गोबर और मिट्टी से लीपा हुआ घर... सामने पड़ी खटिया... चूल्हे पर खाना पकाती महिला और हैंड पंप को बार-बार चलाकर पानी निकालने में व्यस्त लोग. दिल्ली जैसे महानगर में ऐसे गांव भी बसते होंगे, मालूम नहीं था. यह दिल्ली का अलीगांव है. यूपी बॉर्डर से बिल्कुल सटा हुआ. इतना कि पैर इधर से उधर हुआ तो लोग कहेंगे, आपको पता है, अभी आप यूपी में खड़े हैं?
वॉयलेट लाइन पर पड़ने वाले मोहन एस्टेट मेट्रो स्टेशन से करीब दस मिनट की दूरी पर बसा अलीगांव एक जमाने में सपेरों के लिए मशहूर हुआ करता था. यहां सपेरों के कई परिवार बसा करते थे, लेकिन समय और परिस्थितियों के साथ इनकी तादाद कम होती चली गई.
अब सपेरों के सौ-सवा सौ परिवार ही यहां रहते हैं. इस गांव में घूमने के दौरान हमारी तलाश एक ऐसे सपेरे की थी, जिसकी वेश भूषा किसी साधु की हो. जिसने काले या भगवे रंग का वस्त्र धारण किया हो. जिसने रुद्राक्ष की माला गले में लटकाई हो, जिसे हल्के-फुल्के मंत्र के साथ बीन बजाने की कला आती हो, जिसकी बीन की धुनों में सांपों को सम्मोहित करने का सामर्थ्य हो और जिसके हाथों की चार उंगलियों में सांप की टोकरी कसी हो.
लेकिन हमें ऐसा सपेरा कहीं नहीं दिखा. बीन के दर्शन भी दुर्लभ ही हैं. वो तो भला हो प्रकाश नाथ का, जिन्होंने हमारी मांग पर पिछले दो सालों से किसी कोने में पड़ी अपनी बीन को बाहर निकाला.
प्रकाश नाथ का घर मिट्टी का है. इस घर में एक कमरा भी है और कमरे में एक क्रम से बिछी तीन खटिया. रोटी चूल्हे की आंच पर पकती है और बिजली होने के बावजूद रात की कालिख अपना असर छोड़ती दिख रही है. वजह, घर में एक बल्ब से ज्यादा कुछ भी नहीं है.
जाति से सपेरा हैं, व्यवसाय से नहीं
प्रकाश नाथ जाति से सपेरे हैं, व्यवसाय से नहीं. एक ज़माने में व्यवसाय से भी हुआ करते थे और उनके मुताबिक वो जमाना खुशहाल था. अब ना खुशहाली है और ना ही व्यवसाय.
हम उनके कमरे के बाहर बने छोटे से आंगन में रखे खटिया पर बैठे उनसे बातें करने लगे.
रोजगार छिन गया तो अब क्या करते हैं?
‘बाकियों की तरह बेरोजगार हैं’,
तब घर कैसे चलता है?
जवाब मिला, ‘तीन बेटे हैं, बेलदारी, मजदूरी से काम चल जा रहा है. एक जमाना था, हम भी कमाते थे, लेकिन जबसे सरकार ने नए नियम कानून बनाए, सब धरा का धरा रह गया. अब तो इस चारदीवारी में ही समय गुजर जाता है.’
इस हताशा से की जवाब में 'ना' ही सुनने को मिलेगा, हमने उनसे वही सवाल दोहराया जो हमने पीछे छूटे कितने ही सपेरों से पूछा लिया था - बीन है?
हां, बिल्कुल.
यह सुनते ही हमारे कान खड़े हो गए.
बजाकर सुनाएंगे
हमारा इतना कहना था कि कमरे के भीतर एक कोने में पड़ी बीन को लिए वो हमारी तरफ बढ़े. बुढ़ापे में धीरे-धीरे उठने वाले इन कदमों में हमें अचानक ही गति महसूस हुई और मानों कई सालों से होठों की कैद में जकड़े उनके दांत मुस्कुराते वक्त दिख पड़े.
आज पूरे दो सालों के बाद एक सपेरे के हाथ में बीन थी. बीन की कवर पर जमीं एक गाढ़ी धूल को झाड़ते हुए वो कहने लगे, 'दो साल हो गए हैं, इसको छुए हुए. आज आप लोगों के कहने पर ही निकाली है.’
बीन तो यहां सबके पास है, बस डर से नहीं निकालता कि कोई सरकार या पुलिस का मुखबिर हुआ तो झूठे मामले में फंस जाएंगे. यह कहते-कहते प्रकाश बीन बजाने लगे.
