मेरे ख्याल से भोजन हर धर्म के मूल में है क्योंकि भोजन जीवन-जगत के सबसे महत्वपूर्ण धर्मादेश का प्रतीक है कि: हे मनुष्यों! तुम किसी को नुकसान नहीं पहुंचाओगे. मीट खाने वाले लोग बहुतों के कष्ट का कारण बनते हैं. वो सिर्फ जानवरों को ही नहीं बल्कि समूची धरती को नुकसान पहुंचाते हैं. कोई मुझसे दुनिया के सबसे 5 बेहतरीन शाकाहारियों के नाम पूछे तो मैं कहूंगी पैगंबर मोहम्मद साहब, ईसा मसीह, बुद्ध, रुमी और महात्मा गांधी. कितने दुख की बात है कि इन पांचों शाकाहारियों के अनुयायी उनके धर्मग्रंथों का रोजाना रट्टा लगाते हैं लेकिन मीट खाने से रत्ती भर भी परहेज नहीं करते.
आपने जलालुद्दीन मोहम्मद बल्खी का नाम तो सुना ही होगा. वो रुमी के नाम से विख्यात हैं. 13वीं सदी (1207-1273) के मुस्लिम कवि रुमी, न्यायविद्, धर्मशास्त्री और सूफी रहस्यवादी भी थे. रुमी का जन्म बल्ख (तब ईरान में लेकिन अभी अफगानिस्तान में) में हुआ था और उन्होंने आखिरी सांस ली कोन्या में जो अब तुर्की में है. लोग उन्हें मौलाना (शिक्षक) और मौलवी कहते थे. उन्हें शीर्ष स्तर के सूफी शिक्षकों और कवियों में शुमार किया जाता है. उनकी काव्य रचना मसनवी-ई-मा’नवी विश्व-विख्यात है. इस रचना ने पूरे मुस्लिम जगत में रहस्यवादी धारा के सोच और साहित्य को गहरे स्तर पर प्रभावित किया है. रुमी की मृत्यु के बाद उनके बेटे और अनुयायियों ने मेवलेवी सिलसिले की स्थापना की जिसे गिर्दानी दरवेशों (नर्तक साधुओं) का सिलसिला भी कहा जाता है.
अलग-अलग कौमियत के मुसलमान सब ही पर रुमी का असर है
रुमी का प्रभाव मुल्क और कौम की सीमाओं को लांघकर हर तरफ पहुंचा है. ईरानी, ताजिक, तुर्क, यूनानी, पश्तून और अलग-अलग कौमियत के मुसलमान सब ही पर रुमी का असर है. उनकी कविताओं का दुनिया बहुत सी भाषाओं में अनुवाद हुआ है और फारसी, तुर्की, पश्तो और उर्दू के साहित्य पर इसका गहरा असर है.
सूफीयत या तसव्वुफ अतर्बोध के सहारे उपजने वाले रहस्यवादी दर्शन का नाम है और इसका रिश्ता इस्लाम के अध्यात्मिक पहलू से है. सूफीयत में पैगंबर मोहम्मद साहब को पूर्ण आत्म माना जाता है, ऐसा आत्म जिसके भीतर अल्लाह का नैतिक गुण पूरी तरफ से रुपायित हुआ है. सूफी मत के अलग-अलग सिलसिले होते हैं. यह सिलसिले किसी गुरु (पीर) को केंद्र में रखकर बनते हैं और सूफी मत के मानने वाले अपने पीर के अनुयायी होते हैं. अलग-अलग सिलसिले से जुड़े अनुयायी पूर्णता प्राप्त करने के प्रयास करते हैं. विलियम क्टिक के मुताबिक, 'व्यापक अर्थों में देखें तो सूफीयत इस्लामी आस्था को आत्मसात करने और उसे भावावेग के जरिए तीव्रतर करने का नाम है.' सूफीयत को इस्लाम का शांतिप्रिय और अराजनीतिक धर्म-मत माना जाता है. यह अंतर्रधार्मिक संवाद और बहुलतावादी समाजों में अलग-अलग संस्कृतियों के बीच समरसता कायम करने में बहुत मददगार है. सूफीयत सहिष्णुता और मानवतावाद का प्रतीक है- इसमें लचीलापन है और इसकी भावधारा अहिंसक है.
