‘समाज हमसे-आपसे ही तो बना है. अगर आप अपनी तबियत (मर्जी) से जिंदगी बसर नहीं कर सकते, तो फिर जीने का क्या हक? ढोता तो जानवर भी खुद को है. गैर के बेजान कंधों का सहारा मत तलाशो. अपने कमजोर पांवों को ताकत देकर उन्हें मजबूत करो जो ताउम्र आपके साथ तो रहेंगे. मेरी जिंदगी का यही फलसफा था, है और रहेगा. मैं गांव-घर-कुनबे में, भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) का अफसर बनकर डीआईजी से रिटायर होने वाला पहला और फिलहाल इकलौता शख्स हूं.’ यह अविश्वसनीय और हैरतअंगेज सच है, उत्तर प्रदेश के उस पूर्व आला आईपीएस (रिटायर्ड पुलिस उप-महानिरीक्षक) का, जिसे वर्ष 2000 में उसके एक डीआईजी ने ‘सिंपल’ बताकर एसपी सिटी की पोस्ट से हटाकर देहात में ट्रांसफर कर दिया था. जिसने बहादुरी की नजीरें तो तमाम पेश कीं, मगर मीडिया से हमेशा दूरी बनाकर रखी. शायद इस आशंका से कि, शोहरत-सियासत और बदनामी अक्सर साथ चला करती हैं.
इस ‘संडे क्राइम-स्पेशल’ में हम तमाम मशक्कतों के बाद खोजकर लाए हैं दिल्ली से कई सौ किलोमीटर दूर स्थित उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के एक गांव मुंड़ेरा के मूल निवासी 2002 बैच के यूपी काडर के उन्हीं पूर्व आईपीएस अफसर राजेंद्र प्रसाद सिंह यादव को, जो हमेशा खरा-खरा सुनने-सुनाने के लिए चर्चित रहे हैं. जिन्हें करीब से जानने-समझने वाले सब दुलार से ‘अड़ियल जिद्दी मनमौजी आरपीएस’ के नाम से जानते-बुलाते हैं.
61 साल पहले यूपी के गाजीपुर का मुंड़ेरा गांव
थाना नोनहरा क्षेत्र के अंतर्गत मुंड़ेरा गांव के रहने वाले किसान शिवधनी सिंह यादव और मोती रानी के यहां कालांतर में 5 संतानों का जन्म हुआ. 10 जुलाई, 1957 को सबसे बड़ी संतान के रुप में बेटे राजेंद्र प्रसाद सिंह यादव उसके बाद क्रमश: बेटी जामवंती यादव (राजकीय इंटर कॉलेज मऊ में हिंदी, समाज शास्त्र शिक्षिका), डॉ. सुरेंद्र सिंह यादव (इलाहाबाद पीजी कॉलेज में इतिहास के प्रवक्ता), योगेंद्र यादव (गाजियाबाद जिला न्यायालय में वकील) और सबसे छोटी बेटी ऊषा यादव.
प्राइमरी शिक्षा गांव के ही प्राथमिक विद्यालय से लेने के बाद वर्ष 1972 में खालिसपुर इंटर कॉलेज गाजीपुर से दसवीं और 1974 में राजकीय जुबली इंटर कॉलेज से बारहवीं की परीक्षा राजेंद्र ने पास की. वर्ष 1979 में राजेंद्र केमिस्ट्री से एमएससी करने वाले 10-12 गांव और अपने कुनबे के पहले इकलौते ‘साइंस पोस्ट ग्रेजुएट’ बन गए. खींचतान या रो-धो के नहीं. प्राथमिक शिक्षा से एमएससी तक फर्स्ट डिवीजन से. एक अदद पिता की इच्छा के चलते, कि बेटा साइंस (प्योर) से पढ़ाई करे. भले ही पिता ने क्यों न पढ़ाई के नाम पर मात्र एक अदद हिंदी भी घर की चारदीवारी में ही लिखनी-पढ़नी सीखी थी. बकौल आरपीएस यादव, ‘डायरेक्ट अफसर बनने वाला (राज्य पुलिस सेवा से) कुनबे का मैं पहला लड़का था.’