बीन से निकली धुन किसी पुराने फिल्मी गीत की याद दिला रही थी. पूरी तन्मयता से वह धुन सुनते हुए जब हमने देखा कि उन्हें थोड़ी असहजता हो रही है तो हमने उन्हें बीच में ही टोका.
उस वक़्त हमें उनकी धुन से ज्यादा उनके हालात को देख चिंता हो रही थी, 'सरकार के आदेश के बाद हम बिना सांप के बीन बजाते थे. पैसा तो ना ही के बराबर मिलता था, लेकिन इसके बावजूद गजब का सुकून था. जैसे-जैसे बूढ़े होते गए, इसको बजाने में सांस फूलने लगी. देखने,सुनने में लगता है कि बजाना बहुत आसान है, लेकिन ये भी कला है, मेहनत, पसीना, हुनर सब खोजता है. इसके इतर माथे के नस में खून जम गया है. इलाज के लिए पैसा नहीं है. मुसीबत गिनाने बैठेंगे तब तो पहाड़ बन जाएगा.'
प्रकाश नाथ को दिलासा देते हुए हम आगे की तरफ बढ़े. रास्ते में हमें कुछ लोग बताने लगे कि पिछले 40 साल से बसी ये पूरी बस्ती अवैध है, यानी यहां जितने भी घर आपको दिख रहे हैं, वो अवैध जमीन पर बने हैं, लेकिन सरकार हर साल इसे वैध करने का चकमा देकर वोट ऐंठती है और बदले में अनायास ही यहां के घरों को तहस-नहस करके चली जाती है.
जब बस्ती अवैध है तो सबके घर में बिजली वाला मीटर कहां से लग सकता है?
ये सोचना तो आपका काम है, उन्होंने कहा.
रोजगार का दावा करने वाला रोजगार छीनता है?
सरकार द्वारा चलाई जा रही कई योजनाएं अलीगांव तक पहुंचते-पहुंचते ही फुस हो जाती है. यहां 200 में से केवल 10 घर ऐसे हैं , जिनके पास गैस का कनेक्शन है. लकड़ी और चूल्हे के सहारे ही रोटी पक रही है. वृद्धा पेंशन मिलता था, वो भी बंद हो गया.
सपेरा समाज के लिए सरकार ने किया ही क्या है? एक महिला ने पूछा. रोजगार का दावा करने वाला रोजगार छीनता है?
हमलोग सांप को मारते थे क्या? उसकी सेवा जितने लगन से हमलोग करते थे उतना कौन करेगा. सरकार कहती है, टोकरी में रखके उसकी आजादी छीनते हैं हमलोग, तो फिर चिड़ियाघर में क्या होता है?
विचार-विमर्श करते हुए बात साल 1972 में आए वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट की होने लगी.
साल 1972 का वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट और उसका दंश
साल 1972. देश में इंदिरा गांधी की सरकार थी. इसी वर्ष वन्यजीव संरक्षण अधिनियाम यानी वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट को लाया गया. इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य वन्य जीवों के अवैध शिकार, उनकी खाल/माँस के व्यापार को रोकना था. जंगली जानवरों, पक्षियों और पौधों को संरक्षण देने वाले इस अधिनियम में कुल 6 अनुसूचियां हैं जो अलग-अलग तरह से वन्यजीव को सुरक्षा प्रदान करती हैं.
एक्ट बनने के बावजूद जानवरों का शिकार और उनका अवैध व्यापार बरकरार रहा. बाद में साल 1989 में जनता दल की सरकार बनने के बाद मेनका गांधी ने 1989 से 1991 तक पर्यावरण मंत्री का कार्यभार संभाला. इन सालों में उन्होंने वाइल्डलाइफ संरक्षण को लेकर कई महत्वपूर्ण कदम उठाएं, लेकिन सरकार गिरने की वजह से वह अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकीं.
इसके बावजूद मेनका वाइल्डलाइफ, जानवरों के हकों को लेकर काफी सजग और सक्रीय रहीं.
बाद में बीजेपी में शामिल होने के बाद साल 1999 में उन्हें अतिरिक्त रूप से पर्यावरण का कार्यभार मिला. इस समय मुख्य रूप से पर्यावरण मंत्रालय टी.आर बालू संभाल रहे थे. साल 2002 में वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट में एक बड़ा संशोधन हुआ. मेनका और बालू के प्रतिनिधित्व में एक्ट का सख्त रूप से प्रवर्तन कराया गया और सजा के प्रावधानों को और कड़ा कर दिया गया.
