बकौल गुलज़ार साहब 'भूपेन दा का परिचय कराना बड़ा मुश्किल काम है.' उनकी ये बात सौ फीसदी सही है. भूपेन हजारिका की शख्सियत में जितनी शाखें हैं, उतनी किसी एक ही शख्सियत में मिलना अपने आप में वाकई चमत्कार है. कोई एक व्यक्ति अकेले क्या-क्या हो सकता है? गीतकार, संगीतकार, गायक, कवि, पत्रकार, अभिनेता, फिल्म-निर्देशक, पटकथा लेखक, चित्रकार, असम की संगीत-संस्कृति और फिल्मों को दुनिया भर में पहचान दिलाने वाले सबसे पुराने और शायद इकलौते कलाकार. ये सारे परिचय एक ही शख्सियत के हैं.
असम की मिट्टी से निकले भूपेन हजारिका का कद इतना बड़ा है कि लता मंगेशकर भी कहती हैं- ‘मैं असम को भूपेन हजारिका के नाम से जानती हूं.' भूपेन हजारिका 1926 में असम के सादिया कस्बे में पैदा हुए. 1942 में गुवाहाटी से इंटर पास किया और बीए करने लिए बनारस हिंदू विश्वविद्यालय आ गए. बीएचयू से उन्होंने 1944 में बीए और 1946 में पॉलिटिकल साइंस में एमए किया. इसके बाद वो न्यूयॉर्क चले गए और पांच साल वहीं रहकर कोलंबिया यूनिवर्सिटी से जनसंचार में पीएचडी की. वहीं पर भूपेन दा की मुलाकात पॉल रॉब्सन से हुई. पॉल रॉब्सन लोकगायक थे जो अमेरिका में रंगभेद से उस दौर में लड़ रहे थे जब वहां किसी काले या इंडियन को मारने पर मुकदमा तक नहीं चलता था.
रॉब्सन ने भूपेन पर कई तरह से छाप छोड़ी. पहली छाप पड़ी भूपेन की आवाज पर. भूपेन हजारिका की आवाज सबसे अलग है. सुननेवाले के मन पर अपनी बात को अंकित करती जाती आवाज, जिसमें विलाप है, हाहाकार है, असंतोष है, विद्रोह है, शोषितों-उपेक्षितों का दर्द है और निरुत्तर कर देनेवाले प्रश्न हैं. ‘गंगा बहती हो क्यूं…?’ बाद में इसी गीत को बांग्ला और हिंदी में भी गाया गया जो गंगा से मुखातिब है.
पॉल रॉब्सन का दूसरा प्रभाव पड़ा भूपेन की सोच पर. कल्पना लाजमी की फिल्म दरमियां में वो किन्नरों के लिए गाते सुनाई देते हैं - ‘दुनिया पराई लोग यहां बेगाने, दिल पर क्या गुजरी वो दिल ही जाने’. ‘मैं और मेरा साया’ में वो कहारों के लिए गाते हैं-‘आंके-बांके रास्ते पे कांधे लिए जाते हैं, राजा महाराजाओं का डोला, रे डोला..’ कभी चाय बागानों में काम करनेवाली औरतों की कहानी ‘एक कली दो पत्तियां नाज़ुक-नाज़ुक उंगलियां’ तो कभी समुद्र की लहरों का ग्रास बन जानेवाले रमैय्या माझी की गाथा-‘उस दिन की बात है, रमैया, नाव लेके सागर गया..’
कल्पना लाजमी की ‘रुदाली’ में ‘दिल हूम हूम करे..’ लता ने भी गाया है लेकिन भूपेन दा वाला वर्जन सुनकर लगता है कि ये गाना इसी आवाज के लिए बना है. इस संगीतकार को देश के सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म निर्माताओं में गिना जाता है. करीब चालीस साल से उन्होंने उत्कृष्ट सिनेमा के जरिए पूर्वोत्तर की, खासतौर पर आदिवासी संस्कृति पर लगातार काम किया. भूपेन दा संगीत और कला की दुनिया में जब पहली बार नोटिस हुए तो उनकी उम्र दस साल से भी कम थी. इस उम्र में ही उन्होंने गीत लिखना और गाना शुरू कर दिया था. 1939 में वो असमिया फिल्म इतिहास की दूसरी रंगीन फिल्म ‘इंद्रमालती’ में बाल कलाकार के रूप में दिखे. भूपेन दा अरुणाचल प्रदेश की पहली रंगीन हिंदी फीचर फिल्म ‘मेरा धरम, मेरी मां’ के निर्माता, निर्देशक और संगीत निर्देशक रहे. 1998 में उन्होने मशहूर पेंटर एम एफ हुसैन की लिखी और निर्देशित की हुई फ़िल्म ‘गजगामिनी’ में संगीत दिया. असमिया फिल्म 'चमेली मेमसाहब' के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया.
भूपेन अच्छे संगीत को नए पुराने में नहीं बांटते थे. एक इंटरव्यू में नए कंपोजर्स पर राय देते हुए भूपेन दा कहते हैं- ‘आज हमारे पास ए आर रहमान है, वो नई पीढ़ी की रगों को पहचानता है. सलिल चौधरी की तरह उसमें हिन्दुस्तानी और पश्चिमी संगीत की बेहतरीन समझ है. वो अपनी धुनों में उत्तर भारत के लोकसंगीत को भी इस्तेमाल कर लेता है. बस उसे ध्यान ये रखना है कि बाजार के दबाव में वो कंज्यूमर प्रोडक्ट बनकर न रह जाए.