सबसे कहता पुलिस की नौकरी न करो, खुद वही की
‘पढ़ाई के दिनों में मैं 7 गांवों में कहता घूमता था कि, पुलिस की नौकरी मत करना. उसकी बजाए चाहे दूसरी और कोई भी नौकरी कर लेना. यह मेरे जीवन का प्रारब्ध ही था कि, मुझे खुद को पुलिस की ही नौकरी में आना पड़ा. आईएएस की लिखित परीक्षा पास कर ली. गाइडेंस के अभाव में इंटरव्यू में फेल हो गया. इलाहाबाद में ताराचंद हॉस्टल के छात्र-दोस्तों के मशवरे पर 1984 में उत्तर प्रदेश राज्य लोक सेवा आयोग की परीक्षा पास कर ली. 14 अगस्त, 1986 को मुरादाबाद में पुलिस ट्रेनिंग के लिए चला गया. ट्रेनिंग के बाद पहली पोस्टिंग मिली सीओ कप्तानगंज जिला बस्ती. उसके बाद हरैया-खलीलाबाद सब-डिवीजन का भी सर्किल अफसर रहा. यह बात है 1989 की.’ आरपीएस यादव अतीत की किताबों के पन्नों पर जमी धूल को हटाते हुए बताते हैं.
लाठी ऐसी मारो कि चोट तो लगे पर निशान न बने
बकौल आरपीएस यादव, ‘स्टेट पुलिस सर्विस के आईपीएस के.एन राय (कमल नारायण राय) मेरे वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (एसएसपी, बाद में डीआईजी से रिटायर हुए) थे. मैं इलाके में डग्गामर बसों-वाहनों की खिलाफत में खुलकर सड़क पर उतर चुका था. बवाल मचने के साथ ही मेरा विरोध हुआ. डग्गामार बस-वाहन मालिक-चालकों का गैंग आला अफसरों से मिला. एसएसपी राय साहब ने मुझे तब पुलिस के असली-नकली चेहरे की पहचान कराई थी. राय साहब मेरे जैसे नौसिखिए मातहत पुलिस अफसर-कर्मचारियों की गल्तियां हमेशा अपने सिर लाद लेते थे. मुझे राय साहब ने समझाया, 'हमेशा लाठी सीधे न मारकर साइड से मारो. ताकि मार खाने वाला बिलबिलाए तो, मगर चोट का निशान किसी को न दिखा पाए.' बताते हुए खिलखिलाकर हंस पड़ते हैं आरपीएस यादव.
विधानसभा, जिसका हर वोटर सीएम का रिश्तेदार!
‘उन दिनो मैं मैनपुरी के शिकोहाबाद सब-डिवीजन का सर्किल अफसर (सीओ) था. दबंग नेता सूबे के मुख्यमंत्री थे. लिहाजा आए-दिन मेरे सब-डिवीजन में अधिकांश नेता (एक जाति-विशेष के) ऐसे आते, जो सब-के-सब खुद को मुख्यमंत्री का 'रिश्तेदार' बता कर हमेशा मुझे 'उकसाने' को बेताब रहते थे. मैंने कई बार माथा पीट लिया. पुलिस की नौकरी कर रहा हूं या मदारी डांस...! अजीब-ओ-गरीब सीन था? विधानसभा की पूरी आबादी ही खुद को सीएम का रिश्तेदार बताती थी! उस पोस्टिंग (शिकोहाबाद, मैनपुरी) में इन्हीं सब झंझटों के चलते सोचता था कि, कहां आ फंसा?’
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खाकी वर्दी गली के दर्जी से सिला कर नहीं पहनी है!
जब मैं शिकोहाबाद में सर्किल अफसर था तो, एक दिन कुछ नेता टाइप मेरे पास (शिकोहाबाद) पहुंचे. फिर वही रटी-रटाई मुख्यमंत्री का रिश्तेदार होने की गीदड़-भभकी देने लगे. मैं पहले से ही जला-भुना बैठा था सो अड़ गया. उनसे पूछा, 'यहां मेरे पास किसलिए और क्या लेने आए हो? जब चीफ मिनिस्टर तुम्हारे रिश्तेदार हैं तो समस्या समाधान के लिए उन्हीं के पास क्यों नहीं जाते?' मेरा इतना कहना था कि, मेरी पहले से ही कई शिकायतों से चिढ़े बैठे मुख्यमंत्री ने मुझे लखनऊ तलब कर लिया. सीएम बोले, 'क्यों यादव जी मैं जहां का विधायक हूं, उसी इलाके में (शिकोहाबाद, मैनपुरी) तुम बहुत आजकल 'नेतागिरी' कर रहे हो. तुम्हारे खिलाफ पब्लिक की बड़ी शिकायतें आ रही हैं. मेरे विधानसभा क्षेत्र के नेता तुम्हीं बन गए हो!'
चीफ मिनिस्टर की नसीहत उन्हीं के मुंह पर दे मारी!
