सितार तार-तार हो गया. पंडित रविशंकर परमशक्ति में वैसे ही लीन हो गए, जैसे वे सितार की धुन में लीन होते थे. सुध-बुध खोकर. बनारस से उनका गहरा नाता था. यहीं जनमे, पले, बढ़े. नटराज की गलियों में नृत्य के गुर सीखे. सुरीली तानें सुनीं. यह एक दारुण तथ्य है कि पहले उस्ताद बिस्मिल्लाह खां, फिर किशन महाराज और फिर पंडितजी. एक-एक कर तीनों चले गए. लगता है, काशी से संगीत का नाता ही टूट जाएगा. सितारों से खाली हो गया बनारस. उसका रस छीज रहा है.
बनारस के तिलभांडेश्वर से लेकर अमेरिका के सेंट डियागो तक की उनकी यात्रा भारतीय संगीत की जय यात्रा है. ‘रॉक’ और ‘पॉप’ की झनझनाती दुनिया में उन्होंने सितार की पहचान वैश्विक संगीत से कराई. उसे इस ऊंचाई पर ले गए, जहां सितार और रविशंकर एक-दूसरे में समाते हैं.
दरअसल, धुनों का यह उस्ताद अरसे से देशी और विलायती संगीत के बीच पुल का काम कर रहा था, पर अपनी शर्तों पर. बीटल्स के जॉर्ज हैरिसन हो या गिटारिस्ट जिमी हैंड्रिक्स या वायलिन वादक जुबिन मेहता. पंडितजी के बनारसी स्वभाव ने किसी को अपने संगीत पर हावी नहीं होने दिया. ‘फ्यूजन’ के बावजूद शास्त्रीय संगीत की पवित्रता और आत्मा बनी रही.
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पंडितजी ने तो संगीत और सितार को तार दिया. पर हमने पंडितजी को क्या दिया? उनका ‘भारत रत्न’ उनके साथ चला गया. काशी से उनका अटूट रिश्ता था. पर क्या कोई बनारस जा इस बात की तस्दीक कर सकता है कि पंडितजी यहीं के थे? जिस घर में वे जनमे थे, वह गिर गया. अपनी मां हिमांगना के नाम पर जो मकान उन्होंने शिवपुर के तरना में बनाया था, वह बिक गया.
नए कलाकारों की ट्रेनिंग और रियाज के लिए उन्होंने जो संस्था रविशंकर इंस्टीट्यूट फॉर म्यूजिक एंड परफॉर्मिंग आर्ट्स ‘रिम्पा’ बनाई थी, वह आर्थिक अभाव में बंद हो गई. मृत्यु पर शोक जताते प्रधानमंत्री ने उन्हें भारत की सांस्कृतिक विरासत का वैश्विक दूत तो कहा, पर हम क्यों अपने इन वैश्विक नायकों के प्रति इतने क्रूर हैं? सच यही है कि अगर आप बनारस जाएं तो आपको पंडितजी की शहर से पहचान करानेवाली एक ईंट भी नहीं मिलेगी.
हम अपनी परंपरा को लेकर चाहे कितने भी आत्ममुग्ध हों, पर साहित्य और संगीत की जड़ें पश्चिम में गहरी हैं. वे अपने नायकों की स्मृतियां सहेजकर रखते हैं. पिछले दिनों मैं ऑस्ट्रिया गया था. ऑस्ट्रिया का एक छोटा सा शहर है ‘साल्सबर्ग’. पश्चिम के महान संगीतकार ‘मोजार्ट’ यहीं पैदा हुए थे.
मोजार्ट के नाम पर इस शहर का आधे से ज्यादा हिस्सा है. चॉकलेट से लेकर कपड़ों तक उनके नाम की ब्रैंडिंग है. मोजार्ट का घर, उसका स्कूल, उसका थियेटर, वह ‘स्क्वायर’ जहां बैठ वह संगीत की धुनें रचता था, सब उसके नाम हैं. स्टेशन, ट्रेन, गाड़ी-हर कहीं मोजार्ट.
हम अपने नायकों के प्रति ऐसे कृतज्ञ क्यों नहीं हो पाते?