सूफी मत के मानने वाले इस्लामी कानूनों का कड़ाई से पालन करते हैं लेकिन वो संत होते हैं और नाम-जप के आचरण का पूरी निष्ठा से पालन करते हैं. सूफी मत में नाम-जप ‘जिक्र’ कहलाता है. जिक्र में अल्लाह को स्मरण किया जाता है. सूफी मत के क्लासिकल विद्वानों ने तसव्वुफ की परिभाषा करते हुए उसे विज्ञान का दर्जा दिया है- एक ऐसा विज्ञान जिसके जरिए हृदय में अपनी गलतियों के लिए पश्चताप-भावना जागती है और हृदय दुनिया की तमाम बातों से दूर होकर सिर्फ अल्लाह पर केंद्रित होता है. सूफियों में मान्यता है कि पैगंबर मोहम्मद साहब में निष्ठा रखकर वो लोग अध्यात्मिक रुप से अल्लाह से जुड़ सकते हैं. कहा गया है कि सूफीयत हृदय को शुद्ध करने का विज्ञान है और इसमें 'गहरी भक्ति, पवित्रता भरे संयम और दिव्य रहस्यों के मनन-चिंतन का रास्ता अपनाया जाता है. सूफी मत सुन्नी और शिया संप्रदाय में समान रुप से मौजूद है, यह अलग से कोई संप्रदाय नहीं बल्कि जरुरी धार्मिक कर्तव्यों को पूरा करते हुए धर्म को जानने-समझने का एक रास्ता है. इसमें साधना के जरिए वो साधन और तरीके तलाशे जाते हैं जिनके सहारे आत्मा अपने संकरे द्वार से निकलकर पूर्ण आत्मा के पथ पर अग्रसर हो और उसे दिव्यता के दर्शन हो सकें.
जीवित रहते भी दिव्य ज्योति की मौजूदगी को महसूस करना संभव है
यों हर मुस्लिम का विश्वास है कि वो अल्लाह के रास्ते पर हैं और उसे उम्मीद होती है कि मृत्यु और कयामत के दिन के बाद वह जन्नत में अल्लाह के नजदीक होगा लेकिन सूफियों का एक विश्वास यह भी है कि जीवित रहते भी दिव्य ज्योति की मौजूदगी को महसूस करना संभव है. इसके लिए अपने पापों का प्रायश्चित करना होता है, निंदा योग्य समझने जाने वाले कर्मों से अपने को दूर रखना होता है, चरित्र के दोषों से बचना होता है और सदगुण अपनाना और सच्चरित्र बनना पड़ता है.
सूफी मत की एक खास बात है- पैगंबर मोहम्मद साहब के प्रति गहरी भक्ति-भावना. रुमी का दावा था कि आत्म-संयम और दुनियावी लोभ-लालच से परहेज करने का गुण उन्हें पैगंबर मोहम्मद साहब के दिशा-निर्देश में हासिल हुआ. रुमी कहते हैं, 'मैंने इस दुनिया और उस दुनिया दोनों ही की वासनाओं से अपनी आंखें फेर लीं- और यह मैंने पैगंबर मोहम्मद साहब से सीखा.'
जिक्र (Dhikr) अल्लाह के स्मरण को कहते हैं. कुरान में इस बारे में आदेश है कि सभी मुस्लिम एक धार्मिक कृत्य समझकर भक्ति-भाव से दिव्य नाम का स्मरण करें, कुरान और हदीस में आए अल्लाह के नामों का जाप किया जाय. सूफियों के नाम-जप के कर्मकांड में नाम-सुमिरन, भजन-कीर्तन (इसका लोकप्रिय रुप कव्वाली है), वाद्य बजाना, नृत्य करना, ध्यान धरना, मस्ताना बनना और ईश्वर के प्रमोद उन्माद में होना शामिल है.
