अपने कंधों पर उठाए
अपनी देह
कदम-कदम बढ़ रहा था बाघ
लोदी रोड शमशान की ओर
फिर धीरे से उसने
खुद को चिता पर रक्खा
मुखाग्नि दी
और दुःख संतप्त भीड़ के साथ
खड़ा हो गया
चपड़-चपड़ करती
लपटों की जीभ
चटखारे ले रही थी
और वह देख रहा था
बाघ को बाघ की तरह
खाया जाना
उसे याद आए अपने वह शब्द
जो उसने इसी अवसर के लिए
कभी लिख छोड़े थे
'अंत में मित्रों,
इतना ही कहूंगा
कि अंत महज एक मुहावरा है.'
कुछ भी कह लीजिए, लेकिन ये सच्चाई है कि अब केदारनाथ सिंह इस दुनिया में नहीं हैं. 2013 में जब उन्हें ज्ञानपीठ से सम्मानित किया गया तो खुशी के बीच एक डर भी हिचकोले लेने लगा था, ‘तो क्या केदारनाथ जी का अंत करीब है?’ क्योंकि इस लेखक के जितने भी प्रशंसनीय साहित्यकार हैं उन्हें ज्ञानपीठ मिला और बस दो से पांच वर्षों के बीच वह चले गए. चाहे वह श्रीलाल शुक्ल हों, शहरयार हों, निर्मल वर्मा हों या सरदार जाफरी. हां कुर्रतुलैन हैदर एक अपवाद जरूर हैं जो ज्ञानपीठ के सम्मान के साथ 18 वर्ष जीवित रहीं.
पूरबिया होने का फख्र था
केदारनाथ जी से इस लेखक का परिचय कब हुआ पता नहीं. वह तो भला हो अशोक महेश्वरी का कि पिछले साल उनके एक कार्यक्रम में मुझे केदारनाथ जी को पहली बार (दूर से ही) साक्षात देखने और सुनने का मौका मिला था. कभी-कभी कुछ शख्सियतें जिंदगी में इतनी करीब हो जाती हैं कि मिल लें तो अच्छा, न भी मिलें तो फर्क नहीं पड़ता. लेखक के लिए ऐसे ही थे उसके केदारनाथ सिंह.
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बड़ा फख्र था उन्हें अपने पुरबिया होने पर. 'मैं वही पुरबिया हूं/जहां भी हूं.' वह सिर्फ कवि नहीं थे, एक ऐसे चिंतक थे जो अपने नैतिक संबल के साथ अपनी जमीन पर खड़ा था. 2015 में साहित्यकार लीलाधर मंडलोई ने एक बड़ा काम किया कि उनके लेखन का एक बहुत ही आकर्षक संचयन उनके जीवन-काल में ही प्रकाशित कर दिया. वह लिखते हैं, 'केदार जी की भाषा मुग्ध और चकित करने वाली भाषा है. एकदम शब्द की सही शक्ति को पकड़ती हुई. हम कवि की प्रिय कविताओं से गुजरते हुए दरअसल भारतीय जीवन के सौंदर्य और विडंबना को एक साथ देखते हैं.'
बड़ी तहदार शख्सियत थी केदारनाथ जी की. उनकी रचनाओं में दोहे की संस्कृति है. दोहे की खूबी यह है कि वह दृश्य सजाता है. केदारनाथ सिंह शब्दों से तस्वीर बनाते हैं और उसमें लोक कथाओं की आत्मीयता को सजाते हैं और अपने पाठकों को सम्मोहित करके उनके दिल में उतर जाते हैं.
इतने आयाम हैं इस शख्सियत में कि एक लेख में केदारनाथ सिंह को जी लेना नामुमकिन है. लेकिन एक चीज जो लगातार उनकी कविताओं और उनके लेखों में मिलती है वह है खूबसूरती से उनका न टूटने वाला याराना. जिसे हम उनका सौंदर्य-बोध भी कह सकते हैं. वह खुद एक साक्षात्कार में कहते हैं कि 'मेरे निकट सौंदर्य एक बहुत व्यापक शब्द है जो मानव और प्रकृति दोनों में है और कई बार वह वहां हो सकता है जिसे सामान्यतः असुंदर समझ लिया जाता है.'
मैं जानता हूं क्योंकि यह धूल
इस कस्बे की
और मेरे पूरे देश की
सबसे जिंदा और खूबसूरत चीज है.
केदारनाथ जी का रचना-संसार शुद्ध-देसी है लेकिन उनकी नजर दुनिया के साहित्य पर है. उनको ग़ालिब और मीर से प्यार है, रेने शा पे उन्हें एतबार है, उनकी नजरों में पाब्लो नेरुदा का रचनात्मक किरदार है और बर्तोल्त ब्रेख्त की दुनिया का विस्तार है. शिम्बोर्स्का की झकझोर देने वाली कविताओं से निकलकर जब अपने देश के कवियों पे निगाह पड़ती है तो केदारनाथ जी की रचनात्मक संवेदनाएं आपको सुकून पहुंचती है कि आपके पास भी विचार का एक अद्भुत खजाना है.
अद्भुत बिंबों की श्रृंखला है 'बाघ' कविता
‘बाघ’ शीर्षक से उनकी 21 कविताओं की एक अद्भुत श्रृंखला है जिसपर अलग से विवेचना की जाए तो पूरी एक किताब बन सकती है. इस श्रृंखला की पहली कविता से ही वह यह बता देते हैं कि एक अद्भुत बिंब का सृजन वह करने वाले हैं.