ऐसे में असर ये हुआ कि सपेरे जहां कहीं भी सांप लिए, या अपने घरों में सांप रखे हुए पकड़े जाते, उन्हें जेल में ठूंस दिया जाता. इस फैसले ने सपेरों से उनका रोटी, रोजगार और उससे भी बढ़कर उनकी परंपरा छीन ली.
क्या है दिल्ली की अन्य सपेरा बस्तियों के हाल?
दिल्ली में कुल तीन ऐसी बस्तियां हैं जहां सपेरे बसते हैं. ये अलीगांव, घड़ोली और मोलरबंध हैं. तीनों ही जगह की स्थिति एक समान है. सबकी एक ही समस्या- रोजगार. इसके इतर जो समस्या है वो सरकारी योजनाओं का सफलतापूर्वक उन तक नहीं पहुंचना है. नाराजगी जहन में घर कर के बसी हुई है, जातीय भेद-भाव का भी दंश झेलने वाला यह सपेरा समाज अभी सामाजिक समानता कि बात करने में दिलचस्पी नहीं दिखाता. इसे रोजगार चाहिए. जिसे इनकी चुनी हुई सरकार ने ही इनसे छीन लिया है.
सरकार ने रोजगार तो छीन लिया लेकिन बदले में क्या दिया?
कुछ भी नहीं, कोई नौकरी, पुनर्वास जैसी कोई पॉलिसी ही नहीं बनी. एक ही साथ लाखों-लाख सपेरों का रोजगार छिन गया. बदले में कोई मुआवजा या रोजगार का दूसरा जरिया नहीं दिया गया. जिन सपेरों ने जिंदगी भर सांप पकड़ने, बीन बजाने, सांप के काटने पर जड़ी-बूटी से दवा करने का काम किया, वह अचानक ही बेलदारी, मजदूरी जैसे कामों की तरफ बढ़ने लगे.
बतौर सपेरें भी इनकी हालत कोई अच्छी नहीं थी, दिन के सौ-दो सौ रुपए ही कमाते थे, लेकिन खुश थे. अपनी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए अपने बच्चों को भी ये सारी कलाएं सिखाया करते थे, लेकिन अब तो ये हुनर नई पीढ़ियों में खोती ही दिख रही है. नई पीढ़ी ना अपनी परंपरा को आगे बढ़ा सकी, ना पढ़-लिखकर कुछ अच्छा कर पाई. यह समाज बहुत पिछड़ा है. ऐसा कहना है पर्यावरण और सांपों के संरक्षण एक्टिविस्ट बिप्लब महापात्रा का. महापात्रा ने कहा कि वाइल्डलाइफ प्रोटेक्शन एक्ट आने के बाद कुछ ही राज्यों ने सपेरों के पुनर्वास को लेकर काम किया. तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल की सरकार इसका सटीक उदाहरण है.
सपेरों के पुनर्वास में तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल सरकार की पहल
एक तरफ जहां सांप को बचाने के लिए वाइल्डलाइफ प्रोटेक्शन एक्ट के नियमों का सख्ती से पालन होना जरूरी है, वहीं दूसरी तरफ हाशिए पर चले गए सपेरों की जिंदगी सुधारना चुनौती.
भारत में हर साल करीब 50 हजार से अधिक लोग सांप काटने से मर जाते हैं. इनके कांटने का केवल एक ही इलाज है- एंटी वेनम इंजेक्शन. तमिलनाडु सरकार ने इसी क्षेत्र में सपेरों के उज्जवल भविष्य की राह तलाशी है. साल 2006 में ही सरकार ने सपेरों को उनके ही क्षेत्र में बतौर सांप रेस्क्यूअर और एंटी वेनम सेंटर में सांप के जहर को निकालने संबंधी नौकरी दी .
फिर तमिलनाडु सरकार की ही तर्ज पर पश्चिम बंगाल सरकार ने प्रदेश के 70,000 सपेरों की आजीविका सुरक्षित रखने के लिए 2016 में सांप प्रजनन फार्म तैयार किया. ममता बनर्जी ने राज्य के कई एनजीओ के साथ मिलकर यह कदम उठाया है. सरकार का मानना था कि कड़े हो चुके वाइल्डलाइफ संरक्षण एक्ट के बाद सपेरों को मजबूरन दूसरे व्यवसायों की तरफ रुख करना पड़ रहा था. उनकी प्रतिभा खत्म हो रही थी. उस प्रतिभा को जिंदा रखने के लिए सरकार ने सांपों के प्रजनन का यह चाइनीज मॉडल अपनाने का सोचा.