पंडितजी की पहली पत्नी अन्नपूर्णा देवी का नाता भी बनारस से रहा. काफी वक्त तक वे उनके तरनावाले घर ‘हिमांगना’ में रहती थीं. अन्नपूर्णा देवी उस्ताद अलाउद्दीन खां की बेटी थीं. बाद में पंडितजी का सहजीवन नृत्यांगना कमला शास्त्री से हुआ. इसके बाद एक ही वक्त में अमेरिका में सू जोंस और भारत में सुकन्या उनके जीवन में आईं. नोरा जोंस और अनुष्का इन्हीं दोनों की बेटी हैं.
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पंडितजी के इस उदारवादी स्वभाव पर उनके समकालीन चुटकी भी लेते थे. बात 7 अप्रैल, 1990 की है. पंडितजी की 70वीं सालगिरह थी. दिल्ली में एक भव्य समारोह में उस्ताद बिस्मिल्लाह खां के हाथों उनका अभिनंदन होना था. खां साहब बनारसी मुंहफट थे. बहुत सोच-समझकर नहीं बोलते थे. समारोह में खां साहब भावुक हो गए. कहा, 'पंडितजी ने संगीत की बड़ी सेवा की है. मैं खुदा से दुआ करता हूं, मेरी बाकी बची उम्र उन्हें लग जाए.'
हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. तभी खां साहब बोले, 'पर एक बात बताना चाहता हूं. मेरी बाकी बची उम्र अब शादी करने लायक नहीं है.' पंडितजी ने उठकर उस्ताद के हाथ चूम लिए. यह संयोग ही है कि खां साहब पंडितजी से पहले चले गए.
साज से पंडितजी का आध्यात्मिक रिश्ता था. जब वे जहाज से यात्रा करते तो बगलवाली सीट उनके सितार के लिए ‘सुर शंकर’ नाम से बुक होती. रविशंकर और सुर शंकर साथ-साथ. तल्लीनता और एकाग्रता ऐसी कि बनारस में ‘रिम्पा’ के एक कार्यक्रम में मैं उन्हें आगे बैठकर सुन रहा था. बगल में एक बहनजी संगीत सुनते-सुनते स्वेटर भी बुन रही थीं. पंडितजी ने सितार रख दिया. बोले-या तो आपकी उंगलियां चलेंगी या मेरी. वे भोजपुरी अच्छी बोल लेते थे, क्योंकि उनकी मां गाजीपुर की थीं.
फारसी के सेह (तीन) से ही सेहतार बना. यों सम्राट विक्रमादित्य के दरबार में भी सितार वादन का उल्लेख मिलता है. इतनी लंबी परंपरा के बावजूद सितार जाना गया, पंडितजी के नाम से. वे संगीत में नए प्रयोगों के हिमायती तो थे ही, ढेर सारे नए राग भी उन्होंने रचे. उनके रागों में खास है ‘तिलक श्याम’, जो तिलक कामोद और श्याम कल्याण को मिला रात को गाया जानेवाला राग है.
बनारस नटराज की नगरी है. उनके डमरू से ही मृदंग और तबले के बोल निकले हैं. ऐसे में पंडितजी पीछे क्यों रहते? उन्होंने भैरव में बदलाव कर ‘नटभैरव’ बनाया, शिव को प्रसन्न करनेवाला यह सुबह का राग है. अहीर भैरव और ललित को मिला, उन्होंने सबेरे गाया जानेवाला राग ‘अहीर ललित’ बनाया.
उनका रचा राग ‘गंगेश्वरी’ देवी दुर्गा को समर्पित राग है, जिसे उन्होंने इलाहाबाद में एक संगीत सम्मेलन के दौरान गंगा के तट पर रचा. महात्मा गांधी की हत्या से दुखी पंडितजी ने राग मोहनकौस बनाया था. पंडितजी संगीत को शैली, धारा और भौगोलिक सीमा से बाहर ले गए.
(यह लेख हेमंत शर्मा की पुस्तक 'तमाशा मेरे आगे' से लिया गया है. पुस्तक प्रभात प्रकाशन द्वारा प्रकाशित की गई है)
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