बिंब नहीं
प्रतीक नहीं
तार नहीं
हरकारा नहीं
मैं ही कहूँगा
क्योंकि मैं ही
सिर्फ मैं ही जानता हूं
मेरी पीठ पर
मेरे समय के
कितने निशान हैं.
‘बाघ’ के बारे में वह स्वयं लिखते हैं- ‘बाघ का लिखना कब शुरू हुआ-ठीक ठीक याद नहीं. याद है केवल इतना ही कि नवें दशक के शुरू में कभी हंगरी भाषी कवि यानोश पिलिंस्की की एक कविता पढ़ी थी और उस कविता में अभिव्यक्ति की जो एक नयी संभावना दिखी थी, उसने मेरे मन में पंचतंत्र को फिर से पढ़ने की इच्छा पैदा कर दी थी...'
इस श्रृंखला की कुछ कविताओं के कुछ अंश, नमूने के तौर पर यहां प्रस्तुत करना चाहूंगा. कविता प्रेमियों से इस अनुरोध के साथ कि इस चकित कर देने वाली श्रृंखला को अगर आपने नहीं पढ़ा है तो शायद आपसे कुछ छूट गया है.
‘बाघ’-दो
आज सुबह के अखबार में
एक छोटी सी खबर थी
कि पिछली रात शहर में
आया था बाघ! ...
सच्चाई यह है कि हम शक नहीं कर सकते
बाघ के आने पर
मौसम जैसा है
और हवा जैसी बह रही है
उसमें कभी भी और कहीं भी
आ सकता है बाघ
मशहूर उड़िया कवि और चिंतक हरप्रसाद दास लिखते हैं- ‘असल में हम ‘बाघ’ को तीन या चार धरातलों पर पढ़ सकते हैं- बाघ जो था, बाघ जो अब नहीं है, बाघ जिसकी हमें तलाश है और उससे भी महत्वपूर्ण वह जो बाघ कभी था ही नहीं’.
‘बाघ’-तीन
कथाओं से भरे इस देश में
मैं भी एक कथा हूं
एक कथा है बाघ भी
इसलिए कई बार
जब उसे छिपने को नहीं मिलती
कोई ठीक-ठाक जगह
तो वह धीरे से उठता है
और जाकर बैठ जाता है
किसी कथा की ओट में
केदारनाथ सिंह ‘बाघ’ श्रृंखला की अपनी प्रस्तावना में लिखते हैं- ‘आज का मनुष्य बाघ की प्रत्यक्ष वास्तविकता से इतनी दूर आ गया है कि जाने-अनजाने बाघ उसके लिए एक मिथकीय सत्ता में बदल गया है.'
‘बाघ’-चार
इस विशाल देश के
धुर उत्तर में
एक छोटा सा खंडहर है
किसी प्राचीन नगर का
जहां उसके वैभव के दिनों में
कभी-कभी आते थे बुद्ध
कभी कभी आता था
बाघ भी
दोनों अलग-अलग आते थे
अगर बुद्ध आते थे पूरब से
तो बाघ का क्या
कभी वह पश्चिम से आ जाता था
कभी किसी ऐसी गुमनाम दिशा से
जिसका किसी को
आभास तक नहीं होता था
हरप्रसाद दास लिखते हैं कि ‘इस ढलती हुई शताब्दी के इस अंधे मोड़ पर ‘बाघ’ दरअस्ल समय के विध्वंसों के खिलाफ मनुष्य के संघर्ष की गाथा है’ कई बार लगता है कि वस्तुतः यह मायावी समय ही बाघ है.
‘बाघ’-उन्नीस
जब सूरज डूब रहा था
एक आदमी खड़ा था शहर की सबसे ऊंची
मीनार पर
और चिल्ला रहा था-
दोस्तों, यह सदी बीत रही है
बीत रहे हैं सारे पहाड़ और नदियां
और हाबड़ा का पुल
और हवाई जहाज के डैने
और बुनते हुए हाथ
और चलते हुए पैर
सब बीत रहे हैं
पर दोस्तों, हमें जीना होगा
जीना होगा बाघ के साथ
और बाघ के बिना भी जीना होगा ...
वह आदमी उस शहर में
जिस सब से ऊंची मीनार पर खड़ा था
वह असल में कहीं थी ही नहीं
पोलिश कवयित्री विस्साव शिम्बोर्स्का भी बीतती सदी को अपने शब्द देती हैं –
आखिरकार हमारी सदी बीत चली है
इसे दूसरी सदियों से बेहतर होना था
लेकिन अब तो
यह अपने गिने-चुने साल पूरे कर रही है
इसकी कमर झुक गई है
सांस फूल रही है...
कितनी ही चीजें थीं
जिन्हें इस सदी में होना था
पर नहीं हुईं
और जिन्हें नहीं होना था
हो गईं.
लेकिन बीतती सदी पर आधारित इन दोनों कविताओं में संवेदना और बिंबों के माध्यम से समय की जो तस्वीर केदारनाथ सिंह बनाते हैं वह साक्षात दिखाई देती है भले ही उसका कोई वजूद नहीं है.
ऐसे थे केदार नाथ जी, ऐसा था उनका रचना-बोध, ऐसी शाब्दिक संवेदना का अंत कैसे हो सकता है. अक्षर तो वह होते हैं जिनका क्षर न हो. केदारनाथ सिंह अक्षर हैं, अमर हैं. वह खुद कहते हैं कि अंत महज एक मुहावरा है. पर क्या करें इस सच्चाई का कि वह अब हमारे बीच नहीं.
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