में सबसे ज्यादा वक्त तक तैनात (5 साल) रहने वाले पहले भारतीय पुलिस अधिकारी साबित हुए. साथ ही किसी भारतीय को इंटरपोल ने अगर अपने सब-डायरेक्ट्रेट में असिस्टेंट डायरेक्टर पद (फाइनेंशियल एंड हाईटेक क्राइम) पर पहली बार तैनात किया था, तो वो भी राजेश रंजन ही रहे.
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उस वक्त दुनिया के 179 देश इंटरपोल के मेंबर थे. इससे पहले जितने भी भारतीय अधिकारी इंटरपोल की तैनाती पर गए, उन्हें वहां इंटरपोल ने ‘क्राइम-अफसर’ ही बनाया था. मनी-लॉन्ड्रिंग/बैंकिंग फ्रॉड पर रिसर्च के बाद आयोजित वर्ल्ड बैंक के सेमीनार में चीन-यूरोप में तमाम लेक्चर देने का सेहरा भी किसी भारतीय के नाम पर राजेश रंजन के ही सिर बंधा. जर्मनी में ‘नाटो’ अफसरों के समक्ष ‘टेरर-फाइनेंसिंग’ पर एतिहासिक भाषण देने का मौका भी राजेश रंजन के ही हाथ लगा था.
1960 से जुलाई 2018 यानी 58 की उम्र में 34 साल का आईपीएस
सन् 1986 में एएसपी पद से आईपीएस जीवन की शुरुआत करने वाले राजेश रंजन मौजूदा वक्त में देश भर के बंदरगाह, हवाई अड्डे, औद्योगिक संस्थानों की सुरक्षा में मुस्तैद, केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (सीआईएसएफ) के महानिदेशक (डायरेक्टर जनरल) हैं. 11 अप्रैल सन् 2018 को सीआईएसएफ में डीजी बनने से पहले वे सीजीओ कॉम्प्लैक्स स्थित सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) मुख्यालय में स्पेशल डायरेक्टर और गैस अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड में चीफ विजलेंस अधिकारी भी रहे.
(लेखक स्वतंत्र एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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