शेखर कपूर का जन्म लाहौर में हुआ था. उम्र अभी दो साल से भी कम ही थी, जब बंटवारे के बाद वो लोग भारत आ गए. पिता डॉक्टर थे और मां एक अंतरराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी करती थीं. शेखर कपूर का बचपन एक मध्यमवर्गीय परिवार के बच्चों के जीवन की तरह ही बीता. शेखर खुद ही याद करके बताते हैं, 'मुझे याद है कि मां दिल्ली की बसों में धक्के खाकर काम करने जाती थीं. यहां तक कि तब भी जब वो गर्भवती थीं. उस जमाने में भी दिल्ली की बसों का सफर बहुत आसान नहीं होता था. बाद में मेरे पिता जी की प्रैक्टिस अच्छी चलने लगी और हमारे आर्थिक हालात सुधरते चले गए.'
दिल्ली आने के बाद शेखर कपूर का एडमिशन मॉर्डन स्कूल में हुआ था. मॉर्डन स्कूल के प्रिसिंपल उनके पिता के बड़े भाई थे. बाद में जब ये बात उनके दोस्तों को पता चली तो वो उनका मजाक भी उड़ाते थे कि उन्हें तो रिश्तेदार के प्रिसिंपल होने का बड़ा फायदा मिलेगा. शेखर कहते हैं, 'हालांकि ये अलग बात है कि ऐसा कोई फायदा मुझे मिला नहीं. मुझे कभी इस बात का ‘फेवर’ नहीं मिला कि वो मेरे पिता के भाई हैं.'
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शेखर कहते हैं, 'मुझे याद है कि मैं बचपन में गणित में कमजोर था. इसलिए गणित की क्लास मुझे और बड़ी दिखती थी. अभी कुछ साल पहले जब मैं मॉर्डन स्कूल गया तो वो प्रिसिंपल सर के ऑफिस का ‘कॉरीडोर’ मुझे अब भी डरा रहा था. दरअसल, जब आप किसी चीज से डरते हों तो वो आपको और डराती है, मेरे ऊपर ये बात गणित को लेकर लागू होती थी. गणित की क्लास में ब्लैकबोर्ड और चॉक को देखकर मुझे डर लगता था. लगता था कि वो मुझसे दूर भाग रहे हैं. केमिस्ट्री में मैं खूब ‘एक्सपेरीमेंट’ करता था. कभी पोटैशियम सल्फेट तो कभी सल्फ्यूरिक एसिड. कैमिस्ट्री लैब के ‘एक्सपेरीमेंट’ मुझे बहुत आकर्षित करते थे. कभी किसी ‘लिक्विड’ को तो कभी किसी पाउडर को इधर-उधर मिलाना मुझे पसंद था. बीकर से गैस निकलना, रंगों का बदल जाना ये सब कुछ मुझे बहुत अच्छा लगता था.'
शेखर को अपनी जिंदगी में भी इस तरह के प्रयोग काफी पसंद हैं. इसको, उसको या उसको और किसी और को मिलाकर दिया जाए तो क्या होगा. उनकी फिल्मों में ये प्रयोग आप महसूस कर सकते हैं.
शेखर कपूर और मशहूर डॉक्टर नरेश त्रेहान साथ ही पढ़ते थे. दोनों लोग बॉयलॉजी में एक साथ प्रैक्टिकल करते थे. उन्हें मेंढक काटने को मिलते थे. कभी उसकी नस गलत कट जाती थी तो कभी चमड़ी. मेढक को बेहोश करने के लिए सुंघाए जाने वाले क्लोरोफॉर्म की महक शेखर कपूर को अब भी उनके स्कूल की याद दिलाती है.
मुझे वो दिन आज भी याद है जब हम हुमायूं रोड पर आयोजित एक कार्यक्रम में गए थे. वहां मुझे प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को गार्ड ऑफ ऑनर देना था. मेरे हाथ में तलवार थी. सारी ड्रिल मैंने अच्छी तरह याद की थी. लेकिन जब पंडित जी के पास पहुंचा तो उन्होंने मेरी तरफ हाथ बढ़ा दिया. उनके चेहरे पर तो मुस्कान थी लेकिन मैं घबरा गया, ऐसा लगा कि पूरी रिहर्सल ही भूल गया.
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शेखर आगे बताते हैं, 'मैंने उन दिनों अपने स्कूल को तैराकी में भी ‘रिप्रेसेंट’ किया. कुल मिलाकर मेरा बचपन एक आम बच्चे की तरह ही था. मैं पढ़ने में ज्यादा ध्यान नहीं लगाता था. क्लास में टीचर कुछ पढ़ा रहे हैं और मैं अपने आप में ही खोया हुआ हूं. कोई कहानी बुन रहा हूं. टीचर अक्सर कहते थे कि तुम्हारा ध्यान कहां रहता है. मुझे खुद भी नहीं पता कि मेरा ध्यान कहां रहता था. इन सारी छोटी-बड़ी शैतानियों के बीच बस इस बात का ध्यान रखता था कि मुझे फेल नहीं होना है.'
शेखर अपने बचपन का एक दिलचस्प वाकया सुनाते हुए कहतै हैं, 'बचपन में मजे की एक और बात बताता हूं. जाने माने स्टार देव आनंद मेरे करीबी रिश्तेदार थे. लड़कियां उनकी जबरदस्त दीवानी थी. उनकी वजह से वो मुझे भी बहुत तंग करती थीं. मैं भी अपनी स्टाइल में रहता था, मैंने बड़े-बड़े बाल रखे थे. हालांकि मुझे ये बात अच्छी तरह समझ आती थी कि उन दिनों लड़कियां मेरे पास सिर्फ इसलिए मंडराती थीं क्योंकि वो देव आनंद साहब से मिलना चाहती थीं.'
वो कहते हैं, 'मेरा सबसे मजेदार किस्सा तो देरी से स्कूल पहुंचने का है. दरअसल मैं निजामुद्दीन के रास्ते होता हुआ बाराखंभा रोड पर मॉर्डन स्कूल जाता था. रास्ते में इंडिया गेट पड़ता था. इंडिया गेट के लॉन में उन दिनों शहतूत और जामुन के खूब सारे पेड़ थे. ताजे-ताजे जामुनों को देखकर स्कूल जाने का प्लान कई बार बदला गया है. मैं वहां रुककर पहले जी भर के जामुन खाता था, उसके बाद स्कूल के लिए निकलता था. मुसीबत ये थी कि जामुन खाने के चक्कर में ‘लेट’ हो जाता था. मुझे याद है कि कई बार क्लास में देरी से पहुंचने पर मैंने बड़े-बड़े बहाने सुनाए, लेकिन बहाने मुंह खोलते ही बेकार हो जाते थे. दरअसल, मुंह खुलते ही जामुनी रंग की जीभ टीचर को दिख जाती थी और उन्हें समझ आ जाता था कि देर से क्लास में आने के पीछे माजरा क्या है.
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