नर्तक साधुओं या फिर कह लें गिर्दानी दरवेश की परंपरा का जन्म सूफियों के मेवलेवी सिलसिले से हुआ और आज भी इस प्रथा का चलन है. इसमें सिलसिले के अनुयायी दरवेश उस लक्ष्य तक पहुंचने की कोशिश करते हैं जो सभी किस्म की पूर्णताओं का स्रोत है. इसके लिए अपने अहं और निजी वासनाओं का त्याग कर ईश्वर पर ध्यान केंद्रित कर के अपने शरीर को गोलाकार घुमाना पड़ता है. माना जाता है कि यह नृत्य वैसा ही है जैसे कि पूरा सौरमंडल सूर्य के गिर्द चक्कर लगाए.
12 साल की उम्र में शाकाहार अपनाया और बाद में आजीवन शाकाहारी रहे
मीट खाने वाले मुस्लिम जगत में पैदा हुए रुमी ने 12 साल की उम्र में शाकाहार अपनाया और इसके बाद आजीवन शाकाहारी रहे. उन्होंने इस प्रसंग में यह रुबाई लिखी थी... 'शदीद-अज-क्वा नी अस्त मुनाजिन/या रफीरुल उल-किस्त अमनाजीर/चूं के अस्त शदाज रफ्तम के अजदान/वाहिन उल-खिरामा, जा दिज्तून बूअजीर'? (मेरी हस्ती है और मैं इसकी बड़ी कद्र करता हूं/इसी तरह सभी जीवों की इस धरती पर हस्ती है और वो भी अपनी हस्ती को बचाने की कोशिश करते हैं/तो फिर मैं छोटे से छोटे जीव को भी कैसे मार सकता हूं/वो भी सिर्फ भोजन की तश्तरी में सजाने के लिए?)
रुमी का विश्वास था कि सभी जीवों में पवित्रता का वास है, हर हस्ती दिव्य है: ताशिफ निफाक बअस्तज संग (यहां तक कि निर्जीव जान पड़ते पत्थर में भी कुछ हद तक चेतना होती है, उस चेतना का आदर करो). रुमी आले दर्जे के शाकाहारी थे और वो दूध या दूध से बने भोज्य-पदार्थ तक अपने आहार में शामिल नहीं करते थे. (शीर मन-हराम नुज्त: मेरे लिए दूध तक वर्जित है). इस्लाम में बकरीद के मौके पर पशु-बलि देने की प्रथा है लेकिन रुमी ने इससे भी परहेज किया था.
रुमी ने तुर्की भाषा में लिखा है, 'अइक देज चरिन्दा-उल-इन्सान रिश’ह’आज (सभी पशुओं को उसी तरह देखो जैसे कि इंसान को देखते हो). यह बड़े महत्व की बात है. ऐसे ही बोध से वह संवेदना जागती है जो विश्व के प्रति करुणा भाव का रुप ले लेती है. जीवन-मात्र पवित्र है और इस पवित्रता की रक्षा होनी चाहिए, उसे बचाए रखा जाना चाहिए: 'कहिन निश शुदम इल-फजीर-उन-निसार'.
रुमी ने लिखा है कि हम जो कुछ खाते हैं उसका सीधा असर हमारे सोच-विचार पर होता है. अगर हम जानवर को आहार बनाएंगे तो उसका रक्त-मांस हमें कसाई की तरह आचरण करने को बाध्य करेगा: 'उन किस्साब, गोश्त-ए-जकाफ.'