मैंने उस वक्त सीएम की धमकी कहिए या नसीहत. हाथों-हाथ वहीं उसी वक्त उन्हीं के मुंह पर दे मारी थी... यह कहकर कि, 'सर, सरकार अगर आपकी है, तो मैंने भी खाकी (पुलिस वर्दी) किसी प्राइवेट-ठेकेदार या गली-मुहल्ले के दर्जी से सिलवा कर नहीं पहन रखी है. कंधे पर लगे चांदी-पीतल के बिल्लों की चमक में तमाम नेताओं की आंखें मैंने अक्सर चुंधियाते (चौंधियाते) देखी है सर. जिस जिले में चाहें ट्रांसफर कर के वहां फिंकवा दें. पुलिस की नौकरी में मैने कभी एक फूटी कौड़ी नहीं कमाई है. न कहीं कोठी-बंगला बनाया है, जिसमें रहने का लालच या उसे छोड़कर जाने का गम मुझे सताए. दूसरे, मैं पुलिस अफसर हूं. एक पुलिस अफसर कभी भी 'नेता' नहीं हो सकता है.’ हैरान-परेशान कर देने वाली उस अविश्वसनीय घटना का जिक्र करते हुए बेदाग आरपीएस यादव बेबाकी से बताते हैं.’ और फिर ठहाका मारकर हंस पड़ते हैं.
सीएम ने ‘सूखे’ में फेंका, मैं वहां ‘हिट-प्रमोट’ हो गया
आरपीएस यादव यूपी पुलिस महकमे की नौकरी के कुछ 'ओछे' और कुछ 'अच्छे', हर तरह के किस्से/अनुभव खुलकर सुनाते हैं. उनके मुताबिक, ‘मेरे ज्ञान बांटने से गुस्साए सीएम ने बतौर 'पनिश्मेंट-पोस्टिंग' ट्रांसफर कर के मेरा बोरिया-बिस्तर शिकोहाबाद (मैनपुरी) से फैजाबाद बंधवा दिया. वहां सर्किल अफसर (क्षेत्राधिकारी) अयोध्या लगा. चीफ-मिनिस्टर के 'कोप' से कई गुना ऊपर मुझ पर अयोध्या पोस्टिंग में 'ईश्वर' की कृपा हो गई. मैं अयोध्या में 'हिट' और 'प्रमोट' दोनों हो गया. यह बात है वर्ष 1994 की. वर्ष 1997 में अयोध्या से ही मैं प्रमोट होकर एडिश्नल एसपी (अपर पुलिस अधीक्षक) बन गया. पोस्टिंग मिली इंडो-नेपाल बार्डर पुलिस में.
एसपी सुलखान सिंह और पीलीभीत पोस्टिंग की बहुत याद आती है
इंडो-नेपाल बार्डर पुलिस से निकला तो कौशांबी का पुलिस अधीक्षक (एसपी) बन गया. उस वक्त इलाहाबाद रेंज के डीआईजी दबंग और ईमानदार आईपीएस सुलखान सिंह (हाल ही में उत्तर प्रदेश पुलिस महानिदेशक पद से रिटायर) थे. 1990 के दशक में तराई में सिक्ख आतंकवाद चरम पर था. खाड़कूओं के डर से पुलिस वालों ने वर्दी को कंबल-चादर में छिपाना शुरू कर दिया था. शाम ढलने से पहले ही थाने-चौकी में ताले दिए लगा दिए जाते.
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पीलीभीत पोस्टिंग पर ड्यूटी ज्वाइन करने जाने के वक्त पुलिस वाले की बीबी, बच्चे उसे फूल-माला डालकर विदा करते. पता नहीं बेचारे की वापसी किस हाल में हो. खाड़कूओं के डर से रात के वक्त थानों की बिजली बंद कर दी जाती. उन दिल दहला देने वाले जानलेवा-मुसीबत के दिनों में मेरे शुभचिंतक, मार्गदर्शक पीलीभीत जिले के एसपी सुलखान सिंह साहब ही थे. मैं उनके अंडर में क्रमश: अमरिया-पूरनपुर सब-डिवीजन का सीओ (सर्किल अफसर) रह चुका था. सुलखान सिंह साहब की दबंगई और सहयोगी स्वभाव का मैं आज भी कायल हूं.