इस परियोजना के तहत, राज्य सरकार गैर सरकारी संगठनों की सहायता से सपेरों को ट्रेन कर के सांप प्रजनन के महत्वपूर्ण चीजों को समझाती है. फिर इनसे निकलने वाले जहर को इकट्ठा करके एंटी वेनम दवाई तैयार की जाती है. भारत में केवल छह कंपनियां ही यह दवा बेचती हैं.
संपेरों की जिंदगी सुधारने के लिए तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा उठाया गया यह कदम पूरे देश के लिए एक मॉडल है.
दिल्ली में इस एनजीओ ने उठाया ऐसा ही मिलता-जुलता एक कदम
दिल्ली में चलने वाली वाइल्डलाइफ एसओएस नामक संस्था सपेरों की जिंदगी पटरी पर लाने का काम कर रही है. अपने आप में अनोखी इस संस्था की पीआरओ अर्तिका के अनुसार उनके यहां सपेरों को स्नेक रेस्क्यूर के तौर पर रखा जाता है. उनका काम केवल आसपास निकलने वाले सांपों को पकड़ कर लाना है. इसके लिए उन्हें हर महीने पगार दी जाती है. इससे सांप को भी कोई नुकसान नहीं पहुंचता और सपेरों की आजीविका का साधन भी मिल जाता है, लेकिन राजधानी में एक एनजीओ द्वारा उठाया जा रहा यह छोटा कदम ऊंट के मुंह में जीरा जैसा है.
ऐसे में कुछ लोगों का मानना है कि सपेरों को क्यों नहीं दूसरे व्यवसाय की तरफ बढ़ाया जाए. कब तक सांपों से घिरे रहेंगे? लेकिन दिल्ली में पिछले कई वर्षों से पर्यावरण के मुद्दे पर काम कर रहे दुनो रॉय का मानना है कि आज जरूरत है सपेरों के ताकत को पहचानने की. बजाय इसके कि वो किसी और पेशे की ओर जाए, हमें इस दिशा में काम करना चाहिए की उनके नैसर्गिक क्षमताओं का उपयोग किस प्रकार किया जा सकता है.
तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल जैसा ही देश भर में एंटी वेनम बनाने वाली प्रयोगशालाओं में सपेरों के ज्ञान का इस्तेमाल किया जा सकता है. वैज्ञानिकों और सपेरों के बीच में एक संवाद कायम करा कर उनके ज्ञान का उपयोग समाज कल्याण में किया जा सकता है. यह सपेरों के परंपरागत पेशे को भी बचाएगा और उन्हें अपनी आजीविका का साधन भी देगा.
विपरित परिस्थिती में भी हर बार की तरह कुछ सितारे राह दिखाने में लगे हैं
सरकार ने भले ही समाजिक और आर्तिक रूप से पिछड़े सपेरों को रोजगार के अवसर न मुहैया कराए हों, लेकिन इन्हीं में से कुछ ने अपने समाज का नाम रौशन किया और आज पारंपरिक और गैर-पारंपरिक दोनों ही क्षेत्र में अपना और अपने समाज के ही अन्य लोगों का भविष्य उज्जवल करने में जुटे हैं. एक ऐसे दौर में जब सपेरे अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहें, अलीगांव के विक्रम पहलवान सपेरा समाज का ऐसा सितारा हैं जो अपनी रौशनी से गांव के कई नौजवान सपेरों को राह दिखाने का काम कर रहा है.
विक्रम कुश्ती में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत का दो बार प्रतिनिधित्व कर चुके हैं. इसके साथ ही वह सलमान खान अभिनीत ' सुल्तान ' मूवी में भी काम कर चुके हैं. लेकिन एक सपेरे का विक्रम पहलवान बनने तक का सफर काफी संघर्षों भरा है. खैर, हर सफलता के पीछे ही संघर्ष की एक लंबी कहानी छुपी होती है. उसे बार-बार कुरेदना ठीक नहीं .
दूसरी तरफ घड़ौली गांव की सपेरा बस्ती में प्रो.शर्मानाथ ने भी ऐसा ही एक उदाहरण पेश किया है. खास बात तो यह है कि शर्मा ने अपनी परंपरा को ही बढ़ाते हुए, एक बैंड की शुरुआत की है. उनकी बैंड और वो खुद शादी-पार्टियों में बीन बजाकर पैसे कमाते हैं. उनकी यह बीन बैंड इटली तक का सफर तय कर चुकी है.
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