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क्या हिंसक भीड़ के लिए सोशल मीडिया और राजनीतिक संरक्षण बराबर के हैं भागीदार?

इस बंटे हुए समाज में जब तक लोग अपनी नफरतों और अपनी विचारधाराओं को किनारे रख एक-दूसरे से मिलना-जुलना वापस शुरू नहीं करेंगे ये बंटवारे बढ़ते जाएंगे

Updated On: Jul 11, 2018 01:23 PM IST

Naghma Sahar Naghma Sahar

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क्या हिंसक भीड़ के लिए सोशल मीडिया और राजनीतिक संरक्षण बराबर के हैं भागीदार?

भीड़ के हाथों हो रही हिंसा, यानी मॉब लिंचिंग के जो आंकड़े हमारे सामने हैं उसके लिए सोशल मीडिया, खास तौर पर वाट्सएप को एक बड़ा विलेन बताया गया है. इसलिए कि इसकी सबसे ज्यादा पहुंच है. 20 मिलियन लोग इसका इस्तेमाल करते हैं. इनमें बहुत बड़ी तादाद है उनकी, जो साक्षर भी नहीं, या कुछ कम पढ़े लिखे हैं. ऐसे में यह एक खतरनाक हथियार बनता जा रहा है. लेकिन यह सिर्फ एक वजह है. इसके कारण कई हैं.

पिछले सिर्फ एक महीने के अंदर 19 ऐसी मौतें हुई हैं, जिसकी वजह भीड़ की हिंसा थी. भीड़ हत्यारी क्यूं बनी? कौन है जो इस भीड़ को उकसा रहा है. एक वजह मानी जा रही है वो अफवाह जो उनके स्मार्टफोन ने उन्हें परोस कर दी.

एक अफवाह रही बच्चा चोर गिरोह की जिसकी वजह से महारष्ट्र के धुले से लेकर छत्तीसगढ़ के सरगुजा और गुजरात के अहमदाबाद से लेकर तमिलनाडु, त्रिपुरा तक में लोगों की हत्या की गई. जैसा महाराष्ट्र में धुले के पास हुआ जहां नाथ गोसावी समुदाय के 5 लोगों को भीड़ ने मार डाला इस शक पर कि वो बच्चा चोरी करने की नीयत से आए हैं. कमाल है कि जो वीडियो इस अफवाह की वजह बना वो पाकिस्तान का निकला. यानी कितनी आसानी से लोग फोन पर आया कोई भी फॉर्वर्डेड संदेश पत्थर की लकीर मान लेते हैं. कई बार यह हिंसा गोरक्षा के नाम पर हुई.

मणिपुर की कुछ तस्वीरें सामने आईं जहां देखा गया कि 2 अलग-अलग गांवों में बच्चा चोरी के शक में भीड़ पिटाई कर रही है. 30 जून को चेन्नई में भी बिहार के 2 लोगों को बच्चा चोर समझ कर बुरी तरह पीट दिया गया. गोपाल साहू और विनोद बिहार से आए चेन्नई मेट्रो में काम करने वाले मजदूर थे और सड़क पार करते हुए एक बच्चे को रोक रहे थे मगर लोगों ने उन्हें बच्चा चोर समझ लिया.

इसी तरह 2 जुलाई को बेंगलुरु में भीड़ ने बच्चा चोरी करने के शक में एक आदमी को क्रिकेट के बल्लों और लाठियों से पीट-पीट कर मार डाला. नाशिक के मालेगांव में भीड़ ने 5 लोगों पर हमला कर दिया लेकिन पुलिस उन्हें बचाने में कामयाब रही. बाद में गुस्साई भीड़ ने पुलिस की गाड़ी को जला डाला. मंगलवार को अहमदाबाद में एक भिखारी महिला को 50 लोगों की भीड़ ने मार डाला. सूरत और राजकोट में भी ऐसी घटनाएं सामने आई हैं.

त्रिपुरा में 28 जून को भीड़ ने सुकांतो चक्रवर्ती नाम की एक महिला को मार डाला गया जो अफवाहों से खबरदार करने आई थी. सुकांतो चक्रवर्ती को 500 रुपए की दिहाड़ी पर रखा गया था. सुकांतो जिस गाड़ी से जा रही थीं उस पर लाउडस्पीकर भी लगा था जिससे वह अनाउंस कर रही थीं कि ऐसी अफवाहों से सावधान रहें. अफवाह फैल गई कि एक बच्चे को किडनी निकाल कर फेंक दिया गया है. इसके कारण लोगों और पुलिस में ही झड़प हो गई. किडनी स्मगलर से लेकर बच्चा चोर गिरोह की बातें होने लगीं. इसी झगड़े में सुकांतो चक्रवर्ती फंस गईं और मारी गईं. इसके शिकार चाहें हिंदू हों या मुसलमान ज्यादातर गरीब लोग हैं. कितनी आसानी से किसी ने अफवाहों के जरिए गरीबों को अफवाहों में उलझा दिया है.