24 कैरट का जिद्दी और मनमौजी पुलिस अफसर
लखनऊ में रह रहे 1980 बैच के पूर्व आईपीएस और यूपी के रिटायर्ड दबंग पुलिस महानिदेशक सुलखान सिंह से इस संवाददाता ने बात की. उनसे पूछा... ‘क्या आपके अंडर में कभी आरपीएस यादव नाम के पुलिस अफसर ने ड्यूटी की है?’ सवाल का जबाब मिलने के बजाय उधर से सवाल आया…‘आप कहीं उन पीलीभीत वाले हमारे सीओ राजेंद्र प्रसाद सिंह यादव की बात तो नहीं कर रहे हैं!’ संतुष्ट होने पर सुलखान सिंह आगे कोई सवाल करने का मौका दिए बिना ही धारा-प्रवाह बोलते जाते हैं. ‘आरपीएस हमारा (यूपी पुलिस का) 24 कैरट का पुलिस अफसर रहा है. पूरी पुलिस नौकरी में लोग उसे जिद्दी-अड़ियल समझते रहे. मेरी नजर में वह स्वाभिमानी, समझदार और जिंदा दिल अफसर हमेशा था. एक ऐसा दरिया दिल पुलिस अफसर, 1990 के दशक में तराई में जिन खाड़कूओं के डर से पुलिस ने सड़क पर निकलना बंद सा कर दिया था. उसी आरपीएस यादव के नाम से मैंने बतौर एसपी पीलीभीत, खाड़कूओं की घिग्गी बंधते देखी थी. वो अफसर खरा और ईमानदार था बुरा और बेईमान कभी नहीं.’
क्यों याद हैं 30 साल बाद सुलखान सिंह को वो जाबांज
यूपी में पुलिस महानिदेशक पद पर 3 महीने का सेवा-विस्तार लेकर राज्य पुलिस में इतिहास रचने वाले (सुलखान सिंह से पहले यूपी पुलिस में सिर्फ आईपीएस अरविंद जैन को ही महानिदेशक पद पर सेवा-विस्तार नसीब हुआ था) सूबे के चर्चित पूर्व पुलिस महानिदेशक सुलखान सिंह के शब्दों में, ‘फोर्स की नौकरी में सब बहादुर और काबिल ही भर्ती होते हैं. आरपीएस यादव ने मगर अपनी छाप सूझबूझ से काम लेने वाले अफसर के रुप में छोड़ी. मैंने राजेंद्र प्रसाद हमेशा भीड़ से अलग खड़े हुए देखे. अमूमन यह क्वालिटी एक साथ किसी पुलिस-अफसर में मैंने तो न के बराबर ही देखी है. उस जमाने में आरपीएस की टक्कर का अगर कोई दूसरा नया अफसर लड़का था तो सीओ पलिया आर.के चतुर्वेदी.’
खूंखार खाड़कू जिनके नाम से रास्ता बदल लेते थे
‘1990 के दशक में तराई में आरपीएस की तरह ही उत्तर प्रदेश राज्य पुलिस सेवा के बहादुर अफसर आर.के. चतुर्वेदी (राज्य पुलिस सेवा 1998 बैच आईपीएस) का चेहरा भी मुझे अब तक खूब याद है. चतुर्वेदी भी दिलेर, दबंग और समझदार पुलिस अफसर रहे हैं. जब पुलिस खाड़कूओं से खौफ खाती थी, आरपीएस यादव और आर.के चतुर्वेदी के नाम से उस जमाने में खून-खराबे पर उतरे खूंखार खाड़कू रास्ता बदल जाते थे. मेरे जनपद में जितने भी पुलिसवाले खाड़कूओं की गोलियों से शहीद हुए (पूरनपुर कोतवाल इंस्पेक्टर जितेंद्र सिंह यादव और एक सिपाही या फिर थाना अध्यक्ष हजारा इंस्पेक्टर राजेंद्र सिंह त्यागी और पीएसी पुलिस विस्फोट में 8-10 पुलिस-पीएसी के जवान) आर.के. चतुर्वेदी ने ही खाड़कूओं को गोलियों से भूनकर सबका बदला लिया था.’ सुलखान सिंह अपने पूर्व मातहतों की बहादुरी के किस्से 30 साल बाद गर्व से बताते और सुनाते हैं.
खाड़कू घर में ठहर कर चले जाएं तो कोई बात नहीं!
‘पीलीभीत पोस्टिंग के दौरान मुझे लगा कि, स्थानीय नागरिक खाड़कूओं से ज्यादा पुलिसवालों से दुखी है. इसकी वजह हथियारों के बलबूते खाड़कूओं का सरदारों के झालों में शरण लेना था. झालों से खाड़कू चले जाने के बाद पुलिस पहुंचती. खाली हाथ खड़ी पुलिस झाला मालिक को ‘गरम’ करना शुरू कर देती. मुझे लगा कि पुलिस गलत कर रही है. मैंने झाला मालिकों (सरदारों) को इशारा कर दिया कि, अगर कभी-कभार उनके यहां खाड़कू आकर ठहर जाएं तो वो परेशान न हों. मेरा इतना कहना था कि, दोनों तरफ की मार झेल रहे झाला मालिक तुरंत मेरी तरफ झुक गए. फिर क्या खाड़कू पहुंचने से पहले मेरे पास खबर पहुंच जाती.’ दबंग आरपीएस यादव पुलिस की कामयाबी-नाकामयाबी दोनों खुलकर बताते हैं.
