पचास के दशक के आखिरी सालों की बात है. अब तो इस बात को भी साठ साल से ज्यादा बीत गए. एक बंगाली फिल्मकार को मुंबई से बुलावा आया. वो टेलीग्राम भेजने का दौर था. एक रोज उसके पास एक तार आया. तार के जरिए उन्हें बुलावा भेजने वाले थे महान संगीतकार सलिल चौधरी. सलिल चौधरी उस समय फिल्म इंडस्ट्री के बड़े नामों में शुमार थे. उन्होंने उस बंगाली फिल्मकार को लिखा कि वो मुंबई आ जाएं जहां उन्हें फिल्मिस्तान स्टूडियो में नौकरी मिल सकती है.
उनके इस टेलीग्राम भर से उस फिल्मकार के घरवालों में खुशी की लहर दौड़ गई. कुछ लोगों ने ये भी कहा कि उनकी पत्नी की किस्मत से उनका सितारा चमक रहा है. दरअसल, उन दिनों फिल्मिस्तान की बड़ी साख हुआ करती थी. जाने माने डायरेक्टर सुबोध मुखर्जी के भाई सशाधर मुखर्जी ने अपने कुछ दोस्तों के साथ मिलकर फिल्मिस्तान शुरू किया था.
सुबोध मुखर्जी की फिल्म मुनीम जी, पेइंग गेस्ट, जंगली, साज और आवाज, शागिर्द और शर्मीली को खूब सराहना मिली थी. सशाधर मुखर्जी ने भी हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को लव इन शिमला, लीडर और जागृति जैसी फिल्में दीं. खैर, वो बंगाली फिल्मकार मुंबई पहुंच गए. मुंबई पहुंचने के बाद उन्हें फिल्मकार ऋषिकेश मुखर्जी के घर पर ठहरने का मौका मिला. कुछ दिन वो केस्टो मुखर्जी के साथ भी रहे. यानी सब कुछ सही दिशा में आगे बढ़ रहा था. ऐसा लग रहा था कि अब नाम, काम और दाम तीनों लिहाज से किस्मत बदलने वाली है.
किसी भी नए फिल्मकार के लिए इससे बेहतर शुरुआत शायद ही हो सकती है, लेकिन कहानी में पेंच यही है कि उस बंगाली फिल्मकार ने इन सारी बातों को भूलकर कुछ ही समय बाद फिल्मिस्तान छोड़ दिया.
दरअसल, ये कहानी है दिग्गज बंगाली फिल्मकार ऋत्विक घटक की. 4 नवंबर 1925 को ढाका में जन्में ऋत्विक घटक के परिवार में तमाम कलाओं का संगम था. पिता सरकारी अधिकारी होने के साथ साथ कविताएं और नाटक लिखते थे. बाद में उनका पूरा परिवार कलकत्ता आ गया था. खैर, ऋत्विक घटक में भी चीजों को देखने परखने का एक अलग ही नजरिया था. ये अलग नजरिया ही उन्हें मुंबई लाया था. उन्होंने फिल्मिस्तान में काम करना शुरू कर दिया था.
दिक्कत इस बात की थी कि वो जिस तरह का काम करना चाहते थे, कर नहीं पा रहे थे. लिखना, पढ़ना और रिहर्सल के दौर तो चल रहे थे लेकिन उन आंखों को सुकून नहीं था जो कुछ अलग ही अंदाज तलाशती थीं. फिल्मों के लिए लगातार लिखने की ‘डिमांड’ उनसे पूरी नहीं की जा रही थी. एक दिन उन्होंने फिल्मिस्तान छोड़ने का फैसला कर लिया. फिल्मिस्तान छोड़ने से पहले उन्होंने अपनी ख्वाहिश जाहिर की. इसी ख्वाहिश में उनका दर्द छिपा था.
उन्होंने सशाधर मुखर्जी से गुजारिश की कि वो फिल्मिस्तान में एक अलग डिपार्टमेंट बनाएं. उस अलग डिपार्टमेंट का नाम हो प्रयोगात्मक फिल्ममेकिंग या एक्सपेरिमेंटल फिल्ममेकिंग. जिसमें कम बजट हो, कोई बड़ा अभिनेता-अभिनेत्री ना हों, बहुत तामझाम वाले इक्विपमेंट ना हों, फिल्म के तकनीकी पक्ष से जुड़े लोगों में कोई बड़ा नाम ना हो, बड़े बड़े सेट्स ना हों और ना ही बड़े संगीतकार. कुछ हो तो बस आइडिया और उस आइडिया को कैमरे में कैद करने की काबिलियत. इसी ख्वाहिश के साथ ऋत्विक घटक वापस कलकत्ता चले गए. लेकिन वापसी से पहले वो हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को एक ऐसी फिल्म दे गए जो सदियों तक याद रखी जाएगी. वो फिल्म थी मधुमती.