'भूपेन दा हरिहरन को सराहते थे, वो इलैयाराजा के प्रशंसक थे, हेमंत कुमार की मेलोडी को मिस करते थे. हेमंत कुमार का भूपेन हजारिका की जिंदगी में बहुत अहम रोल रहा. अमेरिका से लौटने के बाद सलिल चौधरी, बलराज साहनी औऱ दूसरे वामपंथी बुद्धिजीवियों के साथ इप्टा में काम करने जब वो बंबई पहुंचे तो इप्टा में उनकी हेमंत कुमार से मुलाकात हुई. हेमंत कुमार ने ही उन्हें मुंबई में सभी बड़े संगीत निर्देशकों और गायकों से मिलवाया. पहली बार हेमंत कुमार ही भूपेन को लता मंगेशकर के घर लेकर गए थे.
पहली मुलाकात पर लता ने कहा- ‘जितना नाम है उतनी उमर नहीं लगती, मैं आपको दादा कहके बुलाऊंगी.’ भूपेन हजारिका बतौर निर्देशक अपनी पहली फ़िल्म का गाना लता से गवाना चाहते थे. लता तैयार हो गईं. ये गाना ‘जोनाकर राति..' एचएमवी ने रिलीज किया और इसको जबरदस्त कामयाबी मिली.
भूपेन दा ने सचमुच कितने ही सागर और कितने ही धारे देखे. सिनेमा, कविता, संगीत और पत्रकारिता से जुड़े समारोहों में शिरकत के लिए वो मिसीसिपी से डेन्यूब तक, यूरोप से अमेरिका और एशिया से ऑस्ट्रेलिया तक घूमते रहे. शायद इसीलिए वो लिखते हैं- ‘आमी ऐक जाजाबोर..’ जाजाबोर हिंदी का यायावर है. इस गीत को गुलजार ने हिंदी में रूपांतरित किया है-
‘आवारा हूं
ज़मीं पे चलते, छलकते, बहते दरिया की धारा हूं.
उनकी आवारगी उनके व्यक्तिगत जीवन में भी दिखाई देती है. फिल्म निर्देशक कल्पना लाजमी के साथ भूपेन का रिश्ता पेशेवर से व्यक्तिगत होने की अनोखी कहानी है. 1986 में उन्होंने कल्पना लाजमी की फिल्म ‘एक पल’ में संगीत दिया था. शबाना आजमी, नसीरुद्दीन शाह और फारूख शेख जैसे कलाकारों के सजी इस फिल्म को दुनियाभर में कई बड़े सम्मान मिले. कल्पना को पहचान दिलानेवाले टीवी सीरियल ‘लोहित किनारे’ में भी भूपेन का ही संगीत था.
इसके बाद भूपेन कल्पना लाजमी की रुदाली, दरमियां, दमन, चिनगारी और क्यों जैसी चर्चित फिल्मों का अभिन्न अंग रहे. इन सबके के बीच कल्पना लाजमी उनके करीब, और करीब आती चली गईं. जिस वक्त भूपेन हजारिका और कल्पना लाजमी के बीच नजदीकियां शुरू हुईं उस वक्त कल्पना बस 17 साल की थीं और हजारिका 45 साल के थे. भूपेन दा की पहली पत्नी प्रियंवदा से उन्हें एक बेटा भी था, लेकिन कल्पना को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा. चार दशक से वो भूपेन दा की आखिरी सांस तक वो उनकी संगिनी बनकर रहीं. उन्होंने मीडिया के सामने घोषणा भी कर दी कि वो भूपेन हजारिका की पत्नी हैं. भूपेन दा अपनी वसीयत में अपनी सम्पत्ति का एक बड़ा हिस्सा अपनी जीवनसंगिनी कल्पना के नाम कर गए.
भूपेन हजारिका गाते कई भाषाओं में थे लेकिन असम की संस्कृति, ब्रह्मपुत्र नदी, लोक परम्पराओं और समसामयिक समस्याओं पर गीत और कविताएं वो अपनी भाषा असमिया में ही लिखते थे. उन्होंने एक हजार से ज्यादा गीत और कविताएं लिखी हैं. पंद्रह बड़ी किताबें लिखी हैं. जिनमें लघुकथाएं, निबंध, यात्रा वृतांत और बच्चों के लिए कविताएं शामिल हैं. उन्हें 1977 में पद्मश्री दिया गया. 1993 में उन्हें भारत का ऑस्कर कहे जानेवाले दादा साहब फाल्के अवॉर्ड से नवाजा गया.
1993 में ही ‘रुदाली’ के संगीत के लिए जापान में एशिया पैसिफिक इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का अवॉर्ड मिला. ‘रुदाली’ के ’दिल हूम हूम करे’ के लिए उन्हें माइकल जैक्सन और मडोना जैसी हस्तियों से तारीफ मिली. 2001 में उन्हें पद्म भूषण से नवाजा गया.
साल 2011 के शुरुआती महीनों से भूपेन दा की तबीयत नासाज रहने लगी थी. जाजाबोर के कदम थकने लगे थे. 5 नवंबर 2011 को 85 साल की उम्र में मुंबई के कोकिलाबेन अस्पताल में इस यायावर ने दुनिया को अलविदा कहा और अनंत की यात्रा पर निकल गया. 2012 में भूपेन दा को मरणोपरांत पद्मविभूषण से सम्मानित किया गया.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)
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