मुझे आजादी का दिन बहुत अच्छी तरह याद है. 70 साल हो गए. याद आता है वो दिन. मैं उस वक्त उत्तर प्रदेश के बलरामपुर में रहता था. बड़ी तादाद में शरणार्थी आ रहे थे. उत्साह था, आशाएं-आकांक्षाएं थीं. लेकिन मानसिक तौर पर एक तरह से धक्का भी लगा था. वजह थी कि देश का विभाजन हुआ था. आजादी के दिन भी यह बात जेहन से निकल नहीं पा रही थी.
इन गंभीर बातों के बीच 15 अगस्त 1947 की एक घटना कभी नहीं भूल पाता. अब सोचकर हंसी आती है. लेकिन उस वक्त मैं बड़ी परेशानी में था. मैं छठी या सातवीं कक्षा में पढ़ता था. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस में था. आजादी के दिन पूरे गांव में मिठाई बांटी गई थी. मुझे मिठाई का बड़ा शौक था.
बलरामपुर में एक मिठाई बड़ी अच्छी मिलती थी, कलाकंद. वही मिठाई बांटी गई थी. करीब एक-एक पाव (250 ग्राम) मिठाई हर बच्चे को मिली थी. आरएसएस की ओर से आदेश आया था कि कोई मिठाई नहीं खाएगा. मिठाई का बहिष्कार किया जाएगा. मैंने आदेश का पालन किया और मिठाई नहीं खाई. वो डिब्बा मेरे दोस्त रामेश्वर ने लिया और मिठाई खाकर कहा कि बहुत बढ़िया है. मैं अब भी उस वाकये को भूल नहीं पाया हूं.
हल्की-फुल्की बातों से अलग मुझे उस दौर के नेता याद आते हैं. गांधी, नेहरू, बोस, मौलाना आजाद. इन सबकी वाणी किसी जादू की तरह काम करती थी. इनका नाम ही लोगों में भरोसा जगाने के लिए काफी था. जनता ने इनको जेल जाते, डंडा खाते देखा था. उनकी वाणी की विश्वसनीयता ही अलग थी. कहते हैं ना कि जलता हुआ दिया ही दूसरा दिया जला सकता है. इन नेताओं के साथ यही खासियत थी.
उस दौर से निकलकर आज की तरफ आते हैं. मुझे कई लोग मिलते हैं, तो कहते हैं कि 70 साल में कुछ नहीं हुआ. मुझे बहुत कोफ्त होती है. चाहता हूं कि उन्हें 70 साल पहले ले जाऊं. वो दौर, जब एसी, टीवी, कार से लेकर तमाम भौतिक सुविधाएं नहीं होती थीं. बिजली ज्यादातर जगह नहीं थी. गांव में मोटरसाइकिल आती थी, तो पूरा गांव देखने जाता था. हम बच्चे मोटरसाइकिल के पीछे भागते थे. पेट्रोल की महक लेते थे. सिनेमा देखने के लिए दूर जाना पड़ता था.
वो दौर था, जब हैजा होता था, तो गांव का गांव खत्म हो जाता था. गांव में कुष्ठ रोगी ढेर सारे नजर आते थे. विकलांग लोग भरे पड़े थे. जिस घर में ऐसे लोग होते थे, उनका परिवार ही उन्हें भगा देता था. उस दौर से हम आज के दौर में आए हैं. पिछले 10-20 साल से ही तुलना करें, तो आपको काफी बदलाव दिखेगा. ऐसे में हम कैसे कह सकते हैं कि 70 साल में कुछ नहीं हुआ. यह कहा जा सकता है कि जितना होना चाहिए था, उतना नहीं हुआ. लेकिन काफी कुछ हुआ.
इससे भी खास बात यह है कि उस दौर में नेताओं पर भरोसा था, जो इस दौर में खत्म होता गया है. दो और अहम बातें हैं, जो पिछले 70 साल में हुई हैं. एक है नारी शिक्षा और दूसरी दलित उत्थान. दलितों पर शताब्दियों से अत्याचार हो रहे थे. जातिवाद को लेकर अपनी ही कहानी बताता हूं. मेरे घर से स्टेशन करीब 15 किलोमीटर था. मैं बस्ता लेकर जाता था. रास्ते में कोई मिलता तो पूछता था कि कहां जा रहे हो... और दूसरा सवाल- कौन जात हो? मैं जैसे ही बताता था कि ब्राह्मण हूं, लोग आकर पैर छूने लगते थे या मेरा बस्ता ले लेते थे.
नारी शिक्षा को लेकर फर्क इससे समझ आता है कि मैं गांव जाता हूं, तो ढेर सारी लड़कियां स्कूल जाती दिखाई देती हैं. गांव के बाहर एक इलाका है, जो वेश्याओं के लिए जाना जाता है. उनकी बच्चियां स्कूल जाती हैं. यह बदलाव ही तो है. इसीलिए मैंने कहा कि नारी शिक्षा और दलित उत्थान को लेकर बहुत काम हुआ है.
आजादी को लेकर मेरे मन में एक सवाल आता है. सवाल यह है कि आजादी के बाद हम ज्यादा आजाद हुए हैं या उससे पहले ज्यादा आजाद थे. मुझे लगता है कि वो दौर एक मिशन जैसा था. हमारी चेतना आजाद थी. हम संघर्ष कर रहे थे. एकजुटता की भावना था. अब अलगाव दिखता है. हम स्वार्थी हो गए हैं. जीवन के वास्तविक सुख से दूर होते जा रहे हैं. भौतिक सुविधाएं तो यकीनन बढ़ी हैं. लेकिन अगर हम सिर्फ पैसों के लिए ही कुछ करते हों, तो इसका मतलब है कि एक अलग तरह के गुलाम हो गए हैं.
भौतिक इच्छाएं बहुत बढ़ गई हैं. जीवन के उच्चतर सुख की तरफ नजरें हटी हैं. सुख वो भी होते हैं, जो कविता सुनने से मिले. बच्चे को दुलार करने से मिले. त्याग करने से मिले. सामाजिकता का आधार कम हो गया है. इसे और विकसित करने की जरूरत है. स्वाधीनता पाने के बाद स्वाधीन चेतना उस तरह विकसित हुई है, इसे लेकर शंका है. वो चेतना विकसित करने की जरूरत है. वो आजादी पाने की जरूरत है.
(16 फरवरी 1932 को जन्मे डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी हिंदी के सबसे सम्मानित साहित्यकारों में एक हैं.)
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