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मधुमती 50 के दशक की बड़ी फिल्मों में शुमार हुई. दिलीप कुमार और वैजयंतीमाला को लेकर ये फिल्म बिमल रॉय ने बनाई थी. इस फिल्म से जुड़ा एक दिलचस्प किस्सा ये भी है कि इसी फिल्म के गाने आ जा रे मैं तो कब से खड़ी इस पार के लिए लता मंगेशकर को पहली बार फिल्मफेयर अवॉर्ड मिला था. इससे पहले फिल्मफेयर अवॉर्ड में गायको की श्रेणी ही नहीं थी. इस फिल्म ने 1958 में रिकॉर्ड फिल्मफेयर अवॉर्ड जीते थे.
ऋत्विक घटक को भी इस फिल्म की कहानी के लिए नॉमिनेट किया गया था. फिल्म के डायलॉग लिखे थे राजिंदर सिंह बेदी ने. खैर इस शुरुआती कामयाबी के बाद ऋत्विक घटक और उनकी पत्नी को ये बात समझ आ गई कि अगर वो मुंबई में रहे तो आने वाले वक्त में पैसों की कमी नहीं होगी. ये अलग बात है कि पैसों की ख्वाहिश उन्हें थी नहीं इसलिए वो कोलकाता वापस लौट आए. उनके इस फैसले में उनकी पत्नी ने भी उनका पूरा साथ दिया.
इसी साल उनकी अजांत्रिक नाम की फिल्म आई. इसके बाद मेघे ढका तारे, कोमल गांधार, सुबरनरेखा जैसी फिल्में भी उन्होंने बनाईं. इसमें उन्हें उस तरह की कामयाबी नहीं मिली जिसकी उन्हें उम्मीद थी. इस दौरान ऋत्विक घटक के काम को सत्यजीत रे जैसे बड़े डायरेक्टर्स ने सराहा लेकिन सफलता उनसे दूर थी. एक बेहतरीन कहानी को नाकाम होते देखना ऋत्विक घटक को परेशान करता रहा. वो नशे में डूबे रहने लगे. शराब ने उन्हें बीवी बच्चों से दूर कर दिया.
हर एक दिन उन्होंने अपने सपनों को टूटते हुए देखा. नतीजा ये हुआ कि उनके बारे में ये कहा जाने लगा कि वो दिन के उजाले में भी नशे में ही रहते हैं. पत्नी ने बच्चों को लेकर कुछ समय के लिए किनारा कर लिया. कहा जाता है कि इन बातों से परेशान ऋत्विक घटक को मानसिक आघात पहुंचा. वो कुछ समय के लिए अस्पताल में भी रहे. उनकी ‘क्रिएटिवटी’ का मोल मिलना तो दूर उनके साथ खड़े होने वाले गिनती भर लोग थे.
1966 के आस पास उन्हें फिल्म इंस्टीट्यूट ऑफ पुणे से पढ़ाने का न्यौता आया. वो वहां पढ़ाने गए. उनके पढ़ाए छात्रों में मणि कौल जैसे बड़े नाम भी शामिल थे. जिन्हें बाद में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से नवाजा गया था. सत्तर के दशक में भी ऋत्विक घटक ने कुछ फिल्में बनाईं. लेकिन उन फिल्मों ने भी उनकी काम और किस्मत को वो बुलंदी नहीं दी जो मधुमती ने उन्हें दी थी. 1970 में उन्हें भारत सरकार ने पद्मश्री से सम्मानित जरूर किया था.
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लेकिन ये दशक इस लाजवाब फिल्ममेकर की जिंदगी का अंत लेकर आया. 6 फरवरी 1976 को सिर्फ 50 साल की उम्र में उनका निधन हो गया. उसी के साथ उनका वो सपना भी चला गया जो कैमरे में अनकही कहानी को कहने की कला पर काम करना चाहता था. जिसकी बात अब भी होती रहती है.
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