सरकारों के साथ बदल दिये जाते हैं पुलिस अफसर
‘स्टेट पुलिस ने मुझे इज्जत बख्शी. वर्दी भी स्टेट पुलिस की पहनी. आईपीएस भी स्टेट पुलिस की बदौलत ही बना. यह तमाम वो अहसानात हैं जो, जीते जी नहीं उतार पाऊंगा. इसके बाद भी एक कसक पुलिस की नौकरी में हमेशा रही. वह यह थी कि, सूबे में सरकारें बदलने के साथ ही हम (पुलिस अधिकारी) बदल दिए जाते हैं. जिस पब्लिक को चैन और सुकून देने के वास्ते पुलिस बनाई जाती है. नेताओं द्वारा सरकारें बदलने के साथ ही उसी पुलिस के अफसर वीकली मार्केट की दुकानों की मानिंद (साप्ताहिक बाजार) आज यहां और कल वहां, बदल देना जनमानस के प्रति बेईमानी-नाइसांफी है. जब तक 'नेताओं' की 'नेतागिरी' के चंगुल से मुक्त नहीं होगी, पुलिस का दम घुटता रहेगा.’ इतना खुलकर कहने-बोलने का दम वाकई किसी आरपीएस यादव जैसे जिगर वाले आला पुलिस अफसर में ही हो सकता है.
‘सिंपल’ था इसलिए डीआईजी ने मुझे हटा दिया था
‘वर्ष 2000 का वो वाकया याद आता है जब मैं नोएडा एसपी सिटी था. उस वक्त मेरे डीआईजी (सीबीआई के पूर्व ज्वाइंट-डायरेक्टर रहते हुए आरुषि हत्याकांड में उनका नाम मीडिया में खूब उछला, श्रीप्रकाश शुक्ला एनकाउंटर में भी शामिल रहा) मेरे बारे में बोले कि 'आरपीएस यादव बहुत 'सिंपल' है. लिहाजा उन्होंने मुझे एसपी सिटी नोएडा से हटाकर एसपी रुरल एरिया (देहात ग्रेटर नोएडा) लगा दिया.' बताते हुए उस आईपीएस की छोटी और घटिया सोच पर ठहाका मारकर हंस पड़ते हैं राजेंद्र प्रसाद सिंह यादव.’
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बकौल आरपीएस यादव, हां, सुलखान सिंह साहब (यूपी के रिटायर्ड पुलिस महानिदेशक) ने जरुर कहा था, 'तुम सिंपल हो. खुद को बिल्कुल चेंज मत करना.' ‘सिंपल होने के बाद भी मुझे आईपीएस 2002 काडर मिला. डीआईजी अलीगढ़ के पद से रिटायर हुआ. वाराणसी, मथुरा (एसपी सुरक्षा), आगरा, इलाहाबाद, गोंडा, शाहजहांपुर, गोरखपुर, बहराइच, मिर्जापुर, सहारनपुर 32 बटालियन पीएसी लखनऊ में तबियत से पुलिस-अफसरी की.’ थोड़ा कुरेदने पर खूब खुलकर बताते हैं आरपीएस यादव.
जिसके सब्र ने, मुझे आईपीएस आरपीएस यादव बनाया
राजेंद्र प्रसाद सिंह यादव, हर जगह मजबूत दीवार और हरी-भरी बगिया सी साथ मौजूद रहीं पत्नी मनोरमा यादव का जिक्र करना नहीं भूलते हैं. बकौल आरपीएस यादव, ‘वर्ष 1978 में मनोरमा से मेरी शादी हुई. मेरी पोस्टिंग कितने भी खतरनाक इलाके में रही. हर खतरे के वक्त कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में मनोरमा साथ खड़ी मिलीं. उन्हीं के सहयोग-समर्पण का फल है कि, बड़ा बेटा प्रशांत यादव इस समय केंद्रीय रिजर्व पुलिस फोर्स (सीआरपीएफ) की कोबरा रेजीमेंट में बहैसियत असिस्टेंट कमांडेंट गुवाहाटी (दारांग) में पोस्टेड है. जबकि छोटा बेटा प्रभात यादव गांधीनगर (गुजरात) स्थित बैंक ऑफ बड़ौदा में अधिकारी है.’
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