प्रतीकात्मक तस्वीर

प्रतीकात्मक तस्वीर

अफवाहें हमारे समाज में नई नहीं. पहले भी मोहल्लों और शहरों में, रिश्तेदारों और दोस्तों के जरिए अफवाहें फैलती थीं. फिर वो भी दौर आया जब अफवाह के ही बुनियाद पर गणेश जी हर जगह दूध पीने लगे, और मंकी मैन का आतंक छा गया. हमारे जेहन में चोटी काटने वाले का आतंक अभी ताजा है. यह आतंक अफवाहों के जरिए खूब फैला क्योंकि यह वाट्सएप दौर की अफवाह थी. लेकिन हाल में यह देखा गया है की अफवाहों का यह बाजार हिंसक होता जा रहा है.

एक ऐसी भीड़ जो आपस में एक दूसरे से कई बार अनजान भी होती है वो किसी एक या दो शख्स को इकठ्ठा होकर किसी शक के आधार पर मार डालती है. असम, त्रिपुरा, चेन्नई इन सभी जगहों पर हुए हमले में एक बात जो एक जैसी थी, वो यह कि सारे हमले ऐसे लोगों पर थे जिनका किसी न किसी तरीके से परिवेश अलग था. जो बाहरी थे, कभी दूसरे राज्य के लोग जैसे बिहार, कई बार दूसरे भाषी. यानी इस हिंसा के पीछे एक नफरत भी है, जो अपने जैसा नहीं है उसके खिलाफ नफरत जिसे अंग्रेजी में xenophobia कहते हैं.

क्या सरकार रोकेगी इस आतंक को ?

सोशल मीडिया से फैल रही अफवाहों और उसकी वजह से होने वाली हिंसा का खतरा इतना बढ़ गया और इस पर आवाज इतनी उठने लगी कि सरकार ने अब इन सर्विस देने वालों को इसका जवाबदेह बनाने का फैसला किया है. आईटी मंत्रालय ने वाट्सएप को पत्र लिखा है जिसका वाट्सएप ने जवाब दिया है. इसमें कहा गया है कि वाट्सएप सिर्फ भारत के लिए एक नया फीचर ला रहा है.

जिसमें हर फॉरवर्ड मैसेज में लिखा जाएगा कि यह फॉरवर्ड किया गया है, ताकि उसे आगे भेजने से पहले सोच लें कि यह गलत भी हो सकता है. साथ ही जो किसी ग्रुप का एडमिन होगा वो तय कर पाएगा कि कौन सदस्य मैसेज भेज सकता है कौन नहीं. इस में बड़ा सवाल यह भी है कि यह क्या गारंटी है कि ग्रुप एडमिन सांप्रदायिक या असामाजिक अफवाहें फैलाने वाला नहीं होगा. बहरहाल कोशिश जारी है, इसी तहत मार्क स्पैम फीचर भी आएगा जिसमें अगर ज्यादातर लोग अगर किसी मैसेज को स्पैम बताएंगे तो वो ब्लॉक हो जाएगा.

मद्रास हाई कोर्ट ने स्पष्ट कहा है कि सोशल मीडिया पर कोई मैसेज शेयर करना या फॉर्वर्ड करना, कही गई बात को स्वीकार करने और मानने के बराबर ही है. पत्रकार से बीजेपी नेता बने एसवी शेखर की याचिका खारिज करते हुए हाई कोर्ट ने यह फैसला दिया था. एसवी शेखर ने कुछ महिला पत्रकारों को लेकर कही अभद्र बातों को फेसबुक पर शेयर किया था.

हाई कोर्ट ने कहा था, 'यदि किसी के बारे में कुछ कहा जा रहा है, तो यह महत्वपूर्ण है कि क्या कहा गया है, लेकिन इससे भी ज्यादा अहम यह है कि किसने कहा है. समाज में इसका ज्यादा असर होता है कि बात किसने कही है. कोई बड़ी हस्ती किसी मैसेज को फॉरवर्ड करती है, तो आम जनता पर इसका बड़ा असर पड़ता है. लोग इनमें कही बातों को मानना शुरू कर देते हैं. इसलिए यदि महिलाओं के बारे में सोशल मीडिया में कुछ गलत कहा जा रहा है, तो इसका भी नकारात्मक असर होता है.'