'हमने अपनी हस्ती की शुरुआत खनिज-लवण के रुप में की थी. फिर हम पौधों के रुप में आए और इसके बाद पशुओं का रुप धरा. इसके बाद हमारा अवतरण मनुष्य-रुप में हुआ और हम हमेशा अपने पूर्ववर्ती रुप को भूलते रहे, सिर्फ बहार (बसंत) के उन शुरुआती दिनों को छोड़कर जब हमें कुछ-कुछ याद आता है अपना सरसब्ज होना.'- रुमी, सेलेक्टेड पोयम्स, पेंग्विन यूके.
'जब मौत आई तो हमने कब्र धरती में नहीं लोगों के दिल में तलाशा'
जब रुमी ने आखिरी सांस ली तो उनके शव को कब्र में दफनाया गया और उस जगह पर एक दरगाह येसिल तुरबे (हरियाला मकबरा) नाम से तामीर हुई. उनकी कब्र पर मृत्युलेख के रुप में लिखा है: जब मौत आई तो हमने कब्र धरती में नहीं लोगों के दिल में तलाशा.
रुमी का गहरा विश्वास था कि संगीत, कविता और नृत्य के रास्ते अल्लाह तक पहुंचा जा सकता है. इन्हीं विचारों ने नर्तक साधुओं (गिर्दानी दरवेश) की परंपरा को जन्म दिया और इस परंपरा ने मेवलेवी सिलसिले में एक धार्मिक अनुष्ठान का रुप लिया. मेवलेवी सिलसिले में पूजा को अध्यात्मिक उत्थान का रहस्यधर्मी सफर माना गया है जिसमें साधक मन और प्रेम के सहारे पूर्ण अस्तित्व (अल्लाह) की ओर अग्रसर होता है. इस सफर में, साधक प्रतीकात्मक रुप से सत्य की ओर उन्मुख होता है, प्रेम के सहारे आगे बढ़ता है, अहं का त्याग करता और सत्य को प्राप्त होता है और इस तरह पूर्ण अस्तित्व तक पहुंचता है. इसका बाद साधक अपने अध्यात्मिक सफर से वापसी की यात्रा करता है. वह पहले की तुलना में ज्यादा परिपक्व हो चुका होता है, उसमें पहले की अपेक्षा ज्यादा प्रेमभाव होता है और वह बिना कोई भेदभाव किए संपूर्ण जीवन-जगत की सेवा करता है.' और, इस सेवा के अंतर्गत पशुओं से प्रेम का बर्ताव करना भी शामिल है. इतिवृत लिखने वालों ने दर्ज किया है कि रुमी ने अपनी ज्यादातर कविताएं प्रेम उन्माद की दशा में लिखीं. उसमें बांसुरी की तान और ढोल की थाप है और उस मेरम के पानी की आवाज भी जहां रुमी अपने शिष्यों के साथ कुदरत के दर्शन के लिए गए थे. उन्हें प्रकृति में दिव्य सौंदर्य की झलक मिली और महसूस हुआ कि फूल और परिंदे उनके प्रेम में हिस्सेदार हैं. मौलाना जलालुद्दीन रुमी कहते हैं, 'हर प्रेम दिव्य प्रेम का सेतु है. लेकिन जिसने इसका स्वाद न जाना वो इस बात को नहीं जानता.'
मेवलेवी सिलसिले से हर रंग-ओ-नस्ल के लोगों को एक निमंत्रण भेजा जाता है: 'बुतपरस्त, आतिशपरस्त, दरवेश- आप जो कोई भी हों, आइए, आ जाइए! भले ही आपने अपना अकीदा हजार बार तोड़ा हो, आइए, आ जाइए क्योंकि हमारा कारवां किसी को नाउम्मीद और निराश नहीं रखता!'
आप में से जो लोग भी मीट खाते हैं, मैं उन्हें यह निमंत्रण सुनाना चाहती हूं. पशुओं को मारना बंद कीजिए, पशुओं के प्रति प्रेम और सम्मान का बर्ताव कीजिए, उन्हें ईश्वर का ही प्रतिरुप मानिए. ऐसा कीजिए और देखिए कि खुशी किस तरह बढ़ती है और आपके पास-पड़ोस में दुनिया किस तरह बदलती है.
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