'आप अचानक ही हमें छोड़कर चले गए लेकिन हमें विश्वास है कि अपनी दृढ़ता और अनुकरणीय साहस के साथ आप हमें आगे बढ़ते रहने का हौसला देंगे. हम उनसे डरेंगे नहीं जिन्होंने आपको हमसे छीन लिया. हम सच के रास्ते पर चलने वाली आपकी परंपरा को आगे बढ़ाएंगे. चाहे वो सच कितना ही कड़वा क्यों न हो.'
श्रीनगर से छपने वाले अखबार 'राइज़िंग कश्मीर' के संपादक रहे शुजात बुखारी आज खुद अपनी अखबार की लीड बन गए हैं. पहले पन्ने पर अंधेरे में उजाला उकेरते हुए उनकी तस्वीर के नीचे कुछ ऐसा ही शोक संदेश लिखा है. बीती फरवरी में वह 50 साल के हुए थे. वरिष्ठ पत्रकार और राइज़िंग कश्मीर के संपादक शुजात बुखारी की देर शाम 7:15 बजे अज्ञात हमलावरों ने गोली मारकर हत्या कर दी. वह अपने दफ्तर से इफ्तार पार्टी के लिए निकल रहे थे कि इतने में बाइक पर सवार कुछ नौजवानों ने उन पर गोलियां चलाई और इस हमले में उनके सुरक्षा अधिकारी की भी मौत हो गई.
हमले के बाद क्या था वहां का माहौल?
प्रेस एनक्लेव पर स्थित उनके ऑफिस के चारो तरफ टूटे हुए कांच पसरे थे. एक कोने में खड़ी उनकी कार पर केवल गोलियों के निशान नजर आ रहे थे. हमले के बाद भी हमलावर हवा में गोलियां चला रहा था. ताकी शुजात को अस्पताल ना ले जाया जा सके. हालांकि किसी भी तरह उन्हें अस्पताल तक पहुंचाया गया. जहां डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया.
शुजात की मृत्यु के बाद राइज़िंग कश्मीर के संवाददाता मंसूर पीर अपने फेसबुक पोस्ट में लिखते हैं,' मैं विश्वास नहीं कर पा रहा, मेरी प्रेरणा, मेरे गुरु, मैं कैसी स्थिति से गुजर रहा हूं बता नहीं सकता. शुजात सर ने मुझे शाम चार बजे बुलाया और एक स्टोरी करने को दी. मैं स्टोरी पूरी कर भी नहीं पाया था कि मुझे एक रिपोर्टर ने कॉल कर के इस खबर की जानकारी दी. शुजात सर नहीं रहे. क्यों? आपकी जगह मेरी हत्या क्यों नहीं हो गई?'
शुजात की हत्या की खबर पूरे देश में आग की तरह फैल गई. ट्विटर से लेकर फेसबुक पर पोस्ट और बयानों की बाढ़ आने लगी. वरिष्ठ पत्रकार राम चंद्र गुहा, हरीश खरे से लेकर मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती, उमर अब्दुल्ला ने घटना को चौंकाने वाला और दुखद बताते हुए ट्विटर पर शोक संदेश लिखे. शुजात के भाई सैयद बशारत बुखारी, जो राज्य कानून मंत्री और पीडीपी के बड़े नेता हैं, पुलिस कंट्रोल रूम में बैठे रो रहे थे. राज्य के कई बड़े मंत्री, खुद महबूबा मुफ्ती ने बुखारी के परिजनों से मुलाकात की.
व्यक्तित्व के कैसे थे शुजात?
लंबी कद काठी वाले शुजात बुखारी के बारे में कहा जाता है कि वो सभी से झुक कर बात करते थे. ये उनके आचरण का एक हिस्सा बन चुका था. उनके बच्चे जब छोटे थे तो वो अपने अब्बू की नकल करते हुए अपना सिर झुका कर चला करते थे. अपनी शरारत भरी मुस्कान के साथ वो बड़ी ही नम्रता से अपनी बात दूसरों के सामने रखते थे. हिंसक या आक्रामक होना उनके व्यक्तित्व का हिस्सा कभी नहीं रहा.