गुमनाम भीड़ में बदलते लोग

यह तमाम कदम एक छोटी कोशिश भर हैं. भीड़ की हिंसक प्रवृति की सिर्फ एक वजह है वाट्सएप. भीड़ किसी भी बहाने लोगों की हत्या कर रही है, कभी बच्चों के चोरी होने के बहाने, कभी गोरक्षा के बहाने .

शुरुआत में लगा कि इस भीड़ की मानसिकता सिर्फ सांप्रदायिक है लेकिन अब कई शक्ल में यह भीड़ हमारे सामने है. अखलाक को मारने वाली भीड़ से लेकर धुले में नाथ गोसावी समाज के लोगों को मारने वाली भीड़ तक.

साल 2017 के जुलाई महीने में दलित और मुस्लिम समुदाय के खिलाफ बढ़ती मॉब लिंचिंग को लेकर दिल्ली में बड़े स्तर पर प्रदर्शन किए गए थे. ( रॉयटर्स इमेज )

साल 2017 के जुलाई महीने में दलित और मुस्लिम समुदाय के खिलाफ बढ़ती मॉब लिंचिंग को लेकर दिल्ली में बड़े स्तर पर प्रदर्शन किए गए थे. (रॉयटर्स इमेज)

नफरत की यह हवा वाट्सएप तक सीमित नहीं. ट्विटर तो नफरत और गालियों से जल रहा है. यही भीड़ एक वर्चुअल रूप में सोशल मीडिया पर भी है. इसका अंदाजा इस बात से लगाइए कि विदेश मंत्री सुषमा स्वराज तक को ट्रॉल्स ने नहीं बख्शा. जब खुद को मिल रही गालियों के बारे में बताते हुए सुषमा जी ने एक पोलिंग शुरू कर दी तो 43 फीसदी लोगों का यह मानना था कि उनको दी जा रही गालियां सही हैं. तब लगा कि एक कैबिनेट मंत्री भी भीड़ के सामने बेबस हैं तो फिर आम लोगों की क्या हैसियत.

बड़ा सवाल जिससे इस समाज की मानसिकता को समझने की कोशिश की जा सकती है वो यह कि सुषमा जी के किसी वरिष्ठ सहयोगी ने उनको दी जा रही गालियों की निंदा नहीं की.

सवाल है कि भीड़ इतनी हिंसक क्यों होती जा रही है. अफवाह अगर फैलती भी है तो भीड़ कानून अपने हाथ में लेने की हिम्मत कहां से जुटा पाती है. क्या कानून का डर, सजा का खौफ खत्म हो गया है. कौन उकसा रहा है, हिम्मत दे रहा है इस सनकी भीड़ को.

नेताओं से मिल रही है शह

केंद्रीय मंत्री जयंत सिन्हा, जब बेल पर रिहा हुए उन 6 लोगों को माला पहनाते नजर आए जो एक मीट व्यापारी की हत्या के दोषी हैं तब समझ में आता है की इस तरह की राजनीति भी इसे बढ़ावा दे रही है. मंत्री जी ने तो ट्विटर पर इसका बचाव भी किया. कहा कि उन्हें फास्ट ट्रैक कोर्ट के फैसले पर सवाल है. फैसले पर सवाल होना एक बात है और माला पहनाकर उनके साथ पोज़ करना दूसरी बात.

तो सोचिये वो कौन सी वजह है जो दुनिया की बेहतरीन यूनिवर्सिटीज में पढ़े हुए वेंचर कैपिटलिस्ट को गोरक्षकों का रखवाला बना देती है. लगता है कि पीएम मोदी के मंत्री उनकी ही बातों को इतनी संजीदगी से नहीं लेते जितनी हम और आप, क्योंकि याद कीजिए प्रधानमंत्री ने गोरक्षकों के भेस में छुपे असामाजिक तत्वों की निंदा की है.

क्या हिंदू, क्या मुसलमान, सब तरफ लोग ऐसी भीड़ में बदलते जा रहे हैं जो किसी को भी कभी भी मार सकती है. हिंसा उनके राजनीतिक और सामाजिक स्वभाव का हिस्सा बनती जा रही है. इस बंटे हुए समाज में जब तक लोग अपनी नफरतों और अपनी विचारधाराओं को किनारे रख एक-दूसरे से मिलना-जुलना वापस शुरू नहीं करेंगे यह बंटवारे बढ़ते जायेंगे. नहीं तो कितनी भी पाबंदियां हों या कानून वो भीड़ की हिंसा के आगे कमजोर पड़ते रहेंगे.

(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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