कुआं ठाकुर का
पानी ठाकुर का
खेत-खलिहान ठाकुर के
गली-मुहल्ले ठाकुर के
फिर अपना क्या ?
गांव ?
शहर ?
देश ?
-ओमप्रकाश वाल्मीकि
हम अभी तक सुनते आए हैं 'जिसका कोई नहीं होता उसका राम (भगवान) होता है.' लेकिन जब राम का नाम ही आपको नसीब ना हो तो क्या करेंगे?
जातिव्यवस्था में घिरे एक ऐसे समाज से आज आपको रूबरू कराते हैं. जिसका पूरी तरह से सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया था, जातिव्यवस्था से घिरे इस कुंठित समाज ने. वो भी सिर्फ इसलिए क्योंकि इनका जन्म दलित परिवार में हुआ था.
राम के नाम राजनीति, राम के नाम पर जातिगत भेदभाव, राम के नाम पर धार्मिक भेदभाव, बस इतना ही नहीं इससे आगे भी राम का ताल्लुक है. ताल्लुक है उस समुदाय से जो अपने सिर से लेकर पैर तक राम का नाम लिखवाए रखती है. छत्तीसगढ़ में रहने वाले इस समुदाय को 'रामनामी' समाज कहा जाता है.
वैसे तो हिंदुस्तान में जातिव्यवस्था बहुत पुरानी है. लेकिन इस जातिव्यस्था के विरोध की शुरुआत 1890 के आसपास हुई थी. छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा के एक छोटे से गांव चारपारा में एक दलित युवक परशुराम ने रामनामी समाज की स्थापना की थी.
इस समुदाय की शुरुआत हिंदुस्तान के उस घृणा करने वाले समाज से हुई है. जो बच्चों को बचपन से ही जातिगत भेदभाव का पाठ पढ़ाता आया है. बिना किसी वजूद के खुद को उच्च और एक विशेष वर्ग को दलित समझने के विरोध में एक पुरानी आवाज है रामनामी समाज.
रामनामी समाज अपने पूरे शरीर पर राम नाम के टैटू बनवाए रखता है. इतना ही नहीं कपड़े भी राम लिखे हुए पहनता है. दलितों से भेदभाव, मंदिरों में प्रवेश पर रोक के चलते इस समाज के लोगों ने अपने पूरे शरीर पर राम नाम के टैटू बनवा लिए थे. रामनामी के घर की दीवारों पर राम लिखा होता है, आपस में भी यह एक दूसरे को राम के नाम से बुलाते हैं.
पारंपरिक रूप से दलितों का मंदिरों में प्रवेश वर्जित था. पूजा करने नहीं दी जाती थी तो इन लोगों ने करीब 125 साल पहले इस जातिगत व्यवस्था के खिलाफ अपने पूरे शरीर पर राम नाम के टैटू बनवा लिए थे. इनका कहना है कि भगवान सिर्फ एक जगह नहीं होता. भगवान हर जगह मौजूद है. राम सर्वव्यापी है और हमेशा उनके साथ है.
पुनई बाई (75) ने रॉयटर्स को बताया दो सप्ताह की उम्र में इनके पूरे शरीर को पानी के साथ केरोसीन लैम्प से निकलने वाले काजल से बने डाई का उपयोग करके पूरे शरीर पर टैटू बनाए गए. पूरे शरीर पर टैटू बनाने में करीब 18 साल का समय लगा.
इनका कहना है ‘भगवान हर किसी के लिए है, ना कि एक विशेष समुदाय (सवर्णों) के लिए.’ बाई अपने बेटे के साथ एक कमरे के घर में रहती है. इनकी एक पोती और दो पोते भी इनके साथ रहते हैं.
रामनामी समाज की गिनती लगातार घटती जा रही है. जिसकी मुख्य वजह है नई पीढ़ी का इस परंपरा में विश्वास ना होना. फिलहाल करीब 1,00,000 रामनामी छत्तीसगढ़ के एक दर्जन गांव में रहते हैं. 1955 में सरकारी फरमान निकलने के बाद जातिगत भेदभाव में कमी आई है. गांव वालों का मानना है कि इस आदेश के बाद दलितों की जिंदगी में सुधार आया है. युवा रामनामी दूसरे राज्यों में पढ़ाई-लिखाई और रोजगार के लिए जाने लगे हैं.
शायद इनमें से कुछ लोगों को वोट का मतलब भी नहीं पता और ना ही ये पता है कि शरीर पर लिखे इनके राम का इस्तेमाल भारत में किस कदर हो रहा है. राम के नाम से राजनेता लार टपकाते हैं. क्योंकि उनके लिए राम कोई जातिसूचक या भगवान नहीं सिर्फ सत्ता तक पहुंचने की एक सीढ़ी है.
इस समाज में पैदा होने वाले बच्चे के पूरे शरीर पर ‘राम’ लिखा जाता है. लेकिन ऐसा नहीं करने पर दो साल के होने तक बच्चे की छाती पर राम का नाम लिखना अनिवार्य है. मान्यता के अनुसार रामनामी शराब, सिगरेट-बीड़ी का सेवन नहीं करते, इसी के साथ राम का जाप रोजाना करना होता है. वहीं जाति, धर्म से दूर हर व्यक्ति से समान व्यवहार करना होता है.
रामनामी मेहत्तर लाल टंडन का कहना है कि मंदिरों पर सवर्णों ने धोखे से कब्जा कर लिया और हमें राम से दूर करने की कोशिश की गई. हमने मंदिरों में जाना छोड़ दिया, हमने मूर्तियों को छोड़ दिया. ये मंदिर और ये मूर्तियां इन पंडितों को ही मुबारक.
मान्यता के अनुसार प्रत्येक रामनामी को घर में रामायण रखनी होती है. इनका मानना है कि भगवान के जीवन पर आधारित यह किताब इन्हें जीवन जीने की पद्धति सिखाती है. इनमें से ज्यादातर लोगों ने अपने घरों की दीवार पर काली स्याही से दीवार के बाहरी और अंदरुनी हिस्से में ‘राम राम’ लिखा हुआ है.
अब जरा सोचिए जिस राम का आप और हम अपने दुखों के निवारण के लिए इस्तेमाल करते हैं. जिन मंदिरों में आप और हम बेझिझक जाते हैं. जिस समाज का आप और हम हिस्सा हैं उसी समाज ने इनपर इतना जुल्म किया कि इन्हें अपने राम बनाने पड़ गए. इनके राम का ताल्लुक ना तो अयोध्या के राम से है और ना ही मंदिरों में बुत बनकर खड़ी मूर्तियों से है.
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