राइज़िंग कश्मीर शुरू करने से पहले वह साल 1997 से 2012 तक कश्मीर में 'द हिन्दू' अखबार के संवाददाता थे. शुजात ने अपने अखबार के जरिए कश्मीर के आतंकियों, चरमपंथियों को लताड़ने के साथ ही सुरक्षाबलों की जोर- जबरदस्ती के खिलाफ भी आवाज उठाई. हालांकि एक छोटा वर्ग उन्हें कश्मीरी चरमपंथियों का समर्थक बताता है. बल्कि पत्रकारिता के क्षेत्र में उनकी मिसाल हमेशा एक निर्भीक पत्रकार की ही रही है. हाल ही में कश्मीर में हो रहे मानवाधिकार पर हमले को लेकर यू.एन की रिपोर्ट आई थी. जिसे भारत सरकार ने खारिज कर दिया था. सरकार का कहना था कि यह रिपोर्ट बिल्कुल निराधार और पूर्वाग्रहों से ग्रसित है. वहीं सरकार के इस रवैये की बुखारी ने कड़ी निंदा की थी.
शुजात ऐसे मुद्दों पर हमेशा कश्मीरियों के पक्ष में खड़े दिखते थे और सरकार के अनदेखे रवैयों की निंदा करते थे. लेकिन हाल ही में बुखारी ने सरकार के उस फैसले की सराहना करते हुए एक कॉलम लिखा था, जिसमें रमजान के दौरान सीजफायर करने की मनाही का आदेश दिया गया था. रमजान के पवित्र महीने में शांति और सौहार्द बनाने के लिए सरकार की इस पहल की सराहना करने के कुछ दिनों बाद ही ईद के दो दिनों पूर्व उनकी हत्या कर दी गई.
हमारे वरिष्ठ कहते हैं कि एक पत्रकार की सुबह अखबार के पन्नों को पलटे बिना नहीं होती. सुबह उठ के जो पहला काम वह करता है, वो अखबार पढ़ना ही है. इस मामले में शुजात की सुबह इंतजार में कटती थी. इंतजार अखबार के आने की. क्योंकि न्यूयॉर्क टाइम्स और गॉर्जियन आने में दोपहर लग जाती थी. हांलाकि उनकी यह आदत स्मार्टफोन के आने के बाद भी नहीं छूटी. उन्होंने सिंगापुर की एशियन सेंटर फॉर जर्नलिज्म की फेलोशिप पर पत्रकारिता की पढ़ाई की थी.
पत्रकारिता के इतर शुजात को साहित्य और संस्कृतियों के बारे में जानने की भी रुचि थी. वो घाटी के सबसे बड़े और पुराने सांस्कृतिक और साहित्यिक संगठन 'अदबी मकरज कमराज' के अध्यक्ष थे. रमजान के पवित्र महीने के आख़िरी जुम्मा से ठीक एक दिन पूर्व शुजात की हत्या कर दी गई. उनके परिवार में उनकी पत्नी और दो बच्चे हैं. इसके पूर्व भी उन पर हमले की तीन नाकाम कोशिशें हो चुकी थीं. वो साल 2000 था, जब उन पर पहली दफ़ा हमला हुआ. उसके बाद से ही उन्हें पुलिस सुरक्षा मुहैया करा दी गई थी.
साल 2006 में दोबारा उनकी हत्या करने की कोशिश की गई. पहले तो कुछ अनजान पिस्टलधारकों ने उन्हें अगवा किया. फिर एक ऑटोरिक्शा में लादकर ले गए. कुछ दूर के बाद उन्हें नीचे गिराते हुए उन पर फायरिंग की कोशिश की गई पर पिस्टल काम नहीं कर पाई और कुछ यूं उनकी जान जाते जाते बच गई. लेकिन इस बार आतंकियों का निशाना नहीं चूका और ना ही पिस्टल की गोली रूक पाई.
उन पर हमला किसने किया? कारण क्या था? अभी तक इसकी कोई जानकारी नहीं है. लेकिन आए दिन पत्रकारों पर हो रहे हमले लोगों में एक डर पैदा कर रहे हैं. आवाज उठाने का डर, मुख़र होने का डर, सरकार के पक्ष या फिर विपक्ष में बोलने का डर, निर्भीक पत्रकारिता करने